ज़ीशान मेहदी की रिपोर्ट
लखनऊ, बड़े दलों के गठजोड़ का हश्र तो ‘हम तो डूबेंगे ही, तुम्हें भी ले डूबेंगे’ वाला हुआ है, इसलिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में छोटे दलों की पूछ-परख कुछ बढ़ती जा रही है। अब तक के चुनावों में भाजपा के लिए यह प्रयोग उसकी जीत का अंतर बढ़ाने में उपयोगी साबित हुआ है। मुख्य विपक्षी दल सपा ने भी इन समीकरणों को समझा और 2022 के विधानसभा चुनाव में छोटे दलों की ताकत जुटाई तो उनका ‘परफार्मेंस’ कांग्रेस और बसपा जैसी बड़ी पार्टियों की तुलना में बेहतर रहा। मगर, परिस्थितियां फिर बदल रही हैं। लोकसभा चुनाव के लिए आकार ले रहे मैदान में जो पाले उभर रहे हैं, उसमें सपा से छिटककर कुछ छोटे दल भाजपा की ओर रुख करते नजर आ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में भाजपा का विजय रथ 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार दौड़ता भले ही जा रहा हो, लेकिन राह में चुनौतियों की बाधा खड़ी करने में विपक्षी दलों ने कोई कोर कसर छोड़ी नहीं है। भाजपा को कमतर आंकते रहे विरोधी दलों ने 2014 में प्रचंड मोदी लहर देखी और प्रदेश की कुल 80 में से 71 सीटें जीत लीं। तब भगवा दल ने पूर्वांचल में प्रभाव रखने वाले अपना दल (एस) को साथ रखा, जिसको दो सीटों पर जीत मिली।
सीटों की संख्या बेशक दो थी, लेकिन इसके जरिए पिछड़ों का वोट प्रदेशभर में बटोरना उद्देश्य था। यही कारण रहा कि सपा पांच सीटों पर सिमट गई, कांग्रेस को दो पर जीत मिली, जबकि बसपा और रालोद का खाता भी नहीं खुला था। इससे सतर्क सपा मुखिया अखिलेश यादव ने 2017 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन की ताकत दिखाने का प्रयास किया और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा, जबकि भाजपा ने गठबंधन में अपना दल (एस) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) को साथ रखा।
इन दो छोटे दलों ने भाजपा गठबंधन के खाते में 13 सीटों (अपना दल-9, सुभाासपा-4) का योगदान दिया। भाजपा गठबंधन को 325 सीटें मिलीं, जबकि सपा गठबंधन मात्र 54 पर सिमट गया। इसमें कांग्रेस के सिर्फ सात विधायक जीत सके। बसपा अकेले लड़कर 19 जीत सकी।
इसके बाद 2018 के लोकसभा उपचुनाव में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्र में सपा, बसपा को निषाद पार्टी का साथ मिला तो भाजपा वहां मात खा गई। इससे सबक लेकर भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में निषाद पार्टी को अपने साथ ले लिया, जबकि अखिलेश ने बसपा के साथ को मजबूत मानकर मायावती से हाथ मिला लिया। भाजपा को लाभ हुआ और अपना दल की दो सहित गठबंधन 64 सीटों पर जीत गया, जबकि सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को कुल 15 पर जीत मिली।
इसमें बसपा की दस और सपा की पांच सीटें थीं। रालोद शून्य पर रही, जबकि कांग्रेस एक सीट पर सिमट गई। इस बीच सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर भाजपा से बगावत कर चुके थे। 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा, रालोद और निषाद पार्टी एक पाले में थे, जबकि सपा के साथ सुभासपा, अपना दल कमेरावादी, रालोद और महान दल ने ताकत लगाई। इसका परिणाम यह रहा कि सपा 47 सीटों से बढ़कर 111, जबकि सपा गठबंधन 125 पर पहुंच गया।
माना जा रहा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल में सपा को रालोद व सुभासपा का पूरा लाभ मिला है। मगर, 2024 के लोकसभा चुनाव पहले फिर समीकरण बदल रहे हैं। ओमप्रकाश राजभर से अखिलेश के संबंध खट्टे हो चुके हैं। महान दल पहले ही किनारा कर चुका है और लगातार भतीजे पर बरस रहे प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ने भी छोटे दलों को एकजुट करने की बात कह दी है। चूंकि, कांग्रेस और बसपा फिलहाल खड़ी होती नहीं दिख रहीं, इसलिए उम्मीद यही है कि छोटे दलों की गोलबंदी इस बार भाजपा के साथ मजबूत हो सकती है।
राष्ट्रपति चुनाव में भी मिले संकेत : सपा गठबंधन में बिखराव और भाजपा की ओर छोटे दलों के झुकाव का संकेत राष्ट्रपति चुनाव में भी मिला। प्रसपा, सुभासपा के अलावा जनसत्ता दल लोकतांत्रिक के रघुराज प्रताप सिंह ने राजग प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मु का समर्थन किया। वह चुनाव जीतीं और अब राष्ट्रपति हैं। अब बिहार के घटनाक्रम के बाद सिर्फ जदयू ही ऐसा दल दिखाई दे रहा है, जो सपा के साथ मिल सकता है। रालोद मुखिया जयंत चौधरी राज्यसभा भेज दिए गए हैं, इसलिए उनका भी अखिलेश के साथ बने रहना तय ही माना जा रहा है।
Author: samachar
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