रजनी मल्होत्रा की रिपोर्ट
इंदौर । महाराजा यशवंत राव हॉस्पिटल की दूसरी मंजिल का एक वार्ड। यहां कई मरीज भर्ती हैं, लेकिन यहां 7 दिन से भर्ती 6 साल के बच्चे की हालत और कराह से हर कोई सहम उठता है। आंसू फूट पड़ते हैं। कुछ पल के लिए अपनी तकलीफ भूलकर प्रार्थना करने लगते हैं कि ‘हे भगवान! इस ‘बिन मां-बाप’ के मासूम का दर्द कब खत्म होगा?’
3 मार्च को रतलाम के पास यह बच्चा रेलवे ट्रैक पर खून में लथपथ मिला था। एक पैर और एक हाथ कट कर धड़ से अलग हो गए हैं। दूसरा हाथ और दूसरा पैर भी बुरी तरह कुचले हुए हैं। दो सर्जरी के बाद जान बच गई, लेकिन ये बच्चा आखिर कौन है? कहां से आया? 7 दिन बाद भी किसी को नहीं पता। उसकी टूटी-फूटी बातों से पता चला है कि वो आदिवासी वर्ग से है। अब अस्पताल स्टाफ, जीआरपी और भर्ती मरीजों के अटैंडर वार्ड में उसे पाल-संभाल रहे हैं। यही उसके तीमारदार हैं।
बच्चे को रतलाम से इंदौर तक लाए जीआरपी कॉन्स्टेबल गुजरभोज और पीडियाट्रिक वार्ड के अटैंडर्स से बातचीत की… जानिए इस बच्चे की पूरी कहानी, इन्हीं की जुबानी…
3-4 मार्च के बीच की बात है। एमवाय हॉस्पिटल की इमरजेंसी में यह खबर दी गई कि रतलाम से गंभीर हालत में एक बच्चे को लाया गया है। इसके हाथ-पैर ट्रेन से कट गए हैं। हमारी टीम तुरंत पहुंची और देखा तो पहले ही पल में आंखें डबडबा उठीं। बच्चे का एक हाथ पूरी तरह कंधे से अलग हो गया था। एक पैर भी घुटने के नीचे से लटक रहा था। जैसे ही उसके घाव को खोला तो खून की धार निकल पड़ी। चारों लिंब (अपर-लोअर लिंब) से एक साथ खून बहना, आप समझ ही पा रहे होंगे, कैसा मंजर होगा।
हमने तुरंत साथ आए पुलिसकर्मी से कहा कि इसकी तत्काल सर्जरी कराना होगी। इसके अटैंडर कौन है, उनसे सहमति दिलाइए…। पुलिसकर्मी डॉक्टर्स की बात सुनकर हैरान रह गए। उन्होंने कहा कि इसका तो हमें कोई नॉलेज नहीं है। मां-बाप का पता नहीं।
यह सुनकर हम थोड़ा टेंशन में आ गए कि सर्जरी जरूरी है, देर नहीं कर सकते। तुरंत ग्रुप डिस्कशन से तय कर लिया कि CMHO कार्यालय से नोटिफाइड कराते हैं। आनन-फानन में पूरी फाइल तैयार कर अनुमति ली गई। पुलिस से भी सहमति ली और ऑपरेशन थिएटर में सर्जरी शुरू कर दी गई।
जब ऑपरेशन शुरू कर रहे थे, तब पता चला कि ज्यादा खून बह जाने से उसका हीमोग्लोबिन सिर्फ 6 रह गया है। यह सामान्य से आधे से भी कम था। वैसे भी बच्चा थोड़ा कमजोर है और हादसे से पहले भी उसका हीमोग्लोबिन 9-10 से ज्यादा नहीं रहा होगा। हमने दो बोतल खून चढ़ाया और सर्जरी कर दी।
उसके खून बहने वाले हिस्सों को पूरी तरह बंद किया और ऐसी नसों को शरीर से अलग किया, जिससे इंफेक्शन फैलने का खतरा लग रहा था। हमें डर था कि कोई नस दबी रह गई तो शरीर काला पड़ जाएगा। हमने तुरंत फिटनेस जांच भी करवाई।
बच्चा जिस तरह से दर्द से चीख रहा था, सभी कंपकंपा उठते थे। उसकी पीड़ा ने पूरे स्टाफ को झकझोर दिया था। सर्जरी के बाद छह दिन गुजर गए हैं, लेकिन आज भी उसका दर्द कम नहीं है। कभी कहता है कि मम्मी है, कभी नहीं है।
जब वार्ड में वह चीखता है तो एक-दो बार तो उसे गोद में उठाकर घूमना पड़ा, ताकि किसी तरह वह चुप हो जाए। उसकी दर्दभरी कराह से पूरा वार्ड सहम जाता है।’
दर्द के बीच भी कहता है कि मेरी फोटो तो खींचो…
‘सर्जरी के बाद उसकी रोज ड्रेसिंग करना पड़ रही है। घाव भर रहे हैं या नहीं, यह देखने के लिए हर ड्रेसिंग के वक्त तस्वीरें खींच रहे हैं। अब बच्चा भी वार्ड के लोगों और स्टाफ से थोड़ा घुल-मिल गया है। आप यकीन मानिए कि सर्जरी के वक्त हड्डी काटने के लिए तार की जरूरत थी तो एक भर्ती महिला मरीज ने 1300 रुपए में तार बुलवा दिया। हमने रुपए तो वापस करा दिए, लेकिन इसमें मैं सिर्फ इस पराए बच्चे के प्रति लोगों की संवेदनाएं बता रहा हूं।
एक मरीज के अटैंडर तो उसके डाइपर तक साफ कर देते हैं। कहते हैं कि बच्चा है, मेरे परिवार के मरीज की भी सफाई करता हूं तो इसमें क्या परेशानी है। कभी जांच रिपोर्ट लाना हो या कोई और जरूरत का सामान… वह बिना बोले ही इस बच्चे के अटैंडर की तरह काम कर रहे हैं।
जब भी उसके सामने कोई कुछ खाते दिखता है तो वह उससे मांग लेता है। ड्रेसिंग के वक्त फोटो खींचे जाने की खुशी में कई बार वह अपना दर्द भूल जाता है। जैसे ही ड्रेसिंग होती है तो वह स्टाफ से कहता है कि ‘मेरी फोटो खींचो…।’
लगता है कि वो अकेला है… मम्मी आएगी सुनकर भाव बदल जाते हैं
‘हमें लग रहा है कि वो जानता है कि वो अकेला है। क्योंकि जब भी हम उसे कहते हैं कि मम्मी आ जाएगी तो उसके हाव-भाव बदल जाते हैं। ऐसा दर्शाता है कि जैसे नहीं आएगी।
वो आदिवासी बोली में बोलने की कोशिश करता है। वहां भर्ती कुछ मरीजों से उसकी बात कराने की कोशिश की तो पता चला कि वो झाबुआ-अलीराजपुर तरफ की आदिवासी बोली में बात कर रहा है।
चूंकि रतलाम झाबुआ से नजदीक भी है, ऐसे में उसी आधार पर कुछ शहरों में सर्चिंग की गई। उसने कुछ जगह के नाम लिए हैं। राजस्थान के दौसा तक पुलिस हो आई, लेकिन इस बच्चे के बारे में कुछ भी पता नहीं चल पा रहा है।
बच्चे को दर्द तो महसूस हो रहा है, लेकिन उसमें यह समझ नहीं है कि उसके साथ जो हादसा हुआ है, वो जिंदगीभर उसे कचोटेगा। उसके सामने कितनी तकलीफें आने वाली हैं, यह अहसास नहीं है। ’
अहसास नहीं है कि उसका जिंदगी कितनी दर्दभरी हो गई है
अस्पताल में बालक के पास कॉन्स्टेबल चेतन नरवाले और महेश चौधरी की भी ड्यूटी लगी है। वे कहते हैं कि वह शुरू से ही दर्द से कराह रहा है। बच्चे ने खुद का नाम आकाश, पिता का नाम भीमा बताया है। कभी खुद का नाम भीमा बोलता है। एक बार गांव रुंडलासा का होना बताया तो वहां परिवार का पता लगाया, लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। ज्यादा कुछ पूछने लगो तो रोने लगता है। उसकी हालत देख वार्ड में कई लोगों के आंसू आ जाते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता पं. जस्सू जोशी व करीम पठान ने भी उससे बातचीत की, लेकिन वह इससे ज्यादा कुछ नहीं बता पा रहा है। मामले में रतलाम पुलिस व एमवाय अस्पताल लगातार उसकी मॉनिटरिंग कर रहे हैं।
अब नहीं देखा जाता रुदन
दरअसल, जिस दिन घटना हुई तब देहरादून एक्सप्रेस गुजरात से रतलाम की ओर आ रही थी। रास्ते में दाहोद, मेघनगर, बामनिया, राउटी व अन्य शहर आते हैं। इस पर उसके फोटो-वीडियो सोशल मीडिया पर भी पोस्ट किए, लेकिन अभी तक उसके परिवार का पता ही नहीं चल पा रहा है।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."