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November 22, 2024 9:49 pm

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…..इन बुजुर्ग आखों की दास्ताँ आपको सन्न कर देगी

22 पाठकों ने अब तक पढा

सलोनी परिहार की रिपोर्ट

‘जीते जी जो औलाद मुझसे मिलने नहीं आ रही, वो मेरे मरने के बाद क्या आएगी। उस दिन बेटे को जरूरी काम से कहीं जाना था। मुझे यहां छोड़ गया। कहने लगा- अगले गुरुवार तैयार रहना, मैं आपको लेने आऊंगा। 15 साल हो गए, हर गुरुवार को तैयार बैठती हूं, यह सोचकर कि आज आएगा और मुझे घर ले जाएगा।

अब बस और नहीं। मेरा उस पर से भरोसा ही उठ गया है। आप ही कहिए कि ऐसे बच्चे पर कैसे भरोसा करूं कि वो मेरे मरने पर कुछ करेगा। मेरा पिंडदान करेगा। मोक्ष दिलाएगा। इस पितृपक्ष मैंने अपना पिंडदान कर दिया है। अब मरने के बाद मेरी आत्मा को शांति तो मिल ही जाएगी।’

अंजलि अम्मा की आंखें अब बेटे के इंतजार में पथरा गई हैं। वृद्धाश्रम के हॉल में बैठीं वो अपना दर्द तो सुना रही हैं, लेकिन नजरें अब भी दरवाजे पर टिकी हैं। ऐसा मैं साफतौर पर महसूस कर पा रही हूं।

अम्मा ने आज सफेद और लाल रंग की साड़ी पहन रखी है। दोनों हाथों में एक-एक हरी चूड़ी। माथे पर पूजा की लाल रोली और चंदन लगा हुआ है।

उनका असली नाम अंजलि श्रीवास्तव है, उनके साथ हुई बातचीत के दौरान कब मेरे मुंह से ‘अम्मा’ शब्द निकल गया, अहसास ही नहीं हुआ।

उम्र की जिस दहलीज पर हैं, वहां वो बिना सहारे चल नहीं पातीं। उन्हें दीवार और छड़ी की जरूरत पड़ती है।

मेरे सामने कुर्सी पर बैठते ही पूछती हैं- कैसी हो ?

अच्छा हूं का जवाब देने के साथ मैंने पूछ लिया- आप यहां कैसे आई थीं?

कहती हैं, ‘पति दुनिया में नहीं रहे और तकदीर मुझे यहां ले आई। अब तो उस दिन को याद कर रोना भी नहीं आता। उसे अपनी किस्मत मान बैठी हूं।’

इतना कहकर वो इधर-उधर देखने लगती हैं। मैं उन्हें टोकती नहीं। उनके फिर से बोलने का इंतजार करती हूं।

कुछ सेकेंड के बाद वो कहती हैं, ‘पति दुनिया से चले गए। मेरे आंसू भी नहीं सूखे थे। घर में मेहमान थे। उनकी तेरहवीं की रसोई हुई। लोगों के जाने के बाद बेटे ने मुझे यहां अपने किसी जानकार से छुड़वा दिया। मुझसे कहा अभी जाकर आश्रम में रहो कुछ दिन के बाद आकर ले जाऊंगा। अब तुम ही बताओ बिटिया। जब अपना ही बच्चा भरोसे के लायक नहीं तो मैंने जीते जी अपना पिंड दानकर क्या गलत कर दिया।’

आपको बेटा यहां छोड़ने तो नहीं आया, कभी मिलने आया या वापस ले जाने?

मेरे सवाल पर अंजलि कहती हैं, ‘यहां आने के दो-तीन साल बाद एक बार आया था। कहने लगा- मइया साथ चलो। मैंने उसके साथ जाने से साफ मना कर दिया। तो कहने लगा सोचकर रखना गुरुवार को आकर ले जाऊंगा। उसके बाद मुड़कर नहीं आया।’

क्यों नहीं गईं आप बेटे के साथ?

अंजलि कहने लगीं- ‘कहां रखेगा वो मुझे। भोपाल में मेरा अपना घर था। मेरे पति ने उस घर को बनवाया था। बिना मुझसे पूछे उसे सिर्फ साढ़े तीन लाख रुपए में बेच दिया उसने।

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जब मैंने उससे पूछा कि कहां रखेगा तू मुझे, इस पर कहने लगा किराए के घर पर रखूंगा। अब आप सोचिए जिसके खुद के रहने का ठिकाना नहीं, वो बूढ़ी मां को कहां रखेगा।’

जब तक ये सब बातें करती रहीं उनके माथे से शिकन एक पल के लिए नहीं हटी। अंजलि अम्मा मुंह से भले कह रही थीं कि मेरे लिए बेटा मर गया है। बहू मर गई है, लेकिन एक मां के लिए ये कहना कतई आसान नहीं। खुद को अकेला मानकर पिंडदान करना कितना मुश्किल रहा होगा, यह भी आप समझ सकते हैं।

आश्रम की संचालिका माधुरी मिश्रा वहीं बैठी हुई थीं। उनकी तरफ इशारा करते हुए अम्मा कहती हैं कि हमारी महतारी तो अब यहीं हैं। यह हम दुख नहीं देतीं।

अंजलि अम्मा के पीछे ही अपनी बात कहने के इंतजार में एक जोड़ी आंख टकटकी लगाकर बैठी थी। ये चंद्रा रानी सक्सेना हैं। इन्होंने भी खुद का पिंडदान किया है।

उम्र 70 की दहलीज। आसमानी साड़ी। कानों में कुंडल। नाक में नथ। गले में सोने की चेन। दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा उंगली में सोने की अंगूठियां। उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता कि चंद्रा रानी को कभी किसी चीज की कमी रही होगी।

कमी है तो बस अपनों की है, परिवार की है, जिन्हें कभी उन्होंने प्यार और ममता से संवारा था।

खुद का पिंडदान करने का ख्याल कब आया?

मेरे सवाल पूछते ही वो कहती हैं, ‘आपको तो पता ही है कि धार्मिक ग्रंथों में मौत के बाद प्रेत योनि से बचाने के लिए पितृ तर्पण और पिंडदान का महत्व है।

मेरे सास-ससुर ने अपने मां-बाप का किया था। उन लोगों के गुजर जाने के बाद मेरे हसबैंड श्राद्ध करते थे। पति जब दुनिया से चले गए तब उनका पिंडदान बड़े बेटे ने किया। अब जबकि कोई मुझसे बात तक नहीं करता, तो मैं अपने पिंडदान की उम्मीद किससे रखती। इसलिए खुद ही कर दिया।’

कब से आप यहां रह रही हैं? फौरन कहती हैं- 9 साल।

इन नौ सालों में कोई भी ऐसा दिन नहीं था, जब मैंने अपने घर-परिवार को याद नहीं किया। किसी ने भी आज तक एक फोन नहीं किया। मेरे मरने के बाद क्या करेंगे, मेरी लाश को कंधा देंगे या नहीं देंगे, इसकी भी कोई गारंटी नहीं।’

अपनी कहानी सुनाते-सुनाते चंद्रा रो पड़ती हैं। कहती हैं कि कमजोर नहीं पड़ना चाहती, लेकिन इतना भी आसान तो नहीं है खुद को मरा मानकर अपना ही पिंडदान कर देना।

चंद्रा रानी ऊंचा सुनती हैं। मुझे पहले ही यह बात बता दी गई थी कि उन्हें थोड़ा ऊंचा सुनाई देता है, इसलिए जोर से बोलना पड़ेगा।

कैसे आईं आप यहां? चंद्रा कहती हैं- 2004 में मेरे हसबैंड की डेथ हो गई। बच्चे सब अपने-अपने काम में बिजी थे। दो बेटे हैं। छोटा बेटा भी दुनिया में नहीं है। वो बड़ी कंपनी में जीएम था।

बड़ा बेटा सहारा स्टेट में काम करता है। बेटी यूएस में रहती है।

जब सारे बच्चे अपने-अपने काम में व्यस्त थे, तब मैंने भी बहुत काम किया है। 15 साल थिएटर किया। 4 साल ऑल इंडिया रेडियो में काम किया। ऑल इंडिया का टूर किया है।

शरीर ही है, एक समय के बाद आराम मांगता है। घर पर रहना चाहता है। परिवार वालों से अपनत्व मांगता है।

बड़ी बहू यूनिवर्सिटी में लेक्चरर है। छोटी बहू BHEL कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ाती है। उनके पास मेरा हालचाल पूछने तक का भी समय नहीं था। मैं अकेले पड़ गई।’

चंद्रा ये सब कह ही रहीं थीं कि मेरे पीछे बैठी मालती जी ने धीरे से कहा- छोटा बेटा पीटता था इन्हें। अपनों के बारे में कहां कोई बुरा कह पाता है। इसलिए ये बात ये बता नहीं पा रहीं।

यहां आने से आपको किसी ने रोका नहीं? चंद्रा के चेहरे पर रोष झलक पड़ता है। कहती हैं- ‘यही बात मुझे खटक गई। मैं जब यहां आ रही थी तब दोनों बेटे-बहू चुप बैठे थे। किसी ने भी नहीं पूछा, कहां जा रही, क्यों जा रही। इस तरह की अनदेखी परिवार में मुझे बर्दाश्त नहीं हुई।

आप मुझे खाना मत दीजिए। पानी मत दीजिए चलेगा, लेकिन मुझसे बोलिए तरीके से। प्यार से दो बात कर लीजिए।

दोनों बेटे या बहू में से कोई यहां छोड़ने आया? ‘नहीं। मैं यहां अकेले आई। मैं यहां आ रही हूं इसकी सूचना मैंने आश्रम में पहले ही दे दी थी। यहां से दो लोग एक लोडिंग ऑटो लेकर मेरे घर आए थे।

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मेरे दरवाजे पर दो गाड़ियां खड़ी थीं, यह बेटे-बहू ने देखी, लेकिन घर के दरवाजे तक छोड़ने नहीं आए। जो थोड़ा सामान ला पाई यहां लेकर आ गई बाकी बेच दिया।

मेरे पास खुद की फिएट कार थी। वो भी बेच दी।

अभी चंद्रा के मायूस चेहरे से नजर हटी ही थी कि एक कमरे से कांपते पैरों से निकलने की आहट हुई।

ये सोहिनी गुप्ता हैं। वृद्धाश्रम में दो महीने पहले ही आई हैं। अपनों के व्यवहार से इतनी आहत थीं कि आते ही पिंडदान करने की इच्छा जाहिर कर दी।

पूछने पर कि अभी तो आप जिंदा हैं फिर क्यों पिंडदान कर दिया?

गुप्ता आंटी (वहां उन्हें सब इसी नाम से बुला रहे थे) कहने लगीं- मैंने अपना और अपने पति दोनों का पिंडदान कर दिया। 2019 में चल बसे थे वो।

लेकिन खुद का क्यों किया, आप तो अभी जिंदा हैं? मैं अपना सवाल दोहराती हूं।

गुप्ता आंटी कहती हैं, ‘क्या करती फिर। कौन करेगा? जीते जी तो बेटा यहां छोड़ गया। बहू मारती है। क्यों करेंगे वो लोग मेरा पिंडदान।’

गुप्ता आंटी जिस छड़ी के सहारे कमरे से बाहर निकल कर आई थीं, उसकी तरफ इशारा करती हैं। कहती हैं- ‘इस छड़ी से मारते थे वो लोग। आप खुद सोचो, जो छड़ी इस उम्र का सहारा बनती है, उसके साथ भी उन लोगों की वजह से बुरी याद जुड़ गई है।’

रुआंसी आवाज में गुप्ता आंटी कहती हैं, ‘एक लाख रुपए तनख्वाह मिलती है बेटे को हर महीने। लोको पायलट है ट्रेन चलाता है, लेकिन अपनी इस बूढ़ी मां को रोटी भी भरपेट नहीं देते।

इसी साल की कहानी सुनाती हूं। सावन चल रहा था। सोमवार को बेलपत्र चढ़ाना था, उसे खरीदने के लिए पैसे नहीं देता था। कॉलोनी में लगे पेड़ से पत्ते तोड़ने पर उनकी बेइज्जती होती थी।

बहू बिजली बिल बचाने के लिए पंखे का स्विच निकालकर ले गई थी। एक दिन तो उसने गला दबाने की कोशिश भी की।’

बेटा कुछ नहीं बोलता?

गुप्ता आंटी ने फौरन कहा, ‘बोलता था न। वो कहता मेरी पत्नी जो कुछ कर रही सही है। किसी को क्या दोष दूं, जब किस्मत ही ऐसी है।

कितनी विडंबना है। एक मां अब भी सारा दोष अपनी किस्मत को दे रही है। औलाद को दोष दें तो मातृ धर्म का शायद अपमान होगा। आखिर बेटा तो खुद का जना है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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