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23 February 2025 4:52 am

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“मलाला” का जीवन केवल एक कहानी नहीं, बल्कि एक क्रांति है, जो सदियों तक मानवता को प्रेरित करती रहेगी

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वल्लभ लखेश्री की खास रिपोर्ट

“यूसुफजई” पश्तून जनजाति का एक प्रमुख गोत्र है, जो मुख्यतः पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पाया जाता है। यह जनजाति बहादुरी, स्वतंत्रता और शिक्षा प्रेम के लिए प्रसिद्ध रही है। मलाला यूसुफजई इसी समुदाय से आती हैं, और उनके नाम में “यूसुफजई” उनके पश्तून वंश को दर्शाता है।

महिलाओं के अधिकार, शिक्षा और सामाजिक न्याय की जब भी बात होती है, मलाला यूसुफजई का नाम बड़े सम्मान और प्रेरणा के साथ लिया जाता है।

मात्र 17 वर्ष की आयु में नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करने वाली मलाला, न केवल पाकिस्तान बल्कि पूरे विश्व की महिलाओं के लिए संघर्ष और सफलता का प्रतीक बन गईं। एक युवा मुस्लिम महिला के रूप में उन्होंने कट्टरपंथियों का विरोध किया, शिक्षा के महत्व को उजागर किया और महिलाओं को समान अधिकार दिलाने के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया।

बाल्यकाल और शिक्षा की शुरुआत

12 जुलाई 1997 को पाकिस्तान के स्वात जिले के मिंगोरा कस्बे में जन्मी मलाला का पालन-पोषण एक शिक्षित परिवार में हुआ। उनके पिता जियाउद्दीन यूसुफजई एक शिक्षक थे, जो खुद भी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित थे। पिता के इस विचारधारा का प्रभाव मलाला पर बचपन से ही पड़ा, और उन्होंने शिक्षा को अपना अधिकार और कर्तव्य दोनों मान लिया।

मलाला ने जब स्कूल जाना शुरू किया, तब तक स्वात घाटी में तालिबान का प्रभाव बढ़ चुका था। तालिबान ने महिलाओं और बालिकाओं की शिक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे लाखों लड़कियों की पढ़ाई छिन गई। लेकिन मलाला जैसी जागरूक और निर्भीक बालिका ने इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की ठानी।

मात्र 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने बीबीसी उर्दू के लिए एक छद्म नाम से ब्लॉग लिखना शुरू किया, जिसमें उन्होंने स्वात घाटी में तालिबान के अत्याचारों का खुलासा किया। उनके लेखों में तालिबान द्वारा लड़कियों की शिक्षा पर लगाए गए प्रतिबंध, उनके द्वारा की जाने वाली हिंसा, और महिलाओं के प्रति उनकी दमनकारी नीतियों की सच्चाई उजागर हुई।

कट्टरपंथियों का हमला और मलाला का पुनर्जन्म

मलाला के बढ़ते प्रभाव से तालिबान भयभीत हो गया। उन्हें चुप कराने के लिए 9 अक्टूबर 2012 को जब मलाला स्कूल बस में अपने सहपाठियों के साथ घर लौट रही थीं, तब तालिबान के एक बंदूकधारी ने बस में घुसकर उनके सिर और गर्दन पर गोली मार दी। यह हमला दुनिया भर के लोगों को झकझोर देने वाला था। इस हमले के बाद उन्हें गंभीर हालत में बर्मिंघम, इंग्लैंड के एक अस्पताल में ले जाया गया, जहां महीनों तक उनका इलाज चला।

लेकिन मलाला की किस्मत में कुछ और ही लिखा था। उन्होंने न केवल इस जानलेवा हमले से उबरकर नया जीवन पाया, बल्कि एक मजबूत और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में उभरीं। इस घटना ने उनके संकल्प को और अधिक दृढ़ कर दिया, और उन्होंने महिलाओं और बच्चों की शिक्षा के लिए और भी जोश के साथ काम करना शुरू कर दिया।

मलाला का वैश्विक प्रभाव और नोबेल सम्मान

मलाला की कहानी ने दुनियाभर के लोगों को प्रभावित किया। 2013 में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया, जहां उन्होंने शिक्षा के अधिकार पर जोर देते हुए कहा,

एक पुरुष को शिक्षित करने से केवल एक व्यक्ति शिक्षित होता है, लेकिन एक महिला को शिक्षित करने से पूरा समाज शिक्षित हो सकता है।”

उनके इस संकल्प और योगदान के लिए 2014 में उन्हें भारतीय बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी के साथ संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। महज 17 वर्ष की उम्र में यह पुरस्कार प्राप्त करने वाली मलाला सबसे युवा नोबेल पुरस्कार विजेता बनीं।

नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी उन्होंने अपने संघर्ष को विराम नहीं दिया। उन्होंने “मलाला फंड” की स्थापना की, जो दुनियाभर की लड़कियों की शिक्षा के लिए काम करता है। इस फंड का उद्देश्य लड़कियों की शिक्षा के लिए संसाधन जुटाना, उनके अधिकारों की रक्षा करना और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना है।

शिक्षा के लिए मलाला की यात्रा और सामाजिक योगदान

मलाला ने अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उन्होंने दर्शनशास्त्र, राजनीति और अर्थशास्त्र की पढ़ाई की। इसके साथ-साथ उन्होंने दुनियाभर की महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी आवाज उठाई।

हाल ही में 11 से 13 जनवरी 2025 तक पाकिस्तान में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा शिखर सम्मेलन में मलाला ने हिस्सा लिया, जहां 44 देशों के 150 से अधिक विद्वान और राजनायक उपस्थित थे। इस सम्मेलन में उन्होंने शिक्षा के महत्व को रेखांकित किया और तालिबान द्वारा महिलाओं की शिक्षा पर लगाए गए प्रतिबंधों की कड़ी निंदा की। अफगानिस्तान सरकार ने इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया, जो इस बात का संकेत था कि तालिबान आज भी महिलाओं के अधिकारों को कुचल रहा है।

मलाला की लेखनी और साहित्यिक योगदान

मलाला केवल एक सामाजिक कार्यकर्ता ही नहीं, बल्कि एक बेहतरीन लेखिका भी हैं। उनकी आत्मकथा “आई एम मलाला” 2013 में प्रकाशित हुई, जिसने दुनियाभर में धूम मचा दी। इस पुस्तक की अब तक 1.8 मिलियन से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं, और इसका मूल्य लगभग 3 मिलियन डॉलर आंका गया है। इस किताब में उन्होंने अपने संघर्ष, तालिबान की बर्बरता, शिक्षा के प्रति अपने समर्पण और एक नई दुनिया की कल्पना को साझा किया है।

इसके अलावा उन्होंने कई कहानियां, संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत भी लिखे, जो महिलाओं की स्थिति, शिक्षा के महत्व और समाज में बदलाव लाने की उनकी इच्छाशक्ति को दर्शाते हैं।

मलाला: क्षमा और करुणा की मूर्ति

मलाला की महानता इस बात में भी है कि उन्होंने अपने ऊपर हमला करने वाले तालिबानी आतंकवादी को माफ कर दिया। उन्होंने कहा,

“मैं तालिबान से नफरत नहीं करती, न ही उनसे बदला लेना चाहती हूं। मैंने दया और करुणा का पाठ पैगंबर मुहम्मद, ईसा मसीह और गौतम बुद्ध से सीखा है।”

उनकी यह भावना न केवल उनकी उदारता को दर्शाती है, बल्कि यह भी साबित करती है कि सच्ची शक्ति हिंसा में नहीं, बल्कि क्षमा और प्रेम में होती है।

मलाला दिवस और उनकी अमर प्रेरणा

मलाला के योगदान को सम्मान देने के लिए 22 जुलाई को हर साल “मलाला दिवस” के रूप में मनाया जाता है। यह दिन शिक्षा और महिला सशक्तिकरण के लिए एक अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बन चुका है।

मलाला के संघर्ष और सफलता की गाथा हमें सिखाती है कि साहस और संकल्प से कोई भी बाधा पार की जा सकती है। वह आज भी लाखों लड़कियों की आवाज बनी हुई हैं, गरीबी, भेदभाव और शोषण से जूझ रही महिलाओं की हिम्मत बढ़ा रही हैं।

मलाला यूसुफजई न केवल पाकिस्तान की, बल्कि पूरे विश्व की महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि शिक्षा सबसे बड़ा हथियार है, जो दुनिया को बदल सकता है। अपने संघर्ष, साहस और सेवाभाव से उन्होंने यह साबित किया कि एक लड़की भी समाज में बदलाव ला सकती है।

उनकी कहानी हमें यह संदेश देती है कि जब तक दुनिया में असमानता, अशिक्षा और अन्याय है, तब तक हमें मलाला की तरह अडिग और निडर रहकर संघर्ष करते रहना चाहिए।

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