अनिल अनूप
वेश्याओं के आंगन की मिट्टी से माँ दुर्गा की मूर्ति का निर्माण एक पुरानी और गहरी सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है, जिसका संबंध सामाजिक समावेशिता, पवित्रता और आध्यात्मिक विश्वासों से है। यह परंपरा विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के कुम्हारटोली (Kumartuli) और अन्य स्थानों में प्रचलित है, जहाँ माँ दुर्गा की मूर्तियों का निर्माण होता है। आइए इस परंपरा को विस्तार से समझते हैं:
परंपरा का मूल
माँ दुर्गा की मूर्ति निर्माण में वेश्याओं के आंगन की मिट्टी का उपयोग करने की परंपरा का संबंध धार्मिक और सांस्कृतिक विश्वासों से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि देवी दुर्गा नारी शक्ति का प्रतीक हैं, और उनका रूप हर स्त्री में विद्यमान है, चाहे वह किसी भी समाजिक वर्ग की क्यों न हो। वेश्याओं का समाज में स्थान भले ही सामाजिक रूप से निम्न माना गया हो, लेकिन उनकी भूमि से ली गई मिट्टी से मूर्ति बनाने का आशय यह है कि समाज के हाशिए पर मौजूद लोगों का भी इस अनुष्ठान में हिस्सा होता है।
आध्यात्मिक और धार्मिक महत्व
पारंपरिक रूप से यह विश्वास किया जाता है कि माँ दुर्गा हर प्राणी की माँ हैं, और उनके आशीर्वाद से कोई भी व्यक्ति पवित्र हो सकता है। वेश्याओं का आंगन, जो सामाजिक दृष्टिकोण से पवित्र नहीं माना जाता, जब माँ दुर्गा की मूर्ति निर्माण के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो वह भूमि भी पवित्र हो जाती है। यह इस बात का प्रतीक है कि देवी दुर्गा सभी को समान रूप से स्वीकार करती हैं और उनका आशीर्वाद किसी विशेष जाति, वर्ग या पेशे तक सीमित नहीं है।
मिट्टी संग्रह करने की प्रक्रिया
मूर्ति निर्माण के दौरान कुम्हार सबसे पहले गंगा नदी की मिट्टी, घास, गाय के गोबर, और वेश्याओं के आंगन की मिट्टी को एक साथ मिलाकर उस मिश्रण से मूर्ति बनाते हैं। यह प्रक्रिया यह दिखाती है कि वेश्याओं के आंगन की मिट्टी को भी उतनी ही महत्ता दी जाती है जितनी अन्य सामग्री को। कुछ स्थानों पर इस प्रक्रिया को अनिवार्य रूप से देखा जाता है, और माना जाता है कि बिना इस मिट्टी के माँ दुर्गा की मूर्ति का निर्माण अधूरा रहेगा।
समाज में संदेश
इस परंपरा के पीछे एक गहरा सामाजिक संदेश भी है। यह समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को पुनर्स्थापित करने और उन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल करने का एक प्रयास माना जाता है। वेश्याओं के जीवन को कई बार समाज में तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है, परंतु इस परंपरा के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि हर इंसान की अपनी पवित्रता होती है और उसे भी देवी माँ की पूजा का हिस्सा बनने का अधिकार है।
वर्तमान समय में परंपरा की स्थिति
समय के साथ इस परंपरा में कुछ बदलाव आए हैं, और कई लोग इसे सिर्फ एक सांकेतिक प्रक्रिया मानते हैं। फिर भी, वेश्याओं के आंगन की मिट्टी से मूर्ति बनाने की परंपरा आज भी जीवित है और दुर्गा पूजा के दौरान इसका महत्व बरकरार है।
वेश्याओं के आंगन की मिट्टी से माँ दुर्गा की मूर्ति बनाने की परंपरा हमें यह सिखाती है कि आध्यात्मिकता और पवित्रता केवल बाहरी शुद्धता पर आधारित नहीं होती। यह परंपरा समाज के हाशिए पर खड़े लोगों को मुख्यधारा में शामिल करने, समावेशिता का संदेश देने और देवी दुर्गा की सार्वभौमिकता को दर्शाने का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है।
माँ दुर्गा की मूर्ति निर्माण में वेश्याओं के आंगन की मिट्टी का उपयोग एक प्राचीन और गहन सांस्कृतिक परंपरा है, जिसके कई आयाम और गहरे धार्मिक, सामाजिक, और प्रतीकात्मक अर्थ होते हैं। इसे और विस्तार से समझने के लिए हमें इसके विभिन्न पहलुओं पर और अधिक ध्यान देना होगा:
सांस्कृतिक प्रतीकात्मकता
वेश्याओं के आंगन की मिट्टी का उपयोग करने की परंपरा प्रतीकात्मक रूप से यह दर्शाती है कि देवी दुर्गा, जो शक्ति और नारीत्व की प्रतीक हैं, हर स्त्री का सम्मान करती हैं, चाहे उसका सामाजिक स्थान या पेशा कुछ भी हो। वेश्यावृत्ति को समाज में आमतौर पर नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता है, लेकिन इस परंपरा के माध्यम से यह दर्शाया जाता है कि पवित्रता और सम्मान केवल किसी पेशे या समाजिक स्थिति से निर्धारित नहीं होते। देवी माँ के सामने हर व्यक्ति समान है, और इस मिट्टी का उपयोग उन सभी महिलाओं को सम्मानित करने का प्रतीक है जिन्हें समाज हाशिए पर रखता है।
वेश्यावृत्ति और समाज
वेश्यावृत्ति एक ऐसा पेशा है जिसे समाज में हमेशा ही बदनाम किया गया है। इसके बावजूद, यह परंपरा यह बताती है कि समाज के हाशिए पर खड़ी इन महिलाओं को भी देवी पूजा के अनुष्ठान में शामिल किया जा सकता है। यह सामाजिक समावेशिता का एक शक्तिशाली संदेश है, जो यह बताता है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह किसी भी सामाजिक पृष्ठभूमि से आता हो, देवी की पूजा में भाग ले सकता है।
आध्यात्मिक शुद्धता
हिंदू धर्म में, देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण केवल पवित्र सामग्री से ही किया जाता है, और इसीलिए वेश्याओं के आंगन की मिट्टी का उपयोग करने की परंपरा विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यह इस विश्वास पर आधारित है कि माँ दुर्गा की शक्ति और उनकी उपस्थिति किसी भी अपवित्रता को शुद्ध कर सकती है। इस प्रकार, वेश्याओं के आंगन की मिट्टी को भी पवित्र माना जाता है क्योंकि वह माँ दुर्गा की मूर्ति का हिस्सा बनती है।
समाज में पुनर्वास का संदेश
यह परंपरा इस बात की भी याद दिलाती है कि समाज को हाशिए पर खड़े लोगों को स्वीकार करना चाहिए और उनके पुनर्वास के लिए प्रयास करना चाहिए। वेश्याओं के आंगन की मिट्टी को माँ दुर्गा की मूर्ति निर्माण के लिए चुनकर समाज को यह संदेश दिया जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने सामाजिक या आर्थिक हालातों से परे जा सकता है और देवी माँ की कृपा से पुनः सम्मान प्राप्त कर सकता है।
वर्तमान समय में प्रासंगिकता
इस परंपरा का धार्मिक और सामाजिक महत्व आज भी कायम है, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में, जहाँ दुर्गा पूजा बड़े पैमाने पर मनाई जाती है। हालाँकि, आधुनिकता और शहरीकरण के चलते कुछ जगहों पर इस परंपरा को सिर्फ सांकेतिक रूप में निभाया जाता है, फिर भी यह समाज के पुनर्निर्माण और हाशिए पर खड़े लोगों के प्रति सहानुभूति और समानता की भावना को प्रकट करती है।
परंपरा की उत्पत्ति के संभावित स्रोत
यह परंपरा कितनी पुरानी है, इस पर कोई स्पष्ट ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं हैं, लेकिन माना जाता है कि यह सदियों पुरानी है और बंगाल के समाज में धर्म और पवित्रता को एक व्यापक दृष्टिकोण से समझने के प्रयास का हिस्सा रही है। बंगाली समाज में दुर्गा पूजा का खास महत्व है और यह परंपरा उसी के विकास के साथ जुड़ी है।
वेश्याओं का समाज में स्थान
दुर्गा पूजा से जुड़े इस अनूठे रिवाज ने वेश्याओं को एक पवित्र कार्य में शामिल करके समाज में उनके प्रति एक अलग दृष्टिकोण को भी विकसित किया। यह समाज के उन कमजोर वर्गों की स्थिति पर प्रकाश डालता है जो अक्सर बहिष्कृत रहते हैं। इस परंपरा के माध्यम से एक संदेश दिया जाता है कि समाज में सबसे हाशिए पर खड़ा व्यक्ति भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कोई और।
मानवता का संदेश
यह परंपरा केवल धार्मिक नहीं बल्कि मानवता और करुणा का प्रतीक भी है। यह हमें यह सिखाती है कि हर इंसान के पास गरिमा और सम्मान पाने का अधिकार है, चाहे उसका जीवन कैसा भी हो। जब माँ दुर्गा की मूर्ति में वेश्याओं के आंगन की मिट्टी का उपयोग होता है, तो यह इस बात का संकेत है कि देवी के सामने हर व्यक्ति समान है, और कोई भी व्यक्ति उनके आशीर्वाद से वंचित नहीं रह सकता।
वेश्याओं के आंगन की मिट्टी से माँ दुर्गा की मूर्ति का निर्माण एक ऐसी परंपरा है जो न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि यह सामाजिक समावेशिता, मानवीय गरिमा, और नारीत्व के प्रति सम्मान को भी दर्शाती है। यह परंपरा हमें याद दिलाती है कि हर व्यक्ति का मूल्य होता है, चाहे वह किसी भी पेशे या समाजिक स्थिति में हो, और देवी माँ की पूजा में हर किसी का स्थान होता है।
देवी दुर्गा का दुर्गतिनाशिनी, बुराई का नाश करने वाली और भक्तों की रक्षक के रूप में पूजा जाता है। लेकिन क्या कभी सोचा है कि दुर्गा माता की जो मूर्ति स्थापित की जाती है उसका निर्माण किस मिट्टी से किया जाता है। दुर्गा की मूर्ति कोलकाता के सोनागाछी से खरीदी गई मिट्टी से बनाई जाती है। सोनागाछी कोलकाता का रेड लाइट एरिया है जहां वेश्याएं रहती हैं। मान्यता है कि जब तक इस जगह की मिट्टी नहीं मिलती है तब तक दुर्गा मूर्ति की अधूरी मानी जाती है। यह भी मान्यता है कि इस मिट्टी के बिना बनी दुर्गा प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा नहीं हो सकती और उसकी पूजा-अर्चना मां को स्वीकार नहीं।
किन चीजों से बनती दुर्गा प्रतिमा?
हिंदू मान्यताओं के अनुसार दुर्गा पूजा के लिए माता दुर्गा की जो मूर्ति बनाई जाती है उसके लिए 4 चीजें बहुत जरूरी हैं। पहली गंगा तट की मिट्टी, दूसरी गोमूत्र, गोबर और वेश्यालय की मिट्टी या किसी भी ऐसे स्थान की मिट्टी जहां जाना निषेध हो। इन सभी को मिलाकर बनाई गई मूर्ति ही पूर्ण मानी जाती है। ये रस्म वर्षों से चली आ रही है। हैरान करने वाली बात यह है कि अपवित्र माने जाने वाले वेश्यालय की मिट्टी से मां दुर्गा की मूर्ति बनती है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."