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December 12, 2024 10:54 pm

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‘पुनर्मूषको भव:’ के भाव से न कांग्रेस दूर हट पाती है, ना राहुल…हरियाणा चुनाव के मद्देनजर, एक विश्लेषण

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मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट

हरियाणा विधानसभा चुनावों के परिणाम ने एक बार फिर कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को उसी स्थिति में ला खड़ा किया है, जहां वे 2014 से जमे हुए हैं। कांग्रेस की राजनीति में यह चक्र लगातार दोहराता हुआ प्रतीत होता है। बीच-बीच में कुछ उम्मीद की किरणें जरूर दिखाई देती हैं, लेकिन कांग्रेस और राहुल एक ठोस दिशा में जाने के बजाय वही पुरानी असफलताओं की ओर लौट आते हैं। हरियाणा में हालिया विधानसभा चुनाव परिणामों को कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए एक झटके के रूप में देखा जा सकता है, जो उनके भविष्य के राजनीतिक मार्ग को चुनौतीपूर्ण बनाता है।

दलित मतदाताओं का सवाल

लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में दलित मतदाताओं को बीजेपी के खिलाफ लामबंद करने की कोशिश की थी, और यह माना गया कि कांग्रेस इस मोर्चे पर कुछ हद तक सफल रही। राहुल गांधी ने भी इस नैरेटिव को बल दिया कि बीजेपी का साथ दलितों के लिए घाटे का सौदा है। लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनावों के परिणामों ने इस नैरेटिव को ध्वस्त कर दिया। दलित मतदाताओं ने हरियाणा में बीजेपी का साथ न केवल दिया, बल्कि जाट-मुस्लिम समीकरण को भी किनारे कर दिया, जिससे स्पष्ट हुआ कि दलितों के समर्थन को बनाए रखना कांग्रेस के लिए कितना मुश्किल है।

यहां यह प्रश्न उठता है कि कांग्रेस को इस परिणाम से क्यों चिंता होनी चाहिए? हरियाणा जैसे राज्य में दलित मतदाता महत्वपूर्ण हैं, और उनकी ओर से निरंतर समर्थन न मिलना कांग्रेस की दलित राजनीति को कमजोर कर सकता है। वहीं, बीजेपी को इस बात का अहसास है कि दलित मतदाता किसी भी चुनाव का परिणाम पलट सकते हैं, जिससे वह आश्वस्त होकर आगे की रणनीति बना सकती है।

कांग्रेस की हार के कारण

हरियाणा चुनाव में कांग्रेस की हार का एक प्रमुख कारण यह था कि चुनाव से पहले उसके लिए परिस्थितियां अनुकूल थीं। मनोहर लाल खट्टर को हटाकर नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाना बीजेपी की मजबूरी को दर्शाता है। बीजेपी ने लोकसभा चुनाव से पहले यह बदलाव किया था, लेकिन कांग्रेस इस मौके का फायदा उठाने में असफल रही। पार्टी के लिए यह समय था कि वह सत्ता-विरोधी लहर को भुनाकर हरियाणा में अपनी पकड़ मजबूत करती। लेकिन राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी इस नाराजगी को वोटों में बदलने में विफल रही।

कांग्रेस की यह नाकामयाबी कई पहलुओं से जुड़ी है। हरियाणा में जाट, किसान, और पहलवान समुदायों के बीच बीजेपी के खिलाफ नाराजगी का माहौल बताया जा रहा था, लेकिन चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया कि यह नाराजगी वास्तविक नहीं थी या कांग्रेस इसे प्रभावी ढंग से भुना नहीं पाई। इस स्थिति में कांग्रेस की रणनीति सवालों के घेरे में आ जाती है। यह उस खिलाड़ी के समान है, जो फाइनल में पहुँचने के बाद स्वर्ण पदक के लिए मैदान में उतरने से पहले ही हार मान लेता है।

कांग्रेस की राजनीतिक चुनौती

हरियाणा में कांग्रेस को एक और झटका तब लगा, जब उसने लगातार तीसरी बार बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत रणनीति नहीं बनाई। हरियाणा के राजनीतिक इतिहास में यह देखा गया है कि प्रदेश की जनता ने कभी किसी पार्टी को लगातार तीसरी बार सत्ता में नहीं लौटाया। कांग्रेस के पास यह मौका था कि वह इस परंपरा का फायदा उठाकर सत्ता-विरोधी भावना को अपने पक्ष में कर ले, लेकिन वह ऐसा करने में पूरी तरह विफल रही। इससे बीजेपी को हरियाणा में नया इतिहास रचने का अवसर मिला और उसने लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी की।

कांग्रेस की यह हार सिर्फ एक चुनावी हार नहीं है, बल्कि यह पार्टी की रणनीतिक असफलताओं और जमीनी स्तर पर पकड़ कमजोर होने का परिणाम है। राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने लाजिमी हैं, क्योंकि कांग्रेस को हरियाणा में बीजेपी की सत्ता-विरोधी लहर का फायदा उठाना चाहिए था। लेकिन पार्टी ने ऐसा कोई ठोस कदम नहीं उठाया, जो मतदाताओं को उसके पक्ष में कर सके।

हरियाणा विधानसभा चुनावों के परिणामों का विश्लेषण करते समय कुछ और महत्वपूर्ण बिंदुओं पर भी ध्यान दिया जा सकता है, जो कांग्रेस की हार और बीजेपी की जीत की गहराई को समझने में मदद कर सकते हैं:

बीजेपी की रणनीति

मिशन 2024 के तहत बीजेपी ने हरियाणा में अपने चुनावी प्रचार में स्थानीय मुद्दों को उठाने के बजाय देशभर में चल रहे बड़े मुद्दों को भुनाने का प्रयास किया, जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, विकास और एकता। यह रणनीति कार्यकर्ताओं के बीच एकता और उत्साह बनाए रखने में सफल रही।

दलित कार्ड पर बीजेपी ने नायब सिंह सैनी जैसे नेताओं को आगे करके दलितों के साथ संवाद को बढ़ावा दिया। यह एक चालाक रणनीति थी, जिसने दलितों के बीच बीजेपी की छवि को मजबूत किया।

कांग्रेस की असफलता

कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व की कमजोरी और संगठनात्मक ढांचे में कमी के कारण पार्टी को मतदाताओं से जुड़ने में कठिनाई हुई। चुनावी प्रचार में कुछ ही स्थानीय नेता सक्रिय रहे, जिससे पार्टी का संदेश प्रभावी ढंग से नहीं पहुँच सका।

वोट बैंक की लहर 

कांग्रेस ने अपनी पहचान बनाने में चूक की और उन मुद्दों को उठाने में असफल रही जो मतदाताओं के लिए प्राथमिकता में थे। जैसे किसानों की स्थिति, बेरोजगारी और महंगाई पर प्रभावी नीतियों का अभाव था।

सोशल मीडिया का प्रभाव 

बीजेपी ने सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्मों का बेहतर उपयोग किया, जबकि कांग्रेस इस मोर्चे पर पीछे रह गई। नफरत भरे संदेशों और फेक न्यूज़ के बावजूद बीजेपी ने अपने काम को प्रमोट करने में सफलता पाई।

चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस की प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाने के बावजूद, यह संदेश मतदाताओं तक नहीं पहुँच सका कि पार्टी सत्ता में क्यों नहीं आई।

आंतरिक बिखराव 

हरियाणा में जाट, दलित, और अन्य जातियों के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा और खींचतान ने कांग्रेस को मतदाताओं को एकजुट करने में मुश्किलें पेश कीं। बीजेपी ने इस बिखराव का फायदा उठाकर अपने समर्थन को बढ़ाया।

पार्टी में सुधार

कांग्रेस को अब अपने संगठनात्मक ढांचे में सुधार लाने और युवा नेतृत्व को अवसर देने की आवश्यकता है। पार्टी को यह समझने की जरूरत है कि 21वीं सदी के मतदाताओं की अपेक्षाएं बदल गई हैं, और उसे अपने रणनीतिक दृष्टिकोण को इसके अनुसार ढालना होगा।

जनता से संवाद 

कांग्रेस को समाज के विभिन्न वर्गों से संवाद स्थापित करने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि वह जनता के मुद्दों को समझ सके और उन पर काम कर सके।

राजनीतिक समीकरण

हरियाणा के चुनाव परिणामों का अन्य राज्यों पर भी असर हो सकता है। अगर बीजेपी यहां सफल हो रही है, तो यह संकेत देता है कि अन्य राज्यों में भी उसकी स्थिति मजबूत हो रही है। कांग्रेस को अपनी रणनीति में व्यापक बदलाव लाने की आवश्यकता है, अन्यथा उसे अन्य राज्यों में भी ऐसे ही परिणामों का सामना करना पड़ सकता है।

इन बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए, कांग्रेस को अपनी राजनीतिक स्थिति को पुनः स्थापित करने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि वह आने वाले चुनावों में प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा कर सके।

कार्यकारी संपादक, समाचार दर्पण 24
Author: कार्यकारी संपादक, समाचार दर्पण 24

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