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आज का मुद्दा

अशोक गहलोत के ‘सियासी पावरप्ले’ को क्या नहीं भाँप पाई कांग्रेस?

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सुरेन्द्र प्रताप सिंह 

राजस्थान में कांग्रेस के भीतर का कलह-क्लेश उसके भविष्य के संकेत दे रहा है । वैसे आजादी के बाद से कांग्रेस के इतिहास में इस प्रकार की दुर्घटनाएं प्राय: नहीं हुई हैं । एक बार सीताराम केसरी ने अपनी अध्यक्ष की हैसियत का इस्तेमाल करने की कोशिश की थी, तब सोनिया गांधी के सिपहसालारों ने उन्हें बैठक में से लगभग घसीटते हुए बाहर कर दिया था। लेकिन उन दिनों कांग्रेस का अर्थ पंडित जवाहर लाल नेहरु की संतानों से ही लिया जाने लगा था, सोनिया गांधी का इस परिवार से कोई सीधा रिश्ता तो नहीं था। वह नेहरु की बेटी के बेटे की पत्नी थी, इस नाते उसे भी भारत में कांग्रेस के माध्यम से वह रुतबा हासिल हो गया था कि उसके सिपहसालार जब चाहें, कांग्रेस के अध्यक्ष को भी कार्यकारिणी की बैठक से बाहर निकाल दें । लेकिन वे पुराने दिन थे । उन दिनों कांग्रेस के लोगों को विश्वास था कि चुनावों में उनकी जय-पराजय नेहरु परिवार के कारण होती है। लेकिन तब से लेकर अब तक सप्त सिन्धु की नदियों में काफी पानी बह चुका है। अब कांग्रेस के लोग समझने लगे हैं कि वे सोनिया गांधी के परिवार के सहारे चुनावी नदी पार नहीं कर सकते। सोनिया के परिवार ने पंजाब में जो प्रयोग किया, उससे यह अवधारणा और भी स्पष्ट हो गई। पंजाब में कहा जाता है कि राज्य में यदि कांग्रेस राहुल गांधी की पसंद चरणजीत सिंह चन्नी के स्थान पर कैप्टन अमरेन्द्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ती तो शायद उसकी यह दुर्गति न होती। हालात कुछ ऐसे बने कि कांग्रेस के भीतर से ही ज़ोरदार आवाज़ें आने लगीं कि सोनिया परिवार को कांग्रेस पर से अपना शिकंजा हटा लेना चाहिए और किसी भारतीय मूल के व्यक्ति को नेतृत्व दे देना चाहिए ताकि पार्टी में पुन: रक्त संचार हो सके। अब सोनिया परिवार को कोई ऐसा कांग्रेसी चाहिए था जो इस संकट के हाल में पार्टी की कमान संभाल ले, लेकिन आचरण डा. मनमोहन सिंह जैसा ही करे। सभी जानते हैं कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो दस साल रहे, लेकिन उनका सख्त नियंत्रण सोनिया गान्धी परिवार के हाथों में ही रहा। मनमोहन सिंह को इस पर एतराज भी नहीं था क्योंकि न वे राजनीतिक प्राणी थे और न ही उनका कोई राजनीतिक आधार था। उनके लिए प्रधानमंत्री पद सरकारी नौकरी जैसा था जिसमें निर्णय नियोक्ता ही लेता है। इसलिए उनके लिए यह सारा माजरा स्वाभाविक ही था। लेकिन अब सोनिया परिवार को इसी प्रकार का एक व्यक्ति चाहिए था जो कांग्रेस का अध्यक्ष बना रहे, लेकिन सोनिया परिवार की ताक़त को कोई नुक़सान न हो। यानि ‘हर मैजस्टी’ के वर्चस्व को कोई नुक़सान न हो । काफी मशक्कत के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इस ढांचे में फिट बैठे ।

उनका पुराना रिकार्ड असंदिग्ध स्वामिभक्ति का था। अशोक गहलोत के कांग्रेस अध्यक्ष बनने से सोनिया गान्धी परिवार पर से यह तोहमत भी हट जाती कि उसने कांग्रेस का गला घोंट रखा है जिसके कारण भारत तेज़ी से कांग्रेस मुक्त होता जा रहा है और परिवार का वर्चस्व भी पूर्ववत बना रहता। अशोक गहलोत यह भूमिका निभाने के लिए तैयार भी हो गए थे । वैसे डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी का गठन कर चुके पुराने भूतपूर्व वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आज़ाद ने कई महीने पहले ही कह दिया था कि सोनिया परिवार अशोक गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष बना कर चुनावों की खानापूर्ति कर लेगा। लेकिन अशोक गहलोत इस ग़लतफहमी में अध्यक्ष बनने के लिए तैयार हो गए थे कि वे अध्यक्ष के साथ-साथ राजस्थान के मुख्यमंत्री भी बने रहेंगे। उनको लगता था कि मुख्यमंत्री पद छोडऩे की कथा तो तब शुरू होगी, जब वे कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके होंगे। उस वक्त वे अध्यक्ष की हैसियत से अपने अनुकूल फैसला करवा सकेंगे। लेकिन सोनिया परिवार शायद गहलोत से स्वामिभक्ति की अग्निपरीक्षा ही मांग रहा था। राहुल गान्धी ने सार्वजनिक बयान देकर बताया कि एक व्यक्ति एक पद का सिद्धान्त कांग्रेस अध्यक्ष पर भी लागू होता है। नम्बर दो अशोक गहलोत को अध्यक्ष के लिए नामांकन पत्र भरने से पहले ही मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना होगा। तीसरी भीतरी ख़बर यह थी कि गहलोत के धुर विरोधी सचिन पायलट को राज्य का मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया जा चुका था। गहलोत अच्छी तरह जानते हैं कि राज्य के मुख्यमंत्री की ताक़त कांग्रेस अध्यक्ष से ज्यादा है, ख़ासकर तब जब सोनिया परिवार के पास अपनी उपलब्धि मात्र यह हो कि राहुल गान्धी अमेठी की परम्परागत सीट भी भाजपा से हार चुके हों। आज सोनिया परिवार को शक्ति उन दो राज्यों के मुख्यमंत्री देते हैं जहां कांग्रेस का शासन है।

सोनिया परिवार के पास इन मुख्यमंत्रियों को देने के लिए कुछ नहीं है। यह गहलोत अच्छी तरह जानते हैं। यही कारण है कि गहलोत ने बीच का रास्ता निकाला कि सचिन पायलट के स्थान पर गहलोत खेमे के ही किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना दिया जाए। सोनिया परिवार की इस मुद्दे पर बेरुख़ी देखकर अशोक गहलोत ने अपने विधायकों से तथाकथित हाई कमान यानि परिवार के खिलाफ ही बग़ावत करवा दी। विधायकों ने सोनिया गांधी के प्रतिनिधियों से मिलने की बजाय विधानसभा अध्यक्ष को सामूहिक त्यागपत्र देना ज्यादा उचित समझा। शायद सोनिया परिवार के साथ ही कांग्रेस का कि़ला हिलने लगा है। अशोक गहलोत की चोट कांग्रेस के इतिहास में अलग अध्याय होगा। यह अध्याय तब लिखा जाने लगा जब सभी विपक्षी दल भाजपा के खिलाफ एकजुट होने के द्राविड़ प्राणायाम कर रहे हैं। फिलहाल सोनिया परिवार इस दलदल से बाहर कैसे निकलता है, इसका उत्तर तो राहुल या प्रियंका ही देंगे, लेकिन यह चोट उनके परिवार को भारतीय राजनीति के उस दौर में लगी है जिस दौर में कांग्रेस स्वयं को विपक्षी दलों के एकता प्रयासों में प्रासंगिक बनाए रखने के प्रयासों में लगी हुई थी। यह भी जरूरी है कि अन्य दलों के सामने कांग्रेस की सशक्त स्थिति तभी मानी जाएगी जब कम से कम पार्टी में कहीं कोई कलह-क्लेश न हो। कांग्रेस को अगर मजबूत होकर उभरना है तो उसे ऐसा अध्यक्ष चुनना है जो सभी वर्गों को साथ लेकर चले। गहलोत ने जो किया, उसके कारण उनमें यह योग्यता दिखाई नहीं दे रही है।

लेखक सुरेन्द्र प्रताप सिंह समाचार दर्पण 24 के राजस्थान राज्य ब्यूरो चीफ हैं।
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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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