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मुकेश चंद्राकर की हत्या ; न जाने कब खत्म होगा पत्रकारिता का जोखिम भरा यह सफर

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हरीश चन्द्र गुप्ता की रिपोर्ट

भारत में माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में पत्रकारिता करना एक कठिन और खतरनाक कार्य है। छत्तीसगढ़ का बस्तर, जो माओवादियों और सुरक्षाबलों के संघर्ष का केंद्र बना हुआ है, वहां पत्रकारों को केवल इन दो पक्षों से ही नहीं, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मोर्चों पर भी भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

हाल ही में बस्तर के स्वतंत्र पत्रकार मुकेश चंद्राकर की हत्या ने इस खतरनाक वास्तविकता को फिर से उजागर कर दिया। छत्तीसगढ़ पुलिस ने हत्या के मुख्य आरोपी सुरेश चंद्राकर को हैदराबाद से गिरफ्तार करने का दावा किया है। राज्य के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने कहा कि दोषियों को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जाएगा और जल्द ही जांच पूरी की जाएगी।

मुकेश चंद्राकर की हत्या के घटनाक्रम से यह स्पष्ट होता है कि बस्तर में पत्रकारिता करना सिर्फ एक पेशा नहीं, बल्कि जोखिम भरी जिम्मेदारी है। माओवादी, सरकारी तंत्र, राजनीतिक दल, और अब स्थानीय ठेकेदार भी पत्रकारों के खिलाफ मोर्चा खोलते नजर आते हैं।

मुकेश चंद्राकर को पिछले साल माओवादियों ने चिट्ठी भेजकर पुलिस और सरकार का दलाल बताते हुए धमकाया था। इसके कुछ ही दिनों बाद, बीजापुर में सीआरपीएफ जवानों ने उन पर बंदूक तान दी और धमकी दी। यह घटनाएं मुकेश की हत्याकांड की पृष्ठभूमि को समझने के लिए काफी हैं।

राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव

मुकेश चंद्राकर जैसे पत्रकारों को राजनीतिक दलों के भी विरोध का सामना करना पड़ता है। बीजापुर में कांग्रेस जिलाध्यक्ष ने उन पर आरोप लगाया था कि वे एक विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में काम कर रहे हैं। इसके साथ ही स्थानीय प्रशासन ने उन्हें माओवादी हिंसा से संबंधित खबरें प्रसारित करने पर नोटिस जारी किया था।

पत्रकारों की त्रासदी

बस्तर में पत्रकारों के लिए हर दिन एक नई चुनौती लेकर आता है। नेमीचंद जैन और साईं रेड्डी जैसे पत्रकारों की हत्या यह दिखाती है कि माओवादी और पुलिस दोनों ही पत्रकारों को अपने पक्ष का मानने पर जोर डालते हैं। साईं रेड्डी को पुलिस ने माओवादी बताते हुए जेल में डाला, जबकि माओवादियों ने उन्हें पुलिस का मुखबिर बताकर मार डाला।

आर्थिक असुरक्षा और संस्थानों का रवैया

ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले अधिकतर पत्रकारों को अखबार या टीवी चैनल न तो नियुक्ति पत्र देते हैं और न ही वेतन। विज्ञापन से होने वाली आमदनी उनकी जीविका का मुख्य स्रोत होती है। जब कोई घटना होती है, तो मीडिया संस्थान अक्सर पत्रकारों से पल्ला झाड़ लेते हैं।

दंतेवाड़ा के पत्रकार संतोष यादव, सोमारू नाग, और प्रभात सिंह के मामले में भी यही देखा गया। उन्हें माओवादी समर्थक बताकर गिरफ्तार किया गया, लेकिन जिन संस्थानों के लिए वे काम करते थे, उन्होंने उनकी कोई मदद नहीं की।

पत्रकार सुरक्षा कानून की जरूरत

बस्तर के पत्रकारों की सुरक्षा के लिए सरकार ने पत्रकार सुरक्षा कानून बनाने की बात कही है। हालांकि, अब तक यह कानून कागजों से बाहर नहीं आ पाया है। रायपुर प्रेस क्लब के अध्यक्ष प्रफुल्ल ठाकुर ने कहा कि सुरक्षा कानून से चमत्कारिक बदलाव तो नहीं आएंगे, लेकिन पत्रकारों को कुछ हद तक राहत जरूर मिलेगी।

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मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने कहा कि सरकार इस कानून को प्रभावी बनाने के लिए सभी हितधारकों से विचार-विमर्श करेगी। लेकिन तब तक बस्तर के पत्रकारों को अपने संघर्ष में अकेले ही डटे रहना होगा।

बस्तर जैसे क्षेत्रों में पत्रकारिता करना जोखिम, साहस और प्रतिबद्धता का कार्य है। यह स्पष्ट है कि इन पत्रकारों के पास न तो संस्थानों का पूरा समर्थन है और न ही समाज का। उनकी सुरक्षा और स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए सरकार और मीडिया संस्थानों को ठोस कदम उठाने होंगे। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक बस्तर के पत्रकारों का संघर्ष जारी रहेगा।

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samachardarpan24
Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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