Explore

Search
Close this search box.

Search

18 January 2025 10:37 am

लेटेस्ट न्यूज़

बदलते समाज में ‘बाईजी के नाच’ का चलन : शोक में उल्लास या संस्कृति का पतन?

148 पाठकों ने अब तक पढा

अनिल अनूप

समाज में समय के साथ परिवर्तन स्वाभाविक है। लोक परंपराएं भी समय के प्रवाह के साथ बदलती हैं, लेकिन कुछ बदलावों का स्वरूप इतना अप्रत्याशित होता है कि वे संस्कृति और मूल्यों के संतुलन को चुनौती देते हैं। बिहार और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में हाल के वर्षों में ‘बाईजी के नाच’ का चलन मृत्यु के अवसरों पर तेजी से बढ़ा है। इस परंपरा ने शोक और उत्सव के बीच की महीन रेखा को धुंधला कर दिया है।

मृत्यु पर नृत्य: परंपरा या प्रचलन?

बिहार के विभिन्न जिलों जैसे भोजपुर, रोहतास, औरंगाबाद आदि में शोक की स्थिति में डांस प्रोग्राम आयोजित करना अब आम होता जा रहा है। पहले जहाँ शवयात्रा बैंड-बाजे के साथ निकलती थी, वहीं अब इसे नृत्य और गानों से जोड़ा जा रहा है। यह चलन पारंपरिक लोक संस्कृति से अलग एक नए रूप में उभरकर सामने आया है।

24 वर्षीय रिया, जो पेशेवर डांसर हैं, बताती हैं कि शादियों और अन्य उत्सवों के साथ-साथ अब श्राद्ध और शवयात्राओं में भी उन्हें नाचने के लिए बुलाया जाता है। यह उनके लिए महज रोज़गार का एक साधन है, लेकिन वे यह भी स्वीकार करती हैं कि इन कार्यक्रमों में अक्सर अश्लीलता और छेड़छाड़ जैसी समस्याएं होती हैं। उनके अनुसार, “मरनी हो या शादी, लोग हमें एक जैसे नाचने को कहते हैं। हमें डिमांड के मुताबिक कपड़े पहनने और लोगों की इच्छाओं का पालन करना पड़ता है।”

परंपराओं का बदलता स्वरूप

पारंपरिक दृष्टिकोण से देखें तो भारतीय समाज में मृत्यु के अवसर पर शोकगीतों और रुदन गीतों की परंपरा रही है। राम नारायण तिवारी, जो एक साहित्यिक विद्वान हैं, बताते हैं कि “मृत्यु गीतों में करुणा और ग्लानि का भाव होता था। लेकिन वर्तमान में गाने और नृत्य में अश्लीलता और विलासिता का प्रदर्शन स्पष्ट दिखता है।”

पारंपरिक विधि-विधान जहाँ मृत्यु के प्रति सम्मान और शोक की भावना को व्यक्त करते थे, वहीं अब ‘बाईजी के नाच’ के माध्यम से जातीय और सामाजिक ताकत का प्रदर्शन किया जाने लगा है। पल्लवी बिस्वास, जो एक संगीत विशेषज्ञ हैं, मानती हैं कि यह बदलाव भारतीय समाज की सहयोग और सामूहिकता की परंपरा के क्षरण का प्रतीक है।

सांस्कृतिक बदलाव के पीछे के कारण

समाजशास्त्रियों के अनुसार, इस चलन के पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारण हो सकते हैं। प्रोफेसर पुष्पेंद्र का मानना है कि “राजनीतिक और सामाजिक ताकत का प्रदर्शन, जिसका प्रतीक पहले सरकारी सम्मान समारोहों में फायरिंग हुआ करता था, अब आम समाज में नकल के रूप में देखने को मिलता है।”

इसके अलावा, भोजपुर क्षेत्र में लोकप्रिय दुगोला गायन, जो धार्मिक और सामाजिक प्रश्नों पर आधारित होता था, अब अश्लील गानों और नृत्य में बदल चुका है। जातीय आधार पर गाने और नाच की पसंद-नापसंद तय की जा रही है, जो समाज के भीतर गहरी विभाजन रेखा को उजागर करता है।

डांस और फायरिंग: शक्ति प्रदर्शन का प्रतीक

डांस कार्यक्रमों के दौरान फायरिंग करना अब मानो शक्ति प्रदर्शन का एक हिस्सा बन गया है। नालंदा जिले की घटना में 17 वर्षीय युवक की मौत इसका एक दुखद उदाहरण है, जहाँ श्राद्ध कार्यक्रम में गोली चलने के दौरान उसे सिर में गोली लग गई। कोमल जैसी डांसर, जो पेशेवर खतरों को झेलती हैं, मानती हैं कि “अगर फायरिंग न हो तो डांस अधूरा लगता है।”

यह सोच समाज में बढ़ते हिंसक प्रवृत्ति और मनोरंजन के नाम पर संवेदनहीनता को दर्शाती है।

समाज पर पड़ने वाले प्रभाव

सामाजिक विशेषज्ञ इस प्रवृत्ति को समाज के लिए चिंताजनक मानते हैं। प्रोफेसर पुष्पेंद्र के अनुसार, “मृत्यु और जीवन के बीच के अंतर को मिटाने से शोक, पश्चाताप, और संयम जैसे मानवीय मूल्यों का ह्रास होता है। इससे समाज अधिक हिंसक और असंवेदनशील बन सकता है।”

इस प्रकार, यह चलन केवल सांस्कृतिक पतन का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह समाज में नैतिक और भावनात्मक संतुलन को भी प्रभावित कर रहा है।

नए चलन के पीछे आर्थिक कारण

डांसर्स के लिए यह रोज़गार का एक माध्यम है। कोमल जैसी डांसर कहती हैं कि शादी हो या श्राद्ध, हर मौके पर उन्हें एक जैसे नाचने को कहा जाता है। अगर कमीशन लेने वाला न हो, तो एक रात का छह हजार रुपये तक मिल जाता है।

लेकिन यह आर्थिक लाभ समाज में नई असंवेदनशीलता और वर्ग विभाजन को जन्म दे रहा है, जहाँ पैसे और दबाव के चलते लोग अपनी परंपराओं से दूर जा रहे हैं।

संवेदनशीलता के पुनर्स्थापना की जरूरत

जन्म और मृत्यु, जीवन के दो सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव हैं, और इनसे जुड़ी परंपराओं में संतुलन और सम्मान होना चाहिए। इस नए चलन ने शोक और उल्लास के बीच की सीमाओं को धुंधला कर दिया है।

समाज के बुद्धिजीवियों और सांस्कृतिक संस्थानों को इस प्रवृत्ति पर ध्यान देने और इसके नकारात्मक प्रभावों को रोकने के लिए सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता है। मृत्यु जैसे गहरे भावनात्मक अवसरों को केवल शक्ति प्रदर्शन और मनोरंजन का माध्यम बनाना हमारी संस्कृति और संवेदनशीलता दोनों के लिए हानिकारक है।

इसलिए, समय आ गया है कि हम अपने समाज में इन बदलते चलनों पर विचार करें और उन्हें सकारात्मक दिशा में ले जाने का प्रयास करें।

Leave a comment

लेटेस्ट न्यूज़