अनिल अनूप की खास रिपोर्ट
सितारा देवी…जिन्हें ठाकुर रवींद्रनाथ टैगोर ने कथक क्वीन का नाम दिया था। पैदा होते ही घरवालों ने सिर्फ इसलिए इन्हें छोड़ दिया क्योंकि इनका मुंह टेढ़ा था। 8 साल बाद पिता ने अखबार में इनके डांस का फोटो देखा तो इन्हें घर ले आए। 8 की ही उम्र में शादी करा दी गई, लेकिन मिजाज से बागी सितारा ने स्कूल और पढ़ाई के लिए ससुराल जाने से इनकार कर दिया। नतीजा शादी टूट गई।
सितारा देवी ने चार शादियां कीं, लेकिन एक भी निभ नहीं सकीं। दो शादियां दुःख से भरी रहीं, पति की बेवफाई ने इन्हें तोड़ दिया, लेकिन अपने इस दुःख को भी इन्होंने कभी अपने कथक पर हावी नहीं होने दिया। दुनियाभर में कथक के लिए सितारा देवी का नाम था। कथक के लिए ही फिल्मी करियर भी छोड़ दिया। 1991 में इन्हें पद्मभूषण देने की घोषणा हुई तो बेबाक सितारा देवी ने ये कहते हुए इनकार कर दिया कि उन्हें भारत रत्न से कम कुछ मंजूर नहीं है।
बात है 8 नवम्बर 1920 की जब ब्राह्मण सुखदेव महाराज के वाराणसी स्थित घर में बेटी का जन्म हुआ। ये दिन दीवाली से ठीक एक दिन पहले धनतेरस का था तो उन्होंने धनलक्ष्मी देवी के नाम पर बेटी का नाम धनलक्ष्मी ही रख दिया। बेटी का चेहरा बचपन में टेढ़ा था तो सुखदेव ने नाखुश होकर उसे अपनी नौकरानी को सौंप दिया। नौकरानी ने दिन-रात सेवा की तो चेहरे में सुधार आ गया। बेटी का चेहरा सुधरने के बाद 8 साल की उम्र में मां-बाप उसे लेने के लिए राजी हो गए। किसे पता था कि बचपन में ही ठुकरा दी जाने वाली धनलक्ष्मी, काशी के कबीरचौरा गली से निकलकर देश-विदेश में सितारा बनकर खूब नाम कमाएगी।
सितारा देवी के पिता सुखदेव महाराज ब्राह्मण थे, जो संस्कृत विद्वान और नेपाल के शाही दरबार के सेवक थे। नेपाल कोर्ट में रहते हुए ही सुखदेव महाराज को शास्त्री नृत्य में रुचि जागी और उन्होंने भरतनाट्यम की ट्रेनिंग ली। यहीं उनकी शादी नेपाल कोर्ट की रॉयल फैमिली की मत्य्स कुमारी से हुई, जिससे इन्हें तीन बेटियां अलकनंदा, तारा, धनलक्ष्मी और दो बेटे चौबे और पांडे हुए।
डांस सीखा तो हुई तवायफ से तुलना
भारतीय शास्त्रीय नृत्य को बढ़ावा देने के लिए सुखदेव ने सितारा समेत अपने पांचों बच्चों को भी कथक की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी। ये 1930 का वो दौर था जब कथक सिर्फ तवायफें ही करती थीं। सभ्य परिवार की लड़कियों को कथक करने की अनुमति नहीं हुआ करती थी, लेकिन सुखदेव ने ये क्रांतिकारी कदम उठाया। एक तो ब्राह्मण परिवार ऊपर से नाच-गाना, समाज खिलाफ हो गया और उनकी बेटियों को तवायफ तक कहा जाने लगा।
लोगों ने आपत्ति ली तो उनके परिवार को अपना घर छोड़ना पड़ा। ये परिवार बनारस के कबीरचौरा में रहने आ गया। घर बदलने के बाद सुखदेव ने शास्त्रीय नृत्य सिखाने के लिए स्कूल शुरू किया और इसमें धार्मिक इनपुट दिए, जिससे ये तवायफों के डांस से अलग लगे। समाज के ताने पड़ते रहे, लेकिन सितारा ने अपनी बहनों के साथ डांस में कदम जमाए रखे।
महज 8 साल की उम्र में सितारा का बाल विवाह हुआ, लेकिन उनके ससुराल वाले चाहते थे कि सितारा शादी के बाद स्कूल जाना छोड़ दें। सितारा की स्कूल जाने की जिद पर पिता ने शादी तोड़ दी और उसका दाखिला बनारस के कमच्छागढ़ हाई स्कूल में करवाया। स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रम में सावित्री और सत्यवान की माइथोलॉजिकल स्टोरी पर डांस परफॉर्मेंस होनी थी।
सितारा ने जब अपना हुनर दिखाया तो टीचर ऐसी प्रभावित हुईं कि सितारा को ही सभी बच्चों को डांस सिखाने की जिम्मेदारी सौंप दी। जब सितारा ने स्टेज पर परफॉर्मेंस दी तो देखने वाला हर शख्स हैरान था। लोकल न्यूजपेपर में सितारा के डांस की खूब सराहना की गई।
अखबार में बेटी की खबर पढ़ी तो टेढ़े मुंह पर होने लगा गर्व
जब पिता ने अखबार पढ़ा तो उनका नजरिया बदल गया। जिस बेटी को टेढ़े मुंह के कारण उन्होंने बचपन में छोड़ दिया था, आज वही अखबारों में सुर्खियों बटोर रही थी। उन्होंने बेटी धनलक्ष्मी को सितारा देवी नाम दिया और बड़ी बहन तारा के साथ कथक ट्रेनिंग में जगह दिलवा दी। बहन को रोजाना डांस करते देख सितारा खुद डांस में माहिर होती चली गईं। डांस में मन लगने लगा तो सितारा ने स्कूल जाना छोड़ दिया।
1930 के दौर में फिल्मों के बीच होने वाला इंटरवल 15 मिनट का होता था, जिसमें डांसर्स लोगों का मनोरंजन करते थे। ये जिम्मेदारी सितारा को मिली थी। 11 साल की उम्र में सितारा का परिवार वाराणसी से मुंबई शिफ्ट हो गया, जहां वो कथक परफॉर्मेंस दिया करती थीं।
सितारा ने अतिया बेगम पैलेस में रवींद्रनाथ टैगोर, सरोजिनी नायडू और कावसजी जहांगीर के सामने कथक परफॉर्मेंस दी। खुद रवींद्रनाथ ने उन्हें टाटा पैलेस में स्पेशल परफॉर्मेंस देने को कहा। टाटा पैलेस में 12 साल की सितारा की 3 घंटे की परफॉर्मेंस से खुश होकर रवींद्रनाथ ने उन्हें 50 रुपए का नगद उपहार और शॉल देकर सम्मानित किया। मुंबई में उनका नाम होने लगा। सितारा देवी के लिए फिल्म इंडस्ट्री में भी बात होने लगी।
सितारा देवी ने खुद एक इंटरव्यू में फिल्मों में आने के किस्से पर बात की थी। उन्होंने कहा था- डायरेक्टर निरंजन शर्मा अपनी फिल्म ‘उषाहरण’ के लिए एक कम उम्र की कथक डांसर की तलाश में थे। वो बनारस की कई तवायफों से मिले, लेकिन उनमें से ज्यादातर हिंदू थीं, जो शास्त्रीय नृत्य से अनजान थीं।
जब निरंजन इस सिलसिले में तवायफों के घराने की मशहूर गायिका सिद्धेशवरी देवी से मिले तो उन्होंने निरंजन के सामने उनके (सितारा के) नाम का प्रस्ताव रखा। जब निरंजन सुखदेव के डांस स्कूल पहुंचे तो 12 साल की सितारा के डांस से खुश होकर उन्होंने वहीं ऑफर दे दिया।
1933 में बनी ये फिल्म सितारा की पहली फिल्म थी जो 1940 में रिलीज हुई। इससे पहले ही ‘शहर का जादू’ (1934) इनकी डेब्यू फिल्म बन गई। डेब्यू के बाद सितारा ने करीब 23 हिंदी फिल्मों में काम किया।
मंटो के सामने तलवार लहराते हुए दी थी चेतावनी
सआदत हसन मंटो उस जमाने के नामी लेखक थे, जो बड़ी-बड़ी हस्तियों के बारे में लिखते थे। जब सितारा देवी छोटी थीं तो मंटो उनके ऐसे दीवाने थे कि रोजाना प्रैक्टिस करती सितारा को देखने घर पहुंच जाया करते थे। जब सितारा पिता से शिकायत करतीं तो वो कहते कि ये बड़े लेखक हैं, तुम्हारे बारे में बड़े अखबारों में छापते हैं।
16 साल की सितारा को रोज-रोज मंटो का आना पसंद नहीं था। एक दिन जब मंटो बिन बुलाए पहुंचे तो सितारा ने उन्हें घर से निकाल दिया। अगली बार फिर मंटो फूल और मिठाई लेकर पहुंचे और डायलॉगबाजी करने लगे। सितारा उस समय तलवार के साथ प्रैक्टिस कर रही थीं। जब मंटो समझाने पर नहीं चुप हुए तो सितारा उनके करीब तलवार लहराते हुए प्रैक्टिस करने लगीं, जिससे वो डर गए। ये साहसी सितारा का चेतावनी देने का अंदाज था।
कथक के लिए फिल्मी करियर कुर्बान
‘मदर इंडिया’ आखिरी फिल्म थी जिसमें सितारा देवी ने बतौर डांसर काम किया था। फिल्म में उन्होंने लड़के की वेशभूषा में होली के गाने पर डांस किया था। जब फिल्मों में काम करते हुए उनके कथक पर असर पड़ने लगा तो उन्होंने फिल्मों में काम करना हमेशा के लिए छोड़ दिया। ये पहली कलाकार थीं, जिन्होंने क्लासिकल डांस के लिए फिल्मी करियर की कुर्बानी दी।
लंदन, न्यूयॉर्क तक कथक पहुंचाने वालीं सितारा
फिल्मों से दूरी बनाने के बाद सितारा भारत समेत विदेशों में भी बनारस घराने के कथक की प्रस्तुति देने लगीं। 1967 में सितारा को लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल और 1976 में न्यूयॉर्क के कार्नेजी हॉल में परफॉर्म करने का मौका मिला। दुनियाभर के बड़े देशों में कई बार इन्होंने कथक की प्रस्तुति दी। इनके बड़े-बड़े स्टेज शो होते और इस तरह सितारा बनारस घराने की कथक शैली की जीती जागती परंपरा बन गईं।
कामयाबी मिली, लेकिन प्यार को तरसती रहीं सितारा
सितारा देवी की शादीशुदा जिंदगी हमेशा से ही उथल-पुथल भरी रही। बचपन में इनकी पहली शादी मिस्टर देसाई से हुई थी, जिनके बारे में चंद लोग ही जानते हैं। इस शादी को पढ़ाई के लिए सितारा देवी ने खुद तोड़ दिया था। इसके बाद सितारा ने 1956 में 16 साल बड़े एक्टर नजीर अहमद खान से शादी कर ली।
दरअसल, सितारा उस समय नजीर की हिंद पिक्चर्स प्रोडक्शन कंपनी की पार्टनर बन गई थीं। साथ काम करते हुए दोनों को प्यार हुआ और दोनों ने शादी कर ली। नजीर पहले से ही शादीशुदा थे, लिहाजा दोनों का रिश्ता खूब विवादों में रहा। दोनों के रिश्ते को समाज ने नाजायज बताया। शादी को जायज करने के लिए सितारा ने इस्लाम कबूल कर लिया।
के. आसिफ से बढ़ती नजदीकियों के कारण टूट गई शादी
नजीर के भांजे के. आसिफ (मुगल-ए-आजम के डायरेक्टर) प्रोडक्शन में हाथ बंटाने के लिए अक्सर स्टूडियो पहुंचा करते थे। यहां उनकी मुलाकात हम-उम्र सितारा से होती रहती थी। सितारा को स्टूडियो में काम करने के पैसे नहीं मिलते थे, जिससे वो नजीर से नाराज रहती थीं। वहीं के. आसिफ भी अपने मामा नजीर से परेशान रहते थे। दोनों स्टूडियो में हमदर्द बनने लगे और एक-दूसरे के नजदीक आ गए।
दूसरी तरफ नजीर भी रोज-रोज के. आसिफ के स्टूडियो पहुंचने और पत्नी से बात करने पर नाराज थे। उन्होंने के. आसिफ के लिए दादर में दर्जी की दुकान खुलवा दी, जिससे वो सितारा से दूर चले जाएं, लेकिन इसके बाद भी सितारा और के. आसिफ और नजदीक आ गए। बाद में सितारा देवी ने नजीर से तलाक लेकर उनके भांजे के. आसिफ से 1944 में कोर्ट मैरिज कर ली।
दो साल बाद ही के. आसिफ ने कर ली दूसरी शादी
सितारा से शादी के 2 साल बाद ही के. आसिफ ने लाहौर जाकर दूसरी शादी कर ली, जिससे सितारा बुरी तरह टूट गईं। सितारा कहती थीं, के. आसिफ बेहद शरीफ, जहीन और तरक्की-पसंद इंसान थे और मेरा ख्याल भी रखते थे, लेकिन मुझसे उनकी रंगीनमिजाजी बर्दाश्त नहीं होती थी।
जब सितारा देवी की दोस्त ही बन गईं उनकी सौतन
सितारा ने के. आसिफ से 40 के दशक में तीसरी शादी की। के. आसिफ ने अपनी फिल्म मुगल-ए-आजम के गाने ‘तेरी महफिल में किस्मत’ में सितारा देवी के कहने पर उनकी दोस्त निगार को मधुबाला के साथ काम दिया। इसी निगार को कुछ समय बाद के. आसिफ शादी करके घर ले आए। अब सितारा की दोस्त निगार उन्हीं की सौतन बन चुकी थीं। इस वाकये से सितारा को जोरदार धक्का लगा था, लेकिन उन्होंने के. आसिफ से रिश्ता नहीं तोड़ा।
सितारा और के. आसिफ के बच्चे नहीं हुए, लेकिन सितारा निगार के बच्चों से खूब प्यार करती थीं। वो कहती थीं कि बड़ों के मामलों में बच्चों की कोई गलती नहीं है। उनकी बेटी जंयतीमाला ने फेमिना को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि सितारा देवी ने कभी पति के धोखे का असर निगार से अपनी दोस्ती पर नहीं पड़ने दिया। उन्होंने अपने गुस्से और दर्द को समेटा और अपनी तड़प नृत्य के जरिए जाहिर की।
पति ने दिलीप कुमार की बहन से तीसरी शादी की तो टूट गईं सितारा
सितारा और निगार के होते हुए भी के. आसिफ,अख्तर से शादी कर उसे घर ले आए। अख्तर, दिलीप कुमार की सगी बहन थीं, जिन पर वो जान लुटाते थे। के. आसिफ और अख्तर की शादी से दिलीप कुमार को ऐसा धक्का पहुंचा कि उन्होंने दोनों से सारे रिश्ते खत्म कर लिए। गुस्सा ऐसा कि दिलीप साहब मुगल-ए-आजम के प्रीमियर तक में नहीं पहुंचे।
सितारा देवी दिलीप कुमार को राखी बांधती थीं। जितना गुस्सा दिलीप साहब थे, उससे कहीं ज्यादा गुस्सा वो थीं। घर में खूब झगड़े हुए और आखिरकार सितारा ने के. आसिफ का घर छोड़ दिया। जाते-जाते सितारा ने के. आसिफ से कहा- तुम बेमौत मरोगे, मैं तुम्हारा मरा मुंह भी नहीं देखूंगी। लेकिन, जब सालों बाद 9 मार्च 1971 को संजीव कुमार के घर अचानक के. आसिफ की मौत हो गई तो सितारा ने कसम तोड़ दी और पत्नी होने के नाते सारी रस्में अदा कीं।
चौथी शादी भी हुई, लेकिन टूट गई
1958 में एक कार्यक्रम के सिलसिले में सितारा देवी साउथ अफ्रीका के दारेस्सलाम गई थीं, जहां कई गुजराती परिवार बसे थे। सितारा के ठहरने का इंतजाम भी गुजराती परिवार ने किया था, जिनके बेटे प्रताप बरोट से उनकी अच्छी दोस्ती हो गई।
प्रताप बरोट ब्रिटिश एयरवेज के इंजीनियर थे, जो लंदन जाकर बस गए। दोस्ती बढ़ी तो दोनों ने शादी कर ली। इस शादी से उन्हें पहला बेटा रंजीत बरोट और बेटी जयंतीमाला हुई, लेकिन अफसोस कि 1970 तक दोनों का अलगाव हो गया।
पद्मभूषण को अपमान बताते हुए ठुकराया
साल 2002 में सितारा देवी को पद्मभूषण से सम्मानित किया जाना था, लेकिन उन्होंने ये सम्मान लेने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा- ये मेरे लिए सम्मान नहीं बल्कि अपमान है। क्या सरकार मेरे द्वारा दिए गए कथक के योगदान से जागरूक नहीं है। मैं भारत रत्न से कम कोई अवॉर्ड स्वीकार नहीं करूंगी। लोग इसे सितारा का अहंकार मान सकते हैं, लेकिन ये उनका स्वभाव था। वो जीवन में हमेशा सर्वश्रेष्ठ की मांग करती थीं, क्योंकि वो खुद हमेशा से अपना सर्वश्रेष्ठ देती आईं।
94 साल की उम्र में लंबी बीमारी के बाद 25 नवंबर 2014 को सितारा देवी ने जसलोक अस्तपाल, मुंबई में आखिरी सांसें लीं। हिंदी सिनेमा का कथक से परिचय करवाने वाली सितारा देवी भले ही आज इस दुनिया में न हों, लेकिन उनका योगदान हमेशा सराहनीय रहेगा।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."