अनिल अनूप
झांसी के महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज के नवजात गहन निगरानी कक्ष (एनआईसीयू) में हुए हादसे ने एक बार फिर स्वास्थ्य सेवाओं की लापरवाही की पोल खोल दी है। इस दर्दनाक घटना में 11 नवजात शिशुओं की मौत हो गई, जो यह दर्शाता है कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं कितनी कमजोर और लापरवाह हैं। विडंबना यह है कि यह हादसा उस समय हुआ, जब देश भर में नवजात शिशु सप्ताह (15-21 नवंबर) मनाया जा रहा था। इससे कई गंभीर सवाल खड़े होते हैं: क्या पिछले हादसों से हमने कोई सबक नहीं सीखा? क्या नवजात शिशुओं और मरीजों की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम उठाए गए हैं?
लापरवाही की वजह से मासूमों की मौत
झांसी के अस्पताल में शुक्रवार की रात को लगी भीषण आग में 11 नवजात शिशु जलकर मर गए। इस घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। जिस एनआईसीयू में आग लगी, वहां उस समय 54 बच्चे भर्ती थे। अस्पताल की आपातकालीन व्यवस्थाएं इस स्थिति को संभालने में नाकाम रहीं। हालाँकि, कुछ बहादुर व्यक्तियों ने अपनी जान की परवाह किए बिना कई बच्चों को बचाने का प्रयास किया। लेकिन सवाल उठता है कि इतनी बड़ी दुर्घटना आखिर कैसे हो गई?
सूत्रों के अनुसार, आग का कारण ऑक्सीजन कंसंट्रेटर में खराबी और शॉर्ट सर्किट था। इसके अलावा, अग्नि सुरक्षा के उपकरणों के पुराने और अप्रभावी होने की खबरें भी सामने आई हैं। सरकार ने त्रि-स्तरीय जांच के आदेश दे दिए हैं, लेकिन ऐसे मामलों में जांच का हश्र क्या होता है, यह सभी जानते हैं। आमतौर पर यह जांच मुआवजा देकर खत्म हो जाती है, और कुछ समय बाद इसे भुला दिया जाता है।
गोरखपुर से झांसी तक हादसों की लंबी फेहरिस्त
यह कोई पहली घटना नहीं है। वर्ष 2017 में गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की आपूर्ति बाधित होने से 63 बच्चों की मौत हो गई थी। इसी साल मई में दिल्ली के एक अस्पताल में आग लगने से सात नवजातों की जान गई। अस्पतालों में इलाज के लिए आने वाले लोगों को बदइंतजामी और लापरवाही की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ रही है। आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है? क्या अस्पताल प्रशासन या सरकार को इन घटनाओं की कोई परवाह नहीं है?
सुप्रीम कोर्ट की फटकार भी बेअसर
कोरोना महामारी के दौरान गुजरात के अस्पतालों में लगी आग से कई मरीजों की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अस्पतालों को फटकार लगाई थी। कोर्ट ने कहा था कि अस्पताल कमाई का केंद्र बन गए हैं और वहां मरीजों की सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। लेकिन इन टिप्पणियों का भी कोई असर नहीं हुआ। झांसी के इस हालिया हादसे में भी शिशुओं की सुरक्षा की अनदेखी की गई।
बिजली की सुरक्षा और मानकों की अनदेखी
झांसी के अस्पताल में आग लगने का प्रमुख कारण शॉर्ट सर्किट बताया जा रहा है। इस घटना ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया कि अस्पतालों में नियमित रूप से बिजली की वायरिंग की जांच नहीं होती। नेशनल नियोनेटोलॉजी फोरम (एनएनएफ) की टूलकिट, जिसमें नवजात शिशुओं की देखभाल के मानक दिए गए हैं, को भी अस्पतालों ने नजरअंदाज कर दिया है।
एनएनएफ के अनुसार, वयस्कों के आईसीयू में 8-10 बेड होते हैं, जबकि नवजात शिशुओं के एनआईसीयू में बेड की कोई सीमा नहीं है। अक्सर 50 से अधिक बेड लगा दिए जाते हैं, जिससे वायरिंग पर अतिरिक्त भार पड़ता है और शॉर्ट सर्किट की संभावना बढ़ जाती है।
मुआवजा समाधान नहीं, सख्त कार्रवाई की जरूरत
हर हादसे के बाद सरकार मुआवजे की घोषणा कर देती है, लेकिन यह मुआवजा खोए हुए जीवन की भरपाई नहीं कर सकता। जरूरत इस बात की है कि अस्पतालों में सुरक्षा मानकों की अनदेखी करने वालों पर सख्त कार्रवाई हो। आखिर कब तक निर्दोष मरीजों की जान से खिलवाड़ होता रहेगा?
सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वे इन हादसों से सबक लें और सुनिश्चित करें कि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों। अस्पतालों में अग्नि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम, बिजली की वायरिंग की नियमित जांच, और आपातकालीन सेवाओं की दक्षता को सुनिश्चित करना अनिवार्य है।
अगर सरकारें वाकई गंभीर हैं, तो उन्हें ऐसे हादसों से सबक लेकर ठोस कदम उठाने होंगे, अन्यथा यह मुआवजा केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाएगा। हमें एक ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली की जरूरत है, जो मरीजों की सुरक्षा को सर्वोपरि माने, न कि केवल मुनाफे को।