Explore

Search
Close this search box.

Search

21 March 2025 6:55 am

महाकुम्भ ; उदास कर गया लेकिन आशाएं भी बहुत बहुत दे गया…

100 पाठकों ने अब तक पढा

अनिल अनूप

भारत एक ऐसा देश है, जहां आशा और निराशा सदियों से एक-दूसरे के समांतर चलती आ रही हैं। यह विरोधाभास ही हमारे समाज का मूल आधार बन गया है। आश्चर्यजनक रूप से, निराशा के गर्त में समाने के बावजूद कई लोग सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंच जाते हैं, जबकि आशा के सहारे चलने वाले अक्सर अपने लक्ष्य से दूर ही रह जाते हैं। दरअसल, सफलता और निराशा के बीच का गहरा संबंध ही हमारी सामाजिक संरचना को परिभाषित करता है।

निराशा और आशा के बीच बंटती संपत्तियां

समाज में संपत्तियों का बंटवारा भी आशा और निराशा के आधार पर होता है। जिन्हें अधिक मिला, वे निराश रहते हैं—क्योंकि अधिक पाने की लालसा कभी खत्म नहीं होती। वहीं, जिनके पास कुछ नहीं है, वे हमेशा सरकारों, योजनाओं और वादों से आशा बांधकर चलते हैं। शाश्वत आशा न तो भगवान से मिल सकती है, न भाग्य से, और न ही लोकतंत्र से, लेकिन हर चुनाव—चाहे पंचायत का हो, विधानसभा का हो या संसद का—इस आशा को फिर से जीवंत कर देता है।

अब तो स्थिति यह हो गई है कि आशा सरकारों से नहीं, बल्कि दलबदलुओं से जुड़ गई है। लोग यह मानने लगे हैं कि कोई भी राजनीतिक दल स्थायी रूप से समाधान नहीं दे सकता, लेकिन दल-बदलू नेता शायद कुछ उम्मीदें पूरी कर दें।

निजी बनाम सरकारी क्षेत्र: निराशा में सफलता का रहस्य

अगर कोई यह समझना चाहता है कि आशा और निराशा की असली प्रतिस्पर्धा क्या है, तो उसे सरकारी और निजी क्षेत्र की तुलना करनी चाहिए। सरकारी व्यवस्था में घूमकर देखिए—बिना रिश्वत के निराशा ही हाथ लगेगी। वहीं, निजी क्षेत्र में सफलता का राज ही निराशा है। जो जितना निराश होता है, उतना ही अमीर बनता है। यही कारण है कि बड़े-बड़े व्यापारिक घराने हमेशा “निराशा के मूड” में दिखते हैं—अत्यधिक धन-दौलत होने के बावजूद वे शिकायत करते हैं, घाटे का रोना रोते हैं, और इसी निराशा को आगे बढ़ाकर खुद को और समृद्ध करते हैं।

देश के कर्मचारी: महंगाई में आशा की खोज

भारत का असली आशावाद कर्मचारियों के कंधों पर टिका हुआ है। महंगाई, बैंक लोन की किस्तें, और परिवार की जिम्मेदारियों के बीच जो आशा बनाए रखे, वही असली रीढ़ का हड्डी वाला कर्मचारी कहलाता है। आशा अब घरों में नहीं, बल्कि विदेशों में दिखने लगी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी आशा इतनी व्यापक हो चुकी है कि लोग अमेरिकी चुनावों में ट्रंप की जीत में भी अपनी उम्मीदें देखने लगते हैं। हमें विश्वास है कि ट्रंप हमारे बारे में सोचेगा, चीन हम पर ध्यान देगा, और विश्व मंच पर हमारी उपस्थिति मजबूत होगी।

आशा और निराशा: भैंस का दर्शन और भारतीय मनोविज्ञान

अगर आशा और निराशा की तुलना करनी हो, तो भैंस से बेहतर उदाहरण कोई नहीं। भैंस कभी आशा के साथ पानी में नहीं उतरती, बल्कि निराशा उसे वहां बार-बार ले जाती है। सदियों से वह समझ नहीं पाई कि पानी में घुसना आसान है या बाहर निकलना। यही उलझन भारतीय समाज की भी है—हम समझ नहीं पा रहे कि बड़ी ताकत हमारे पास है या पश्चिमी देशों के पास।

लोग इस ऊहापोह में कभी उद्योगपतियों की ओर देखते हैं, कभी अमेरिका की चुनावी राजनीति से प्रेरणा लेने की कोशिश करते हैं। लेकिन सच यह है कि आशा और निराशा दोनों सगी बहनें हैं—निराशा बड़ी और आशा छोटी। इनकी एक जैसी सूरत के कारण हम निराशा में आशा को पुकारते हैं और आशा में निराशा को निहारते हैं।

महाकुंभ: आशा का प्रतीक

भारत का आशावाद दुनिया के लिए हमेशा एक रहस्य बना रहेगा। अगर कोई इस जटिल आशा को समझना चाहता है, तो महाकुंभ से बेहतर उदाहरण कोई नहीं। 144 साल बाद प्रयागराज में महाकुंभ आया, लेकिन इस दौरान निराशा हमेशा हारती रही।

हम एक सदी तक किसी निराशा में डूबे रह सकते हैं, लेकिन हमारी आशा यह होगी कि महाकुंभ फिर हमारी ही धरती पर होगा। यही हमारी मानसिकता की बुनियाद है—हम पाप धोने के लिए भी आशा रखते हैं, हम अगले चुनाव में बदलाव की उम्मीद में जीते हैं, और हम हर निराशा के बाद एक नई आशा का जन्म देखना चाहते हैं।

निष्कर्ष: निराशा की कोख से जन्मी आशा

भारतीय समाज में आशा और निराशा की यह प्रतिस्पर्धा कभी खत्म नहीं होगी। निराशा हमारी जड़ों में है, लेकिन आशा हमें आगे बढ़ाती है। यह द्वंद्व ही हमें जीवंत बनाए रखता है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि निराशा के बिना आशा अधूरी है और आशा के बिना निराशा का कोई अस्तित्व नहीं। यही भारत की आत्मा है—हर निराशा के बाद आशा का नया सूरज उगता है।

▶️ऐसे ही विचारोत्तेजक आलेखों के लिए हमारे साथ बने रहें समाचार दर्पण24.कॉम

Newsroom
Author: Newsroom

Leave a comment