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धारावाहिक आलेखः भारतीय सिनेमा जहां समाज है, संस्कृति है, साहित्य और कला का अनूठा प्रवाह भी है

अनिल अनूप

हिंदी सिनेमा का बीते सालों का इतिहास हम से बहुत कुछ कहता है । यह सिर्फ हिंदी सिनेमा का इतिहास नहीं अपितु भारतीय समाज के आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक नीतियों, मूल्यों और स्ंवेदनाओं का ऐसा इंद्र्धनुष है जिसमें भारतीय समाज की विविधता उसकी सामाजिक चेतना के साथ सामने आती है । भारतीय समाज का हर रंग यहाँ मौजूद है ।

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सिनेमा दुनियाँ को फ़्रांस की देन है । भारत में सिनेमा के पहले क़दम 7 जुलाई 1896 को पड़े । फ़्रांस से ही आये लुमिअर बंधुओं ने मुंबई के वारसंस होटल में 06 लघु फ़िल्मों का पैकेज़ “मैजिक लैम्प” का प्रदर्शन कर भारत की जनता का फ़िल्मों से परिचय कराया ।

3 मई 1913 को “राजा हरिश्चंद्र” नामक भारत की पहली फीचर फिल्म भारतीय दर्शकों के सामने थी । इस फ़िल्म के निर्माता थे मराठी भाषी धुंडीराज गोविंद फाल्के। जिन्हें हम दादा साहेब फाल्के के नाम से जानते हैं और भारतीय सिनेमा का पितामह मानते हैं ।

कुछ लोग भारत में फीचर फ़िल्म की शुरुआत “पुंडलिक’’ नामक फ़िल्म से मानते हैं,जिसका निर्माण 1912 में हुआ । आर.जी.तोरने और एन.जी.चित्रे द्वारा यह फ़िल्म 18 मई 1912 को मुंबई के “कोरेनेशन सिनेमा” में रिलीज़ की गयी थी। इसकी पृष्ठभूमि धार्मिक थी । लेकिन यह एक थिएट्रिकल फ़िल्म थी । कोई कहानी आधारित पहली फीचर फ़िल्म हिंदू पौराणिक कहानी पे बनी “राजा हरिश्चंद्र” ही है । यह फ़िल्म भी मुंबई के “कोरेनेशन सिनेमा” में रिलीज़ की गयी थी।

दादा साहेब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा था । उस फिल्म को देखकर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई। फिल्म “राजा हरिश्चंद्र” की अपार सफलता के बाद दादा साहब फाल्के ने वर्ष 1914 में सत्यवान सावित्री का निर्माण किया। लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म, कालिया मर्दन, कंस वध, शकुंतला, संत तुकाराम और भक्त गोरा जैसी फिल्में उन्होने 1917 तक बना ली थी ।

वर्ष 1919 मे प्रदर्शित दादा फाल्के की फिल्म ‘कालिया मर्दन’ महत्वपूर्ण फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म मे दादा फाल्के की पुत्री मंदाकिनी फाल्के ने कृष्णा का किरदार निभाया था।

16 फरवरी 1944 को दादा फाल्के का देहांत महाराष्ट्र के नाशिक में हुआ । सन 1913 से सन 1930 तक का हिंदी सिनेमा ‘मूक सिनेमा’ के नाम से जाना गया । यह भारत के लिए गौरव की बात है कि सन 1926 में बनी फिल्म “बुलबुले परिस्तान” पहली फिल्म थी जिसका निर्देशन किसी महिला ने किया था। बेगम फातिमा सुल्ताना इस फिल्म की निर्देशिका थीं।

वर्ष 1921 में बनी फिल्म “भक्त विदुर” कोहिनूर स्टूडियो के बैनर तले बनायी गयी एक सफल फिल्म साबित हुई थी। बाबूराव पेंटर ने 1920 में बनी अपनी फ़िल्म “वत्सला हरण” के लिए पोस्टर जारी किया । इसी वर्ष 1921 मे प्रदर्शित फिल्म “द इंग्लैंड रिटर्न” पहली सामाजिक हास्य फिल्म साबित हुई । 1920 में बनी सुचेत सिंह की फ़िल्म “शकुंतला” में अमेरिकी अभिनेत्री डोरोथी किंगडम ने काम किया था । इस फिल्म का निर्देशन धीरेन्द्र गांगुली ने किया था। इन 17 वर्षों के कालखंड में लगभग 1300 से अधिक फिल्मों के निर्माण की बात स्वीकार की जाती है ।

सन 1913 से 1930 तक का समय हिंदी सिनेमा का प्रारंभिक काल माना जा सकता है । देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था । अपनी आज़ादी के लिए तड़फड़ा रहा था । 1926 में ‘वंदे मातरम आश्रम” नामक फ़िल्म पे प्रदर्शन से पहले ही सरकार ने रोक लगा दी थी । इस दौर की मूक फिल्में भी बोलनें के लिए कुलबुला रहीं थी । 1931 से इन फिल्मों ने बोलना सीख लिया ।

यद्यपि मूक फिल्में लगभग 1934 तक बनती रहीं । लेकिन 1931 से 1934 के बीच में ही निर्मित कुछ फिल्में ऐसी भी बनीं जिन्होंने ख़ूब जम के बोला । मसलन 1932 में बनी ‘इंद्रसभा” नामक फ़िल्म में 69 या इससे अधिक गाने फिल्माए गए जबकि आलम आरा में 07 गाने फ़िल्माये गए थे । 1930 का हिंदी फ़िल्मों का दशक अपने केंद्र में पौराणिक और धार्मिक कथाओं को समेटे हुए था । लेकिन तत्कालीन सामाजिक संदर्भों को लेकर भी कुछ फिल्में बनने लगी थीं ।

पहली बोलती फ़िल्म “आलम आरा” को माना जाता है जिसे आर्देशिर ईरानी ने 1931 में निर्मित किया । इस फिल्म की शूटिंग रेलवे लाइन के पास की गई थी इसलिए इसके अधिकांश दृश्य रात के हैं। रात के समय जब ट्रेनों का आना-जाना बंद हो जाता था तब इस फिल्म की शूटिंग की जाती थी। 1933 में बनी “कर्मा” भारत की पहली बोलती अंग्रेजी फ़िल्म थी । “kissing seen” की शुरुआत भी इसी फ़िल्म से हुई ।

स्टंट फिल्मों की शुरुआत भी 1934 में बनी फ़िल्म ‘हंटरवाली” से हुई जिसकी अभिनेत्री नाड़िया स्टंट क्वीन के नाम से जानी गयी । फ़िल्मकार मोहन भवनानी के लिए मुंशी प्रेमचंद ने फ़िल्म लिखी ।

यह फ़िल्म ‘मिल मज़दूर” और “गरीब मज़दूर” नाम से भी पंजाब में प्रदर्शित हुई । 1934 में प्रेमचंद की ही कृतियों पे ‘नवजीवन’ और “सेवसदन’ नामक फिल्में बनी । इस फ़िल्म का प्रभाव इतना अधिक था कि इसे कई शहरों में सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था ।

1935 में देवदास फ़िल्म ने के.एल.सहगल को हिंदी फ़िल्मों का स्टार बना दिया । अमृत मंथन भी इसी दौर की फ़िल्म थी जिससे जूम शॉट की शुरुआत हुई । 1933 में प्रदर्शित फिल्म कर्मा इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उस फिल्म की नायिका देविका रानी को लोग फिल्म स्टार के नाम से संबोधित करने लगे और वे भारत की प्रथम महिला फिल्म स्टार बनीं। इसी दशक ने के.एल.सहगल, अशोक कुमार, मोतीलाल, सोहराब मोदी और पृथ्वीराज़ कपूर जैसे अभिनेता दिये । यह फ़िल्मों को लेकर सीखनें और प्रयोग का दशक था ।

1940 का हिंदी फ़िल्मों का दशक गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर फ़िल्मों के निर्माण का समय था । इटली में उभरे नवयथार्थवाद की गहरी छाप इस दशक के फ़िल्मों में दिखाई पड़ती है । समकालीन चेतना इस दौर के फ़िल्मों के केंद्र में थी । आज़ादी की ख़ुशी और गुनगुनाहट इस दौर की फ़िल्मों थी । दिलीप कुमार जैसे सशक्त नायक थे । हिंदी सिनेमा में संगीत का जादू भी इन्ही दिनों शुरू हुआ । प्रेमचंद की कहानी “त्रिया चरित्र” के आधार पर ‘स्वामी’ नामक फ़िल्म बनी । 1946 में ‘रंगभूमि’ पे भी इसी नाम से फ़िल्म बनी । राजकपूर की “बरसात” 1949 में ही आयी । लता मंगेशकर जैसी गायिकाएं सामने आयीं । दिलीप कुमार की पहली हिट फ़िल्म “मिलन” इन्ही दिनों आयी । अन्य फिल्मों में ज्वार भाटा, प्रतिमा प्रमुख रहीं । आर.के.फ़िल्म्स, नवकेतन, राजश्री समेत कई प्रोडक्शन हाउस के आगमन भी इसी दशक में हुआ । खलनायक के रूप में प्राण का आगमन इसी दशक में हुआ ।

1941 में बनी फ़िल्म ‘किस्मत’ ने राक्सी टाकीज़(कलकत्ता) में तीन साल और आठ महीने तक लगातार प्रदर्शित होने का रिकार्ड बनाया । इफ्टा द्वारा निर्मित पहली फ़िल्म “धरती के लाल” भी इसी दशक में 1946 में बनी । चेतन आनंद की 1946 में बनी फ़िल्म “नीचा नगर” कान फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट फ़िल्म अवार्ड का ख़िताब जीतने में कामयाब रही ।

जुबली स्टार के नाम से प्रसिद्ध राजेन्द्र कुमार, ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी, अप्रतिम सौंदर्य की रानी मधुबाला और नरगिस ने भी इसी दशक में हिंदी सिनेमा जगत के अभिनय क्षेत्र में पदार्पण किया । गुरूदत्त, के. आसिफ., कमाल अमरोही, चेतन आंनद जैसे महत्वपूर्ण फिल्मकार और शंकर-जयकिशन, सचिन देव बर्मन, खय्याम, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे गीतकारों ने हिंदी सिनेमा को अपनी कला से इसी दशक से समृद्ध करना शुरू किया। हुस्नलाल भगतराम जी की पहली संगीतकार जोड़ी भी 1944 की “चाँद” नामक फ़िल्म से सामने आयी । 1940 का यह दशक परिष्कार, परितोष और परिमार्जन का दशक रहा । (अगले हफ्ते जारी)

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"ज़िद है दुनिया जीतने की" "हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं"
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