google.com, pub-2721071185451024, DIRECT, f08c47fec0942fa0
आज का मुद्दा

कूड़े के ढेर से हंसते और फिसलते हुए बच्चे का आंनद कितना यथार्थ है ?

IMG_COM_20240907_2230_31_6531
IMG_COM_20240804_2148_31_8941
IMG_COM_20240803_2228_35_1651
IMG_COM_20240731_0900_27_7061
IMG_COM_20240720_0237_01_8761
IMG_COM_20240609_2159_49_4292

अनिल अनूप के साथ दुर्गा प्रसाद शुक्ला की खास रिपोर्ट 

हमारे समाज में आनन्द की अनुभूति के अलग-अलग मायने हो गये हैं। विषमता और गरीबी ने आनन्द की एक ऐसी ‘समानान्तर परिभाषा’ गढ़ दी है जो पारम्परिक परिभाषा से न सिर्फ अलग है बल्कि हृदयविदारक और क्रूर भी है। क्या जो बच्चा कूड़े के पर्वतनुमा ढेर से खुशी का इजहार करते हुए फिसलते हुए उतर रहा है कभी इस बात का एहसास कर पाएगा कि किसी फूलों की घाटी से फिसलते हुए उतरने का आनन्द क्या है? और अगर कहीं उसे अपनी भावी जिन्दगी में सचमुच ही किसी फूलों की घाटी में फिसलते हुए उतरने का आनन्द मिला, तो वो अपनी उस अनुभूति को कैसा याद करेगा जब उसका कर्मस्थल कूड़े का हिमालय (या कूड़ालय) हुआ करता था?

बात सिर्फ पर्यावरणीय असन्तुलन की नहीं हैं। हमारे बड़े-बड़े शहरों में रोजाना इतना कूड़ा इकट्ठा हो रहा है कि उससे कई उत्तुंग शिखर बन जाएं। इसीलिए हमारे शहरों में दो या कई केन्द्र हो गये हैं। एक वो जो चकाचक इलाके का होता है और दूसरा वो जहां कूड़ा इकट्ठा किया जाता है। विकास और बेतहासा आर्थिक वृद्धि की दौड़ में हम न सिर्फ प्रकृति को बल्कि मानव जीवन को हो प्रदूषित कर रहे हैं।

IMG_COM_20240723_1924_08_3501

IMG_COM_20240723_1924_08_3501

IMG_COM_20240722_0507_41_4581

IMG_COM_20240722_0507_41_4581

IMG_COM_20240806_1124_04_5551

IMG_COM_20240806_1124_04_5551

IMG_COM_20240808_1601_36_7231

IMG_COM_20240808_1601_36_7231

IMG_COM_20240813_2306_50_4911

IMG_COM_20240813_2306_50_4911

और बाकी चीजों को फिलहाल छोड़ दें और सिर्फ बच्चों के बारे में सोचें तो हर शहर, चाहे वो बड़ा हो या छोटा अपने भीतर दो तरह के संसारों को बना रहा है। एक संसार वो है जिसमें बच्चे सुबह स्कूलों में जाते हैं, साफ-सुथरे रहते हैं और शाम को स्केटिंग, बैडमिंटन या टेनिस जैसे खेल खेलते हैं। दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जो सुबह से ही इस जुगाड़ में घर छोड़ देते हैं कि शाम तक अधिक से अधिक कूड़ा बटोरा जाए (या इसी तरह का कोई और काम किया जाए) ताकि घर का खर्च निकल सके या रोटी का जुगाड़ हो सके।

कूड़ा बटोरते-बटोरते वो उसमें आनन्द भी लेने लगता है। आखिर वो करे भी क्या? जीवन तो जीना है। फिर उमंग के साथ क्यों न जिया जाए? मगर इस उमंग या आंनद को क्या नाम दिया जाए? क्या वो वही उमंग है जो टेनिस या बैडमिंटन खेलने वाले बच्चों की जिन्दगी में दिखती है? या फिर शब्दकोशकारों, साहित्यकारों और अंततः समाज को ऐसी कोटियां बनानी पड़ेंगी हम आंनद और उमंग जैसी अनुभूतियों के अलग-अलग स्तरों को देख सकें।

कूड़े के ढेर से हंसते और फिसलते हुए बच्चे का आंनद वही नहीं है जो अभिजात या मध्यवर्गीय बच्चे का आंनद है। गरीबी का पर्यावरण से क्या रिश्ता है इस पर अब गहराई से विचार होना चाहिए।

देश में एक ओर मंहगाई से निपटने की चर्चा चल रही है वहीं दूसरी ओर नेताओं के पास कोई काम-धंधा नहीं है। हमारे परिचित के एक नेता जी हैं, यहां जिले में। राजनैतिक दल की जिला कार्यकारिणी में हैं। आज अचानक उनसे मुलाकात हो गई और अनजाने ही उनसे देश के विकास पर चर्चा चल गई। चर्चा चली तो विकास से किन्तु कहीं न कहीं धरातल पर काम कर रहे राजनीतिक व्यक्तियों की सोच का खुलासा भी हो गया।

उनके अनुसार देश के विकास को मापने का पैमाना मोबाइल, कार, पक्की सड़कें, गांव-गांव में पहुचती सड़कें हैं। मंहगाई, शिक्षा, रोटी, मकान, भ्रष्टाचार के नाम पर वे कन्नी सी काटते दिखे। आम जनता के प्रति उनके दायित्वों का पता भी इससे चलता है कि वे इस बात को पूर्ण अहं के साथ कहते दिखे कि वे राजनीति का काम अपने मन से कर रहे हैं किसी से इसका वेतन नहीं लेते। यदि जनता को लगता है कि राजनेता कोई काम नहीं कर रहे हैं तो जनता स्वयं काम करे, आन्दोलन करे। यदि जनता अच्छा काम करेगी तो नेता उसके पीछे हो लेंगे।

और बहुत सी बातें हुईं जो दर्शा रहीं थीं कि जब स्थानीय स्तर पर काम कर रहे नेताओं का यह हाल है तो सोचा जा सकता है कि आने वाले समय में ये देश को कैसे दिशा देंगे। जब देश के नेता यह मानने लगें कि जनता के लिए वे एहसान रूप में काम कर रहे हैं, जनता स्वयं अपने काम को करवाने के लिए आन्दोलन करे, नेता जनता की समस्या को केवल सुनने के लिए सुनता है न कि उसके समाधान के लिए तो इसके पीछे का मनोवैज्ञानिक आधार समझा जा सकता है।

इधर नेताओं की मानसिकता पर कभी-कभी हताशा भी होती है कि उनके लिए अभी तक विकास का पैमाना शिक्षा, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य आदि जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के विकास से निर्धारित नहीं हो पाया है। वे अभी भी विकास के सूचकांक को मोबाइल, सड़कों, कारों आदि से नाप रहे हैं। उनके लिए इस बात के मायने नहीं कि रोजमर्रा काम करने वाला व्यक्ति पूरे दिन की मेहनत के बाद यदि 160 रुपये पाता है तो उसमें से वह घर के लिए क्या लेकर जायेगा? प्याज, तेल, आटा, नमक, मिट्टी का तेल, मसाला, सब्जी आदि का हिसाब लगा कर देखिये तो पता चलेगा कि वह क्या खायेगा और क्या बचायेगा?

औद्योगीकरण के कल्पित विकास ने हमारे समाज से मध्यम वर्ग को पूर्णतः समाप्त कर दिया है। अब समाज में एक वर्ग है अमीर का और दूसरा वर्ग है गरीब का। इस व्यवस्था में जहां कि अनियन्त्रित विकास हो रहा हो वहां अमीर और 

अमीर और अमीर हो रहा है तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है। इसके बाद भी हमारे नेता जी विकास को भौतिकतावादी वस्तुओं से जोड़कर देख रहे हैं। कुछ यही हाल केन्द्र का और राज्यों में कार्य कर रहे नेताओं का है। उनके लिए मंहगाई कोई मुद्दा नहीं है, वे तो बस मंहगाई को अपने-अपने चुनावी स्टंट के तरीके से इस्तेमाल करना चाह रहे हैं। उनके लिए गरीबी और गरीब नाम की कोई समस्या ही देश में नहीं रह गई है, वे स्वयं किसी न किसी रूप में धन को प्राप्त कर ले रहे हैं तो समझ रहे हैं कि देश में सभी के लिए धनोपार्जन करना बिलकुल आसान हो गया है।

इस देश में जहां अभी भी बचपन कूड़े के ढ़ेर में अपनी जिन्दगी खोज रहा हो, जहां अभी भी पढ़ाई के लिए बच्चों को खाने का लालच दिया जा रहा हो, जहां शिक्षित करने के नाम पर बच्चों को अपना नाम लिखना ही सिखाया जा रहा हो, जहां खाने के लिए अभी भी बच्चों को घातक कारखानों में काम करना पड़ रहा हो, जहां समूचा परिवार भी मिलकर भी दोनों समय के भोजन की व्यवस्था न कर पा रहे हों, इलाज के नाम पर जहां अभी भी बहुत बड़ी जनसंख्या झाड़फूंक करवाने को विवश हो, इलाज के लिए अभी भी झोलाछाप डॉक्टर अभी भी भगवान की तरह से दिखता हो…..आदि-आदि-आदि….वहां हमारे नेताओं को विकास के लिए पैमाना मोबाइल के रूप में, कार के रूप में, इमारतों के रूप में, सड़कों के रूप में दिख रहा है।

नेताओं को इस बात को समझना होगा कि जनता बहुत दिनों तक नेताओं के सहारे नहीं रहेगी। देश से अंग्रेजों को भगाने के लिए बस एक आन्दोलन की जरूरत पड़ी थी उसके बाद तो अंग्रेजों को भागना ही पड़ा था। देश में सत्ता चला रहे ये काले अंग्रेज नहीं संभले तो किसी न किसी दिन देश की जनता उसे भी भागने को मजबूर कर देगी। समझना इस बात को भी चाहिए कि विदेशी अंग्रेजों को तो भागने के लिए विदेश के बाहर भी रास्ता था, सीमा के बाहर भी रास्ता था पर इन काले अंग्रेजों को तो इसी देश में रहना है, वे भागेंगे तो कहां तक और कब तक?

चाहे कुछ भी हो जाए, कोई कितना ही अच्छा क्यों न हो, कोई कितना ही अच्छा काम क्यों न कर रहा हो, उसकी आलोचना-निन्दा करने वाले हर समय कुछ न कुछ होते ही हैं जो तरह-तरह की बातें और अफवाहें फैलाकर सज्जनों को बदनाम करने की हरचन्द कोशिश करते रहते हैं।

इस किस्म के लोग हर साल कुछ न कुछ संख्या में पैदा होते ही रहते हैं। ये आसुरी आत्माएं हर युग में पैदा होती हैं और अपने साथ पापों की गठरी लेकर मर जाती हैं, फिर पैदा होती हैं और पूर्वजन्मों की नालायकी और पापों की लम्बी फेहरिश्त के साथ।

और यों ही इन आसुरी आत्माओं का आवागमन उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पापों के भण्डार के साथ होता चला जाता है। जब बहुत सारे और अक्षम्य पाप हो जाते हैं तब ये आसुरी आत्माएं कलियुग में पैदा हो जाती हैं और सत्य, धर्म, न्याय से संघर्ष को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानकर पूरी जिन्दगी इसी में खपा देती हैं।

आज इसके पीछे लगे जाएंगी, कल दूसरों के पीछे। इनकी पूरी जिन्दगी का सर्वोपरि ध्येय ही यह हो जाता है कि किस तरह सत्य पर चढ़ाई की जाए, सज्जनता को रौंदा जाए और अपनी चवन्नियां या खोटे अवधिपार सिक्के चलाए जाएं।

चूंकि गंदगी, मैला और सडान्ध के बीच मेल-मिलाप जल्दी ही होकर सारे मिलकर कूड़ाघर या डंपिंग यार्ड का स्थान ले लिया करते हैं और इनकी अजीबोगरीब एरोमेटिक गंध का आनंद ये सभी प्रकार के कूड़े-करकट मिल कर ले लिया करते हैं।

आजकल इस तरह के कचरे की भी भरमार है और उसी की तर्ज पर सभी स्थानों पर कचराघर, डंपिग स्पॉट और डंपिंग यार्ड भी जगह-जगह अपना अस्तित्व दिखाते जा रहे हैं।

इन सभी का एकमेव उद्देश्य यही है कि जमाने भर में सिर्फ उन्हीं की दुर्गंध व्याप्त रहे और लोग दूर से ही इसका अहसास करने लगें, उन्हें स्वीकार करते चले जाएं। तकरीबन हर तरफ इन्हीं सड़ियल किस्म के जीवों को बोलबाला होता जा रहा है।

दुनिया भर में चाहे कितना ही अच्छा काम हो, समाज, देश और क्षेत्र के लिए कितना ही तरक्की वाला काम हो, समाज की निष्काम सेवा हो रही हो, परोपकार का परिवेश हरा-भरा होता जा रहा हो, सर्वत्र सुख-सुकून और शांति का माहौल हो, लेकिन इन आसुरी वृत्तियों वाले लोगों को यह सब नहीं सुहाता।

मन-मस्तिष्क और भावों से कमजोर लेकिन अंधरों की सरपरस्ती में खुद को महान जता देने वाले ये अंधकासुर हमेशा रोशनी के अस्तित्व को स्वीकार करने से परहेज रखते हैं। बहुत सारे तो चुंधियाने वाली रोशनी के पंजों में आकर दृष्टिदोषी या अंधे हो गए, और बहुत सारे रोशनी से घबरा कर अंधेरी मांदों में घुस गए अपने उन आकाओं के आंचल या भीतर तक, जिनका काम ही रह गया है जमाने भर में अंधेरा फैलाना।

दुनिया में यह हालत सभी स्थानों पर हैं। सब जगह अंधेरे वाले कामों को करने के आदी लोगों का जमावड़ा है और ये वे ही काम करते हैं जो अंधेरा पसन्द लोगों के होते हैं। हो सकता है अब इन गतिविधियों ने नया स्वरूप प्राप्त कर लिया हो मगर सच यही है कि हर तरफ आसुरी माया से घिरे लोगों का वजूद बढ़ता जा रहा है।

और ये ही वे लोग हैं जो जमाने भर की गंदगी को अपने दिल और दिमाग में कैद कर इसका रिसाईकल कर वापस फैलाते रहे हैं। इन लोगों को न अच्छे लोग सुहाते हैं, न अच्छे काम। बुरे कामों, पाप कर्मों और मलीनताओं से भरे-पूरे स्वभाव वाले ये लोग अपनी ही तरह के दूसरे कचरापात्रों का साथ लेकर जो कुछ कर गुजरने की क्षमता रखते हैं वह अपने आप में कलियुगी प्रभाव ही कहा जा सकता है।

दुनिया भर में सज्जनों और सज्जनता का खात्मा कर आसुरी वृत्तियों का सिक्का जमाने के लिए पैदा हुए ये लोग श्रेष्ठ कर्मों के धुर विरोधी रहे हैं और रहेंगे। हर स्थान पर ऎसे दो-चार-दस लोग मिल ही जाते हैं। आमतौर पर श्रेष्ठ कर्म का संपादन करने वाले लोग इन्हीं नुगरों और नालायकों से दुःखी रहते हैं और इस वजह से अच्छे कर्म या कर्मक्षेत्रों से पलायन तक कर जाते हैं।

जबकि श्रेष्ठ कर्मयोगियों को चाहिए कि वे इन लोगों से दूर रहें, इनकी बातों, मलीनताओं से भरे कुतर्कों और अफवाहों पर ध्यान न दें क्योंकि हर जगह मात्र एक-दो फीसदी ही ऎसे लोग होते हैं जिनके लिए न कोई सिद्धान्त होते हैं, न धर्म, न मर्यादाएं।

ये लोग अपने वजूद को बचाए रखने तथा प्रतिष्ठा के शिखरों को पाने के लिए किसम-किसम की बैसाखियों का सहारा लेते रहते हैं और अपने आसुरी धर्म की कीर्तिपताका फहराने में मशगुल रहते हैं। लेकिन सज्जनों को चाहिए कि वे इनके प्रति बेपरवाह रहें, इन्हें जहां मौका मिले वहां ठिकाने लगाएं क्योंकि यही आज की सर्वोपरि समाजसेवा है।

अच्छे लोगों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि हर जगह ऎसे भौंकने वाले कुछ लोग होते ही हैं जिनके लिए भौंकना इसलिए अनिवार्य है क्योंकि इसी से उनके अस्तित्व का पता चलता है।

यह साफ मान लेना चाहिए कि जहां हम होते हैं वहां आज भी नब्बे फीसदी से अधिक लोग सज्जनाेंं की कद्र करते हैं और ऎसे में यदि दो-चार फीसदी लोग श्वानों की तरह भौंकते रहें, कुछ भी बकते रहें, अनर्गल अलाप करते रहें, कुछ भी फरक नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि ये दुमहिलाऊ और पराये टुकड़ों तथा झूठन पर पलने वाले लोग किसी के निर्णायक नहीं हो सकते। फिर आजकल तरह-तरह की झूठन खाकर भौंकने वाले और अधिक पागल हुए जा रहे हैं।

जो खुद का नहीं हो, वह किसी और का भाग्य न तो बाँच सकता है, न बना सकता है। इसलिए भौंकने वालों को भौंकने दें, उन पर दया-करुणा रखें और इन्हें अनसुना कर आगे बढ़ते चले जाएं। हर भौंकने वाले की अपनी सीमा रेखा होती है और वह वहीं तक भौंक सकता है, इससे आगे उसके कदम बढ़ नहीं पाते।

इधर नेताओं की मानसिकता पर कभी-कभी हताशा भी होती है कि उनके लिए अभी तक विकास का पैमाना शिक्षा, रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य आदि जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के विकास से निर्धारित नहीं हो पाया है। वे अभी भी विकास के सूचकांक को मोबाइल, सड़कों, कारों आदि से नाप रहे हैं। उनके लिए इस बात के मायने नहीं कि रोजमर्रा काम करने वाला व्यक्ति पूरे दिन की मेहनत के बाद यदि 160 रुपये पाता है तो उसमें से वह घर के लिए क्या लेकर जायेगा? प्याज, तेल, आटा, नमक, मिट्टी का तेल, मसाला, सब्जी आदि का हिसाब लगा कर देखिये तो पता चलेगा कि वह क्या खायेगा और क्या बचायेगा?

औद्योगीकरण के कल्पित विकास ने हमारे समाज से मध्यम वर्ग को पूर्णतः समाप्त कर दिया है। अब समाज में एक वर्ग है अमीर का और दूसरा वर्ग है गरीब का। इस व्यवस्था में जहां कि अनियन्त्रित विकास हो रहा हो वहां अमीर और अमीर हो रहा है तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है। इसके बाद भी हमारे नेता जी विकास को भौतिकतावादी वस्तुओं से जोड़कर देख रहे हैं। कुछ यही हाल केन्द्र का और राज्यों में कार्य कर रहे नेताओं का है। उनके लिए मंहगाई कोई मुद्दा नहीं है, वे तो बस मंहगाई को अपने-अपने चुनावी स्टंट के तरीके से इस्तेमाल करना चाह रहे हैं। उनके लिए गरीबी और गरीब नाम की कोई समस्या ही देश में नहीं रह गई है, वे स्वयं किसी न किसी रूप में धन को प्राप्त कर ले रहे हैं तो समझ रहे हैं कि देश में सभी के लिए धनोपार्जन करना बिलकुल आसान हो गया है।

इस देश में जहां अभी भी बचपन कूड़े के ढ़ेर में अपनी जिन्दगी खोज रहा हो, जहां अभी भी पढ़ाई के लिए बच्चों को खाने का लालच दिया जा रहा हो, जहां शिक्षित करने के नाम पर बच्चों को अपना नाम लिखना ही सिखाया जा रहा हो, जहां खाने के लिए अभी भी बच्चों को घातक कारखानों में काम करना पड़ रहा हो, जहां समूचा परिवार भी मिलकर भी दोनों समय के भोजन की व्यवस्था न कर पा रहे हों, इलाज के नाम पर जहां अभी भी बहुत बड़ी जनसंख्या झाड़फूंक करवाने को विवश हो, इलाज के लिए अभी भी झोलाछाप डॉक्टर अभी भी भगवान की तरह से दिखता हो…..आदि-आदि-आदि….वहां हमारे नेताओं को विकास के लिए पैमाना मोबाइल के रूप में, कार के रूप में, इमारतों के रूप में, सड़कों के रूप में दिख रहा है।

नेताओं को इस बात को समझना होगा कि जनता बहुत दिनों तक नेताओं के सहारे नहीं रहेगी। देश से अंग्रेजों को भगाने के लिए बस एक आन्दोलन की जरूरत पड़ी थी उसके बाद तो अंग्रेजों को भागना ही पड़ा था। देश में सत्ता चला रहे ये काले अंग्रेज नहीं संभले तो किसी न किसी दिन देश की जनता उसे भी भागने को मजबूर कर देगी। समझना इस बात को भी चाहिए कि विदेशी अंग्रेजों को तो भागने के लिए विदेश के बाहर भी रास्ता था, सीमा के बाहर भी रास्ता था पर इन काले अंग्रेजों को तो इसी देश में रहना है, वे भागेंगे तो कहां तक और कब तक?

क्या हमारे पास कोई वेस्ट मैनेजमेंट पालिसी है? या अपना कूड़ा, पड़ोसी के घर की तरफ या सड़क पर फेंकने को ही हम सफाई कहते हैं। सड़क से गंगा यमुना नदी या फिर शहर के बाहर कूड़े के पहाड़ करना हमारी वेस्ट मैनेजमेंट की बेस्ट पालिसी है?

हमारे शहर कूड़े की दुर्गन्ध से भरे हुए हैं। जब सरकार स्वच्छ भारत का नारा दे रही है तो ज़रूर यह पूछना चाहिए कि शहरों में कूड़े के ढेरों पर पालीथीन और कबाड़ चुनकर अपनी गुजर बसर कर रहे नन्हें बच्चों को इस नारकीय जीवन से कब मुक्ति मिलेगी?

नए पेड़ लगाने की बातें बहुत जोर-शोर से होती हैं। इस 2 अक्टूबर को तो पेड़ लगाने की यह रस्म अदायगी और भी नाटकीय समारोह मनाकर संपन्न की जायेगी। लेकिन इससे ज्यादा ज़रूरी सवाल ये है कि आखिर पुराने हरे-भरे पेड़ काट कर पूरे-पूरे जंगल क्यों साफ़ किये जा रहे हैं। नए पेड़ लगाने से ज्यादा ज़रूरी है कि हरे भरे पेड़ों को काटने पर सख्त पाबंदी हो।

कूड़ा साफ़ करने से ज़्यादा ज़रूरी है कि जो उद्योग कूड़े और वेस्टेज के पहाड़ खड़े करते हैं, जो कभी डीजेनेरेट न होने वाले खतरनाक कचरे का निर्माण करते हैं, उन उद्योगों पर इसके निपटान की ज़िम्मेदारी कठोरता से लागू की जाए।

IMG_COM_20240907_2230_31_6531
IMG_COM_20240813_1249_23_0551
IMG_COM_20240813_0917_57_4351
IMG_COM_20240806_1202_39_9381
IMG_COM_20240806_1202_40_0923
IMG_COM_20240806_1202_40_0182
IMG_COM_20240806_0147_08_0862
IMG_COM_20240806_0147_07_9881
samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

Tags

samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."
Back to top button

Discover more from Samachar Darpan 24

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading

Close
Close