अनिल अनूप
महाराष्ट्र के हालिया विधानसभा चुनाव संघ और भाजपा के लिए न केवल राजनीतिक बल्कि वैचारिक परीक्षा भी साबित हुए। यह चुनाव, जिसे संघ-भाजपा ने हिंदुत्व की नई प्रयोगशाला के रूप में प्रस्तुत किया, अपनी रणनीतियों और परिणामों के लिहाज से ऐतिहासिक साबित हो सकता है। आरएसएस के नेतृत्व में आयोजित 15, 20, 30 और 45 लोगों की करीब 60,000 छोटी-छोटी बैठकें यह दर्शाती हैं कि इस बार चुनाव प्रचार की योजना अभूतपूर्व स्तर की थी। प्रचार का केंद्र बिंदु हिंदुत्व रहा और मतदाताओं को बूथ तक लाने का कार्य एक मिशन के रूप में किया गया।
हिंदुत्व पर केंद्रित रणनीति
संघ और भाजपा ने इस चुनाव में “बंटेंगे तो कटेंगे” और “एक हैं तो सेफ हैं” जैसे नारों को गहराई से प्रचारित किया। ये नारे परोक्ष रूप से हिंदुत्व के संदेश को सशक्त करते हैं। प्रचार का उद्देश्य मात्र भाजपा के विधायकों की संख्या बढ़ाना नहीं था, बल्कि यह परखना था कि हिंदुत्व का संदेश कितनी गहराई और व्यापकता में मतदाताओं को प्रभावित कर सकता है।
1995 के बाद पहली बार महाराष्ट्र में 65% से अधिक मतदान हुआ, जो यह दर्शाता है कि हिंदुत्व की रणनीति सफल रही। भाजपा का मानना है कि यदि पार्टी 100 या उससे अधिक सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनती है, तो सरकार महायुति (भाजपा-शिवसेना और सहयोगी दलों) के नेतृत्व में बनेगी।
झारखंड में हिंदुत्व की सीमित प्रयोगशाला
महाराष्ट्र के साथ-साथ झारखंड में भी हिंदुत्व की राजनीति को सीमित स्तर पर आजमाया गया। वहां आदिवासी मतदाताओं के बीच “घुसपैठ” और “जनसांख्यिकीय संतुलन” जैसे मुद्दों को उठाया गया। हालांकि, झारखंड में भाजपा का फोकस झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) गठबंधन को चुनौती देने पर रहा, और चुनाव परिणाम को लेकर अभी भी स्पष्टता का अभाव है।
विकास बनाम हिंदुत्व
भाजपा के पास विकास के मुद्दे पर अपनी बात रखने के कई आधार हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की योजनाओं, जैसे कि उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत और स्वच्छ भारत अभियान, ने व्यापक जनसमर्थन अर्जित किया है। फिर भी, महंगाई, बेरोजगारी और किसानों की समस्याएं गंभीर मुद्दे हैं। इन समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए भाजपा और संघ “वोट जिहाद” और हिंदुत्व जैसे भावनात्मक मुद्दों को उछालने में सफल रहे हैं।
भविष्य की राजनीति और हिंदुत्व
संघ-भाजपा अब हिंदुत्व को 1990 के दौर की तरह नए सिरे से स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, मथुरा की श्रीकृष्ण जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का विस्तार, और ज्ञानवापी मस्जिद का मामला, हिंदुत्व के नए आधार बन चुके हैं। यदि महाराष्ट्र में हिंदुत्व आधारित जनादेश सकारात्मक रहता है, तो भाजपा इस प्रयोग को अन्य राज्यों, विशेषकर बिहार और दिल्ली में होने वाले आगामी विधानसभा चुनावों में दोहरा सकती है।
बिहार: हिंदुत्व की बड़ी चुनौती
बिहार में भाजपा-एनडीए की सरकार है, लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की समाजवादी और पिछड़ावादी राजनीति हिंदुत्व की राह में बड़ी चुनौती बन सकती है। नीतीश जैसे नेता हिंदुत्व को कितनी सहजता से स्वीकार करेंगे, यह एक बड़ा राजनीतिक प्रश्न है।
महाराष्ट्र चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि संघ और भाजपा ने हिंदुत्व को अपनी राजनीतिक रणनीति का मुख्य आधार बना लिया है। विकास और जनकल्याण की योजनाओं के साथ हिंदुत्व का यह समन्वय उन्हें देश के बड़े हिस्से में समर्थन दिला सकता है। लेकिन यह देखना होगा कि क्या यह रणनीति सभी राज्यों में समान रूप से सफल होगी, खासकर उन राज्यों में जहां सामाजिक और जातीय समीकरण भाजपा के पक्ष में नहीं हैं। महाराष्ट्र का यह चुनाव संघ-भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति के भविष्य की दिशा तय करने वाला साबित हो सकता है।