हरीश चन्द्र गुप्ता की रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के दरभा तहसील स्थित छिंदावाड़ा गाँव में रहने वाले रमेश बघेल पिछले 15 दिनों से अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके पिता, सुभाष बघेल, का निधन 7 जनवरी को हुआ था, लेकिन अब तक उनका अंतिम संस्कार नहीं हो सका है।
रमेश का आरोप है कि ईसाई होने के कारण गाँव के लोगों ने उनके पिता को गाँव में दफनाने की अनुमति नहीं दी। उनका कहना है कि गाँव के सरपंच के पति और दो अन्य लोग उनके घर आए और अंतिम संस्कार रोकने का फरमान सुना दिया। उनके लाख अनुरोध करने के बावजूद ग्रामीणों ने अपनी जिद नहीं छोड़ी।
न्याय के लिए भटकते रमेश
अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए रमेश ने पहले स्थानीय प्रशासन से गुहार लगाई, फिर छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय और अंत में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 20 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा, “हमें बहुत दुख है कि एक व्यक्ति को अपने पिता को दफनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा।”
इससे पहले, 17 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच ने छत्तीसगढ़ सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था। अदालत ने इस बात पर नाराजगी जताई कि पंचायत, राज्य सरकार और उच्च न्यायालय, कोई भी इस समस्या का समाधान नहीं निकाल सका।
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि गाँव के पास ही ईसाई समुदाय के लिए कब्रिस्तान मौजूद है, इसलिए रमेश को वहीं अपने पिता का अंतिम संस्कार करना चाहिए। अदालत ने तर्क दिया कि यदि उन्हें गाँव में दफनाने की अनुमति दी जाती है, तो इससे “कानून और व्यवस्था की समस्या” पैदा हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर असहमति जताई और इस स्थिति पर चिंता व्यक्त की।
पुलिस का बयान और बस्तर में बढ़ता धार्मिक टकराव
बस्तर के पुलिस अधीक्षक शलभ सिन्हा ने स्वीकार किया कि इस तरह के मामले हाल के वर्षों में बढ़े हैं। उन्होंने बताया कि कुछ मामलों में ग्रामीणों ने ईसाई समुदाय द्वारा दफनाए गए शवों को कब्र से निकालने तक का प्रयास किया है।
वे कहते हैं, “हमारा प्रयास यही रहता है कि ऐसे मामलों में सौहार्दपूर्ण हल निकाला जाए, लेकिन कई बार स्थिति हिंसक भी हो जाती है।”
गाँव वालों का तर्क और पंचायत का फरमान
छिंदावाड़ा गाँव के सरपंच के पति मंगतू का कहना है कि गाँव में करीब एक साल पहले सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया था कि ईसाई समुदाय के लोगों को शव दफनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
वे आरोप लगाते हैं, “ईसाई आदिवासियों ने गाँव के लोगों से बातचीत बंद कर दी थी। वे हमारे त्योहारों में शामिल नहीं होते, तो फिर हम उन्हें गाँव में शव दफनाने की अनुमति क्यों दें?”
ग्राम पंचायत ने इस संबंध में एक लिखित फैसला भी जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि “जो परिवार गाँव की परंपराओं, रीति-रिवाजों और संस्कृति को छोड़ चुके हैं, उन्हें शव दफनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।”
संविधान और सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का अधिकार
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर व्यक्ति को सम्मानपूर्वक जीवन और मृत्यु का अधिकार प्राप्त है। इसी सिद्धांत पर अप्रैल 2024 में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के जस्टिस राकेश मोहन पांडेय ने एक अन्य मामले में फैसला दिया था कि “सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का अधिकार भी जीवन के अधिकार में शामिल है।”
उन्होंने अपने फैसले में रामायण के एक श्लोक का उल्लेख करते हुए कहा था, “माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है।” इसी आदेश के बाद जगदलपुर के एक ईसाई व्यक्ति के शव को उनके गाँव में दफनाने की अनुमति मिली थी।
रमेश की पीड़ा: “क्या ईसाई होना अपराध है?“
रमेश बघेल की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि “बस्तर में नक्सलियों को भी उनके पैतृक गाँव में सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार की अनुमति मिल जाती है, लेकिन हम तो नक्सली भी नहीं हैं। तो क्या ईसाई होना नक्सली होने से भी बड़ा अपराध हो गया है?”
सरकार का पक्ष और रमेश की आपत्ति
छत्तीसगढ़ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जवाब देते हुए बताया कि छिंदावाड़ा गाँव की कुल आबादी 6,450 है, जिसमें 6,000 लोग आदिवासी समुदाय से, 450 महारा समुदाय से और करीब 100 लोग ईसाई समुदाय से हैं।
सरकार ने यह भी दावा किया कि गाँव में कब्रिस्तान की जगह तय है और यहाँ अलग-अलग समुदायों के दफनाने या दाह संस्कार की व्यवस्था है।
हालांकि, रमेश बघेल इस दावे से सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि उनके दादा ने सबसे पहले ईसाई धर्म अपनाया था, और उनके पिता और चाचा-चाची ने भी यही रास्ता चुना। उनके परिवार के पूर्वजों का अंतिम संस्कार भी ईसाई रीति-रिवाजों से गाँव में ही किया गया था।
अब आगे क्या?
सुप्रीम कोर्ट ने मामले को गंभीरता से लेते हुए छत्तीसगढ़ सरकार को स्पष्ट निर्देश देने को कहा है। अब सवाल यह है कि क्या प्रशासन इस विवाद का कोई स्थायी समाधान निकाल पाएगा, या फिर रमेश बघेल जैसे लोगों को अपने पूर्वजों की अंतिम विदाई के लिए इसी तरह न्याय की गुहार लगानी पड़ेगी?