अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट
बीते कुछ सालों में भारत में डिजिटल मीडिया के ज़रिए समाचारों के प्रकाशन में बहुत इज़ाफ़ा हुआ है। इन माध्यमों के ज़रिए न्यूज़ देने वाले संस्थानों की संख्या भी काफ़ी बढ़ी है।
भारत में डिजिटल यानी ऑनलाइन न्यूज़ मीडिया के लिए कोई नियामक संस्था नहीं है। लेकिन ऐसी ख़बरें हैं कि जल्द ही सरकार डिजिटल मीडिया को रेगुलेट करने के लिए क़ानून बनाने जा रही है।
केंद्र सरकार ने इसी मुद्दे पर एक नया विधेयक तैयार किया है। ऐसा कहा जा रहा है कि ये विधेयक इस समय जारी संसद के मानसून सत्र में पेश किया जा सकता है।
सरकार साल 2019 में ही ‘प्रेस और पत्रिका के पंजीकरण विधेयक, 2019’ को नया स्वरूप दे चुकी है। अब जिस विधेयक को लाने की तैयारी है, उसके दायरे में पहली बार डिजिटल समाचार मीडिया इंडस्ट्री को शामिल करने की तैयारी है।
हालांकि, इस विधेयक का कोई मसौदा सामने नहीं है, लेकिन आ रही ख़बरों से पता चला है कि अब सभी डिजिटल मीडिया पोर्टल और वेबसाइट को अपना पंजीकरण करवाना होगा।
बताया जा रहा है कि ये नया अधिनियम 155 साल से लागू ‘प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम, 1867’ की जगह लेगा।
यह क़ानून 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश इंडिया में लागू किया गया था।
उस वक़्त इस क़ानून को प्रेस के माध्यम से, विद्रोह के दौरान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए लाया गया था।
लेकिन तमाम परिवर्तनों के बावजूद अब तक 155 साल पुराने क़ानून में किसी ने संशोधन करने की ज़रूरत महसूस नहीं की थी। अब मौजूदा सरकार ने इस नए विधेयक को तैयार किया है जिसके पारित होने पर 1867 वाले क़ानून का अंत हो जाएगा।
लेकिन कई लोगों का तर्क है कि केंद्र सरकार डिजिटल न्यूज़ मीडिया को ‘नियंत्रित’ करने का प्रयास कर रही है।
कुछ विश्लेषक कहते हैं कि मोदी सरकार असहमति की आवाज़ दबाने की कोशिश कर रही है।
पत्रकार और एमनेस्टी इंटरनेशनल मानवाधिकार संस्था के आकार पटेल ने अपने एक लेख में इस विधेयक को प्रेस की आज़ादी के लिए ख़तरा बताया है।
आकार पटेल ने लिखा, “ये भारत के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं हैं। सरकार बेहद शक्तिशाली है और प्रधानमंत्री बहुत लोकप्रिय हैं। विपक्ष फ़िलहाल अपने पैर जमाने का प्रयास कर रहा है।”
मशहूर लेखक और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रो वाइस चांसलर सुधीश पचौरी कहते हैं, “ऐसा तो नहीं है कि इस वक़्त डिजिटल मीडिया पर हमले नहीं होते। कोई मामला हुआ तो पुलिस जाती है, मीडिया वाले को गिरफ़्तार कर लेती है। अब तक तो ऐसे मामलों को आईटी क़ानून के तहत दर्ज किया जा रहा है। लेकिन ये किसी सीधे क़ानून के अभाव के कारण ही था। डिजिटल मीडिया के लिए अलग से एक नया क़ानून तो आना ही था।”
उनके मुताबिक़ ऐसा क़ानून आज नहीं तो कल, कोई न कोई सरकार हो लाएगी ही।
सुधीश पचौरी कहते हैं कि तानाशाही का ख़तरा ‘सिर्फ़ सरकार की तरफ़ से ही नहीं है, अब तो विभिन्न गुटों की तरफ़ से भी उतनी ही तानाशाहियां हैं।”
लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं कि इस विधेयक में बोलने की आज़ादी पर अंकुश लगाने जैसी कोई बात नहीं है।
प्रसार भारती के पूर्व चेयरमैन सूर्य प्रकाश इस तर्क को बेबुनियाद मानते हैं। वे कहते हैं, “मैंने इस पर मीडिया रिपोर्ट्स देखी हैं, मुझे वहां ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है जो मेरी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों को कम कर देगा।”
सूर्य प्रकाश का कहना है कि ज़माने के हिसाब से पुराने क़ानूनों को बदलना सराहनीय काम है।
उन्होंने बताया, “प्रस्तावित विधेयक मीडिया को आधुनिक युग में लाने के लिए है। मैंने हाल ही में रॉयटर्स की एक रिपोर्ट देखी जिसमें कहा गया है कि 63 प्रतिशत भारतीय युवा डिजिटल मीडिया पर ही न्यूज़ देखते, सुनते या पढ़ते हैं। इसलिए मेरा मानना है कि क़ानून में बदलाव के साथ-साथ, समय के साथ तकनीक में भी तालमेल बिठाया जाना चाहिए।”
Author: samachar
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