-अनिल अनूप
2024 के चुनाव परिणाम की व्याख्या करते समय हमें ऐतिहासिक संदर्भ को ध्यान में रखना होगा। सबसे पहले हमें इस सच को दर्ज करना होगा कि यह कोई बराबरी का मैच नहीं था। पिछले 10 साल से नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने इस देश में एकछत्र वर्चस्व बनाए रखा है। वर्ष 2014 की असाधारण सफलता के बाद 2019 के चुनाव में उस से भी ऊंची पायदान की चढ़ाई भाजपा ने चढ़ ली। इस बीच देश के अधिकांश विधानसभा चुनावों में जीत हासिल कर ली, जहां चुनाव न जीते वहां भी सरकार पर कब्जा कर लिया। जिन राज्यों में भाजपा की उपस्थिति नहीं थी वहां उसका दाखिला और विजय कोई साधारण घटना नहीं है। अब सवाल यह है कि 2024 का चुनाव भाजपा के राजनीतिक वर्चस्व के रथ को रोकेगा या नहीं।
चुनाव लडऩे की क्षमता की दृष्टि से यह बराबरी का मैच नहीं था। विपक्ष की तुलना में भाजपा के पास चुनाव लडऩे के लिए जितना पैसा था उसमें जमीन और आसमान का फर्क था। मुख्यधारा के अखबार, चैनल और समस्त मीडिया भाजपा के प्रचार में लगा हुआ था। चुनाव के पहले से ई.डी., सी.बी.आई., पुलिस और प्रशासन भी सत्ताधारी दल के कार्यकत्र्ताओं की तरह जुटे थे। चुनाव आयोग का रवैया खुल्लम खुल्ला पक्षपात का था। चुनाव लडऩे से ज्यादा विपक्ष की चिंता अपने उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं को जोड़े रखने की थी।
चुनाव परिणाम का विश्लेषण करते समय इस बुनियादी असंतुलन को ध्यान में रखना पड़ेगा। इस संदर्भ में भाजपा का 400 पार का दावा उसकी सफलता की कसौटी बन जाता है।
आम चुनाव का जनादेश बेहद अप्रत्याशित रहा। बेशक भाजपा-एनडीए के पक्ष में स्पष्ट बहुमत लगता है, लेकिन भाजपा अपने बूते बहुमत के जादुई आंकड़े को छूती नहीं लगती। भाजपा अभी तक 243 सीटों पर विजयी रही है, जबकि मतगणना जारी थी।
बहुमत के लिए कमोबेश 272 का आंकड़ा अपेक्षित है। दूसरी ओर कांग्रेस 97 सीटें जीती थी। यह आंकड़ा 2019 की 52 सीटों से लगभग दोगुना है। यह आलेख लिखने तक ‘इंडिया’ गठबंधन ने 228 सीटें जीत कर देश को चौंका दिया है। भाजपा को सबसे बड़ा झटका उप्र में लगा, जहां वह 70 से अधिक सीटें जीतने की रणनीति पर काम कर रही थी, लेकिन अब आंकड़ा 35 के करीब थमता लगता है। सपा और कांग्रेस 40 सीटों से भी आगे थीं। उप्र ने भाजपा की स्पष्ट जीत के तमाम समीकरण उलट दिए हैं। पार्टी नेतृत्व समझ ही नहीं पा रहा है कि आखिर उप्र में ऐसा झटका क्यों लगा? उप्र के अलावा पश्चिम बंगाल में ‘दीदी’ का करिश्मा एक बार फिर चला और भाजपा सबसे शानदार जीत हासिल करने में नाकाम रही है। ममता बनर्जी की पार्टी ‘तृणमूल कांग्रेस’ कुल 42 सीटों में से 32 सीट पर निर्णायक तौर पर आगे थी। राजस्थान, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों में भी, भाजपा के लिए, खूब उलटफेर हुए। तमिलनाडु और पंजाब में तो भाजपा ‘शून्य’ रही है। दक्षिण भारत की पहली उम्मीद केरल साबित होता लगता है, जहां भाजपा 2 सीटों पर आगे थी। अब की बार आंध्रप्रदेश, केरल में भाजपा का खाता खुलता लग रहा है। हालांकि तेलंगाना में भाजपा बेहतर प्रदर्शन करती लग रही है, लेकिन कर्नाटक का प्रदर्शन वैसा नहीं रहा, जिसकी अपेक्षा थी। आंध्रप्रदेश में तेलुगूदेशम पार्टी-भाजपा गठबंधन को विधानसभा में प्रचंड बहुमत मिला है, लिहाजा नए मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू होंगे। बेशक गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड आदि राज्यों में भाजपा ने लगभग ‘क्लीन स्वीप’ किया है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा पहली बार बहुमत हासिल करने में नाकाम रही है।
आज के परिणाम में असली सवाल यह नहीं है अपनी सारी ताकत के दम पर भाजपा, उसके चुनावी सहयोगी और चुनाव के बाद जोड़-तोड़ के सहारे बने पार्टनर सरकार बनाने में सफल होंगे या नहीं। जाहिर रूप से इस चुनाव की शुरूआत से अंत तक ‘किसकी बनेगी सरकार’ की दौड़ में भाजपा आगे रही है। यहां एक बात तय है। अगर 400 पार के दावे के बाद भाजपा 2019 के अपने 303 के आंकड़े से पीछे रुक जाती है तो इसे भाजपा का वर्चस्व टूटने की शुरूआत की तरह देखा जाएगा। चाहे भाजपा दक्षिण और पूर्व के तटीय इलाकों में अपना विस्तार कर ले लेकिन उसके वर्चस्व की परीक्षा दक्षिण में कर्नाटक और पश्चिम में महाराष्ट्र से लेकर पूर्व में झारखंड और बिहार तक के हिन्दी पट्टी समेत उस विशाल भूभाग में होगी जिसमें भाजपा ने पिछले 2 चुनावों में अपना एकाधिकार बना लिया था। अगर यहां भाजपा का एकाधिकार टूटता है तो यह तय है उसे अगले कुछ महीने में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जैसे प्रदेशों में चुनावी हार का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में मीडिया का गला कुछ खुल जाएगा। संभव है कि कोर्ट-कचहरी भी थोड़ी-बहुत हिम्मत दिखाने लगें और जाहिर है जमीन पर जनांदोलन भी मजबूत होंगे।
अब भाजपा आत्ममंथन करेगी कि अयोध्या वाली संसदीय सीट पर उसका प्रत्याशी क्यों पराजित हो गया? क्या राम मंदिर से अधिक प्रभाव अन्य जातियों और मुद्दों का रहा? बहरहाल अकेली भाजपा न तो 370 का लक्ष्य हासिल कर पाई और 400 पार तो बहुत दूर की कौड़ी है। हम अपने आलेखों में जिक्र करते रहे हैं कि संविधान बदलने और लोकतंत्र खत्म होने सरीखे मुद्दों ने उप्र, राजस्थान, हरियाणा जैसे राज्यों के ग्रामीण अंचलों में लोगों को सोचने पर विवश किया था, लिहाजा वोट भाजपा के पक्ष में नहीं डाले जाएंगे। ऐसा ही कुछ हुआ है कि भाजपा पराजित हुई है। इनसे आरक्षण का मुद्दा भी शंकित हुआ। उसके मद्देनजर भी वोट बदले गए। बेशक नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लें, क्योंकि भाजपा-एनडीए के पक्ष में फिलहाल 298 सीटों का समर्थन है। इनमें करीब 240 सीटें भाजपा की हैं और 227 सीटें कांग्रेस नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ गठबंधन के पक्ष में हैं। गौरतलब यह है कि टीडीपी की 16 और जद-यू की 14 सीटें एनडीए और मोदी सरकार के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने चंद्रबाबू नायडू से फोन पर बात की है। शरद पवार भी नायडू और नीतीश के संपर्क में बताए जाते हैं। क्या तोडफ़ोड़ का खेल शुरू हो गया है? क्या यह अनिश्चितता केंद्र सरकार की स्थिरता पर सवाल साबित हो सकती है? 2024 के जनादेश ने साबित किया है कि कांग्रेस इस देश से कभी भी खत्म नहीं की जा सकती।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी केरल की वायनाड और रायबरेली सीटों से जीत रहे हैं। कांग्रेस को इस चुनाव में 97 सीटें मिलती दिख रही हैं। इस चुनाव में अखिलेश यादव की सपा ने भी जबरदस्त जीत हासिल कर अपना नेतृत्व साबित किया है। अब ओडिशा में भी भाजपा सरकार बनेगी। जनता ने नवीन पटनायक के विकल्प के तौर पर भाजपा का शासन चुना है। कोई जीता, कोई हारा, लेकिन भारत देश का सबसे बड़ा लोकतंत्र निर्विवाद रूप से विजयी रहा। लोकसभा चुनाव का एक संदेश यह भी है कि आम आदमी पार्टी के पक्ष में सहानुभूति की कोई लहर नहीं चली। दिल्ली में सभी सात सीटें भाजपा जीत रही थी, जबकि पंजाब में भी आप कुछ खास नहीं कर पाई।
अभी तक हमने उन्हीं संभावनाओं पर गौर किया है जिनमें भाजपा की सीटें पिछले चुनाव से घट सकती हैं लेकिन एग्जिट पोल इस संभावना को नकारते हैं। उनके अनुसार भाजपा अकेली 320 से 340 या उससे भी अधिक सीटें जीत लेगी, अपने एन.डी.ए. सहयोगियों के साथ 400 का आंकड़ा भी पार कर लेगी। अगर ऐसा होता है तो जाहिर है भाजपा का वर्चस्व कायम रहेगा। सत्ता के निरंकुश होने की संभावना बढ़ेगी, संवैधानिक संस्थाएं पहले से भी अधिक सिकुड़ सकती हैं। एक अंतिम बात। अगर एग्जिट पोल में दिखाए आंकड़े ही चुनाव परिणाम के रूप में सामने आते हैं तो संभव है कि अनेक विपक्षी दल इस परिणाम की वैधता और ई.वी.एम. पर सवाल उठाएं।
देश के बड़े हिस्से और अनेक तबकों में चुनावी प्रक्रिया को लेकर अविश्वास बढ़ेगा, पिछले सत्तर साल में भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यानी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव पर सवालिया निशान लगेगा।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."