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November 1, 2024 8:10 pm

वो बातें वो यादें जो भुलाए नहीं भूलते ; विस्थापित कश्मीरी पंडित का ताजा-तरीन दर्द

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रजिया नूर की रिपोर्ट

श्रीनगर,  59 वर्षीय श्यामलाल चरंगू ने श्रीनगर में स्थित प्रसिद्ध डल झील के किनारे जब्रवान पार्क में लगे स्टाल पर नवरेह थाल सजा देखा तो वह अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाए और नम आंखों व रुंधे गले से अपनी पत्नी सरला को थाल की तरफ इशारा करते हुए पूछा, ‘कुछ याद आया तुम्हें…। हम इसी तरह नवरेह पर अपना थाल सजाते थे और उस थाल में चावल, रोटी, अखरोट, पैसे, कलम और कागज रखकर नौ दिनों तक उसकी पूजा कर अपने नए साल का स्वागत करते थे।’यह सुनकर सरला भी भावुक हो गईं और अपने पति से कहा, मैं कैसे भूल सकती हूं।

श्यामलाल और सरला की तरह वहां मौजूद कश्मीर से 1990 में विस्थापित हो चुके कुछ और कश्मीरी पंडित भी इसी तरह भावुक दिखे। ये लोग स्टाल पर पड़ी एक-एक चीज को छूकर जैसे कुछ महसूस करने की कोशिश कर रहे थे। यह भावुक पल शुक्रवार को वोमेध नामक एक गैर सरकारी संस्था की ओर से नवरेह के उपलक्ष्य में आयोजित नवरेह महोत्सव में दिखा। 32 वर्षों में यह पहली बार है जब नवरेह के अवसर पर कश्मीर में सार्वजनिक रूप से कोई कार्यक्रम आयोजित किया गया है। कश्मीरी हिंदू कैलेंडर के मुताबिक नवरेह नववर्ष का पहला दिन होता है। कश्मीरी पंडित इसको धार्मिक श्रद्धा के साथ मनाते हैं।

समारोह में लगाए गए विभिन्न स्टाल में कश्मीरी पंडितों द्वारा पहनने जाने वाले कपड़ों, गहनों, बर्तनों, खानपन से संबंधित कई वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया था। इस दौरान पेश किए गए विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी कश्मीरी हिंदुओं की जीवन शैली को दर्शाने की कोशिश की गई थी।

मुस्लिम भाइयों को खाने पर बुलाते थे : 1990 में कश्मीर से विस्थापित हो चुके श्यामलाल चरंगू ने कहा, मैं श्रीनगर के छत्ताबल में रहता था। अब दिल्ली में अपने परिवार के साथ रहता हूं। यहां आकर मैं अपने अतीत के पन्ने पलटने पर मजबूर हो गया। नवरेह पर हम एक थाल में नौ मुट्ठी चावल, नौ रोटियां, नौ अखरोट व नौ रुपये नौ दिन रखकर उसकी पूजा करते थे और 10वें दिन थाल में रखी उन चीजों को अपने परिवार में बांट देते थे। इस बीच, नौ दिन तक मास मछली नहीं खाते थे और दसवें दिन घर पर कई व्यंजन तैयार कर मुसलमान भाइयों को खाने पर बुलाते थे।

यहां आकर अहसास हुआ हमने कितना कुछ खो दिया था : कश्मीरी पंडित 31 वर्षीय हिमांशु कुमार चरंगु ने कहा, मैं अपने स्वजन सहित देहरादून में रहता हूं। मेरे माता पिता श्रीनगर के चिंक्राल मोहल्ले में रहते थे। मेरे माता-पिता की शादी को कुछ ही दिन हुए थे, जब उन्हें कश्मीर से विस्थापित होना पड़ा था। लिहाजा मुझे अपनी संस्कृति के बोर में ज्यादा जानकारी नहीं थी, यहां आकर मुझे अंदाजा हुआ कि हमने कितना कुछ खो दिया था।

62 वर्षीय तोशा रैना ने कहा, मैं बारामुला के चुक्कर इलाके से हूं और विस्थापित होने के बाद से दिल्ली में रह रही हूं। मेरा बेटा शिक्षक है और कुलगाम में तैनात है। उससे मिलने आई थी। मुझे पता चला था कि यहां यह समारोह होने जा रहा है, तब से बेसब्री से इसका इंतजार कर रही थी। यहां आकर मैं 32 साल पहले के दौर में पहुंच गई।

जम्मू से श्रीनगर पहुंचे मनोज कौल ने कहा कि हम यहां से जनवरी 1990 में निकले थे। उसके बाद मैं कई बार कश्मीर आया, लेकिन नवरेह कभी यहां नहीं मनाया। शनिवार को मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ मां शारिका के मंदिर में जाकर पूजा करूंगा।

घर वापसी की राह खुलेगी : गैर सरकारी संगठन वोमेध के व्यवस्थापक रोहित ने कहा, इस समारोह का मकसद हमारे युवा वर्ग को कश्मीरी पंडितों की परंपरा से अगत कराना था। हमें उम्मीद है कि इस तरह के कार्यक्रमों से कश्मीरी पंडि़तों की घर वापसी की राह खुलेगी। 

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."