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November 2, 2024 4:03 am

पति की मौत के बाद भी 17 महीने सुहागन रही:करवाचौथ भी किया

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मृदुलिका झा की खास रिपोर्ट 

पूरे 17 महीने तक उनकी लाश घर पर रखी रही। पहले मैं कमरे के अंदर जाकर देखा करती, फिर परदे से झांककर लौटने लगी। जिसके साथ जीने के सपने देखे, लंबा-चौड़ा वो शरीर सूखकर जली हुई लकड़ी लगने लगा।

वे जा चुके थे, लेकिन मैं खुलकर रो भी नहीं सकी। नहीं कह सकी, अब वो जिंदा नहीं, उन्हें ले जाकर जला दो। कह देती, तो दो छोटे-छोटे बच्चे लेकर कहां जाती!

भरे-पूरे परिवार में रहती मिताली का फुसफुसाता सवाल हवा में झूलकर रह जाता है। उनका चेहरा लस्त-पस्त है। हल्की ठंडक वाले मौसम में भी पसीने से तरबतर।

सूती दुपट्टे से बार-बार खुद को पोंछते हुए कहती हैं- इतने दिन सिंदूर भी लगाया। करवाचौथ भी किया। जानती थी कि वे मर चुके हैं, लेकिन जब सामने शरीर रख दिया जाए, तो भला कौन पत्नी खुद को विधवा कह सकेगी! और कह भी दे तो कौन चैन से जीने देगा!

तकरीबन 30 साल की मिताली उस परिवार का हिस्सा हैं, जिसने मोह में भरकर एक लाश को घर में संजोए रखा। एक-दो दिन, या महीनेभर नहीं, पूरे 17 महीनों तक। इसी सितंबर में घर पर पुलिस आई, और लाश की बाकायदा जांच-परख के बाद उसे ‘दोबारा’ मृत घोषित किया गया।

इसके बाद ही कोयले जितनी काली पड़ी, और सूखकर ममी बन चुकी लाश का अंतिम संस्कार हो सका। ये अलग बात है कि मृतक की मां को अब भी यकीन नहीं कि उनका बेटा मर चुका। मिलने पर रोते हुए कहती हैं- ‘धड़कन चल रही थी। उसे जिंदा ही जला दिया।’

इस अजीबोगरीब घटना के साथ ही कानपुर के रोशनपुरा की अनाम-सी गली का एक घर चर्चा में आ गया। पता पूछो तो कोई-कोई इसे लाश-घर कहने लगा।

लोग बुदबुदाने लगे कि आखिर कैसे इतने महीनों तक लाश से बदबू तक नहीं आई! कोई इसे अंधविश्वास से जोड़ने लगा, कोई साजिश से। परिवार के तकरीबन सारे लोगों ने कुछ न कुछ कहा- सिवाय मृतक की पत्नी मिताली के। वे दूसरी मंजिल के अपने कमरे में बंद रहीं।

एक अर्ध-सरकारी बैंक में काम करती मिताली फिलहाल छुट्टी पर हैं, ताकि लोगों के सवालों और नजरों से बची रह सकें। मुझसे मुलाकात को राजी होते हुए कहती हैं- ‘वीडियो मत बनाइए, न ही चेहरा दिखाइए। लोग परेशान कर देंगे। बोलना चाहती हूं, आप सुन-भर लीजिए।’

साजो-सामान बाजू में धरा जा चुका। मोबाइल कवरेज से बाहर। मैं अब सिर्फ कान हूं, जो 5 सौ दिनों से चुप रहती पत्नी को सुन रहा है।

साल 2016 में हमारी शादी हुई। मैं कानपुर में नौकरी करती थी, वो दिल्ली में। कभी मैं मिलने जाती, कभी वो आते। यहां तक कि हम दोनों लीव-विदाउट-पे हो जाते, लेकिन आना-जाना कम नहीं हो सका। वो जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन थे। सपने ही सपने। परिवार के। अच्छी जिंदगी के। घूमने-फिरने के। इस बीच एक बेटा हुआ और फिर बेटी।

अप्रैल 2021, ट्रांसफर के बाद वे अहमदाबाद में थे, मैं भी महीनेभर की बेटी के साथ वहीं थी, तभी उनकी तबियत बिगड़ी। हम कानपुर आए। कोविड का दौर था, जैसे-तैसे एक अस्पताल ने उन्हें एडमिट किया। पांचवें दिन से हालत बिगड़ती चली गई और डॉक्टर ने डेथ सर्टिफिकेट बनाकर दे दिया।

हम रोते रहे। मिन्नतें करते रहे कि एक बार ठीक से जांच लें, लेकिन उस डॉक्टर ने खुद उनकी लाश को उठाकर हमारी गाड़ी में पटक दिया। कहा- रोना-धोना कहीं और जाकर करो, बस इसे यहां से ले जाओ।

घर लौटकर हम अंतिम संस्कार की तैयारी कर ही रहे थे कि तभी किसी ने ऑक्सीमीटर उनकी ऊंगली में लगा दिया। पल्स दिखने लगी। हल्ला मच गया कि वे जिंदा हैं। आनन-फानन कमरा तैयार हुआ, लकड़ी का तख्त लगा और उन्हें वहां लिटा दिया गया। यहीं से सब बदल गया।

बताते हुए मिताली न पलकें झपकाती हैं, न आंसू गिराती हैं। आंखें सूखी हुईं, जैसे 17 महीनों की बारिश के बाद तेज धूप सब सोख ले। पूरी बातचीत में एक बार भी वे अपने पति को लाश या बॉडी नहीं कहतीं। हां, धीमी आवाज में ये जरूर दोहराती हैं कि जब पूरी फैमिली ही भ्रम में जी रही थी, तो वे अकेली क्या कर लेतीं।

करवाचौथ क्यों किया?

कैसे नहीं करती! भले मर चुके हों, लेकिन सामने शरीर रखा था। सब उन्हें जिंदा मानते। तब मैं व्रत कैसे नहीं करती! कभी ये भी सोचती थी कि क्या पता, वाकई चमत्कार हो जाए।

बैंक में अच्छे पद पर काम करती मिताली के चेहरे के साथ-साथ आवाज भी पसीने में डूबी हुई लगती है। ये जानते हुए भी कि पति मर चुका, वे उसे जिंदा मानने को मजबूर थीं।

मायके में, या बैंक के अपने साथियों को नहीं बताया? नहीं। मायके में कोई मजबूत सहारा है नहीं। ऑफिस में कहती तो बेकार में बात बढ़ती। सबको यही कह रखा था कि वे कोविड के बाद से कोमा में हैं।

कोमा में होने की ही बात पूरे परिवार ने अड़ोस-पड़ोस में दोहराई थी। मर चुके बेटे को अप्रैल से लेकर अक्टूबर 2021 तक ऑक्सीजन लगाई जाती रही। उसे नहलाया-धुलाया गया, यहां तक कि मां बीच-बीच में पानी के घूंट भी पिलाती रही। मिताली सब कुछ देखती। महीनेभर की बेटी चलने लगी, पांच साल का बेटा- पापा कब जागेंगे, जैसे सवाल करने लगा, तब जाकर धीरज टूटा।

उन्होंने पति के डिपार्टमेंट को चिट्ठी लिख दी कि वे आकर देख जाएं। बता दें कि मृतक इनकम टैक्स विभाग में काम करता था। अप्रैल 2021 से वो अनिश्चित समय के लिए छुट्टी पर था। जांच-पड़ताल शुरू होते-होते 17 महीने बीत गए। आखिरकार पुलिस आई। जांच हुई, तब जाकर दबाव में ही सही, घरवालों ने लाश का अंतिम संस्कार किया।

इतने वक्त झूठ में जीना पड़ा। अब कुछ तो राहत मिली होगी? सवाल पर वे भेद देने वाली नजरों से देखती हैं, जिसमें गुस्सा भी है, डर भी, और डूबते हुए पानी से निकल आने वाली राहत भी। कहती हैं- हम कोई आर्मी से तो हैं नहीं कि पति की मौत के लिए दिल से तैयार रहते। वे चले गए। मानना तो था ही। देर से ही सही।

मिताली के हाथों में कांच की दो चूड़ियां दिखती हैं, माथे पर से ब्याहता की निशानी जोर लगाकर मिटाई हुई। नई उम्र में भी अधेड़ों जैसी थकन और बुजुर्गों-सी ऊब। बार-बार कहती हैं- बच्चे छोटे हैं, उनके लिए जीना है। कुछ दिनों बाद वापस बैंक लौट जाऊंगी। तब तक लोगों के सवाल भी छोटे हो जाएंगे।

फोटो मांगने पर अपनी तस्वीर ब्लर करके भेजती हैं। 17 महीनों तक ‘जिंदा-मुर्दा’ पति के साथ ने शायद हर बात से उनका भरोसा उठा दिया।

पत्नी के बाद मेरी मुलाकात उनकी मां से होती है, जो पहले तो फफककर रोती हैं, फिर संभलते हुए कहती हैं- एक चूहा भी मरता है तो घर में बदबू फैल जाती है, फिर ये तो लंबा-चौड़ा शरीर था। बताओ भला, हम कैसे रख लेते!

उसे जलाने ही जा रहे थे कि तभी शरीर में हरकत दिखी। धड़कन चल रही थी। पहले हमने नबज (नब्ज) टटोली, फिर कंपाउंडर को बुलाया। ECG में दिल की धड़कन दिख रही थी। वो जिंदा था। अब भला कौन-सी मां अपने बेटे को ऐसे जलाने देगी! हमने रोक लिया। वे संभलकर सारी बातें बता रही हैं।

कोविड में एकदम से चले गए बेटे की मौत को न मां मान रही थी, न ही पिता और भाई। बड़े भाई साथ ही बैठे थे, जो कई बार कह चुके- हां, धड़कन तो चलती थी। शुरू-शुरू में मां मुंह में पानी डालती, तो वो अंदर भी जाता था।

शरीर में कोई हरकत दिखी कभी- ये सवाल मुंह तक आते-आते अटक जाता है। मां जैसे मन पढ़ते हुए बताती हैं- शरीर चलता-फिरता तो नहीं था, लेकिन हाथों की कसरत कराओ तो वो आराम से हिलते-डुलते थे। देह सख्त नहीं पड़ी। माथा हमेशा गर्म रहा। मिट्टी शरीर कभी ऐसे होता है!

जर्द होते कपड़ों में बैठी अम्मा की आंखों में जर्द उम्मीद है कि कोई तो उनकी बात पर हामी भर दे। मैं टुकुर-टुकुर देखती रहती हूं।

हम लोगों को आस थी कि वो जाग जाएगा। सफाई करते हुए रोज उससे बात करती कि तुम्हारी बेटी चलने लगी है, उसको देखो। अपना घरबार देखो। उठो, हमारे साथ चाय पियो। काम पर जाओ।

त्योहार आए- चले गए। हम रोते रहे। प्रार्थना करते रहे कि वो उठ जाए। अब तो उन लोगों ने उसे जलवा दिया। धड़कन चलते में। ये कहते हुए तकरीबन 65 साल की मां हिलककर रो पड़ती हैं।

हम वहां से निकल रहे थे, तभी मिताली आग्रह करती हैं- ‘जो भी देखा है, लिखिएगा। आप तो समझ पा रही होंगी’! मैं पसीने में डूबे उस चेहरे को देखती हूं।

समझने की कोशिश करती हूं कि 17 महीनों की दिन-रात के कितने दर्द अनकहे होंगे। कितने दबाव में होगी एक युवा लड़की, जिसने घर के एक कमरे में अपने मृत पति को एकाध दिन नहीं, 5 सौ से भी ज्यादा दिनों तक रोज देखा। 6 फुट के शरीर को सिकुड़ते और राख जैसा स्याह पड़ते देखा।

बाहर निकलते हुए रात गहरा चुकी थी, लेकिन ये रात रोशनपुरा के उस तिमंजिला घर की रात से कम ही अंधेरी होगी। वो घर, जिसके एक कमरे में महीनों तक मौत जीती रही। (साभार)

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."