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15 January 2025 10:55 am

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सलाखों से सवाल….सिसोदिया के 17 महीनों का हिसाब…जानते हैं क्या है ❓

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अंजनी कुमार त्रिपाठी की रिपोर्ट

आखिरकार दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत दे दी। हालांकि इसमें कुछ शर्तें भी जोड़ी हैं, पर अदालतों को एक बार फिर नसीहत दी है कि जमानत नियम है और जेल अपवाद। किसी की जमानत सजा के तौर पर नहीं टाली जानी चाहिए। हालांकि यह बात सर्वोच्च न्यायालय पहले भी कई बार कह चुका है, मगर निचली अदालतें इसे गंभीरता से लेती नजर नहीं आतीं। मनीष सिसोदिया को दिल्ली आबकारी नीति में भ्रष्टाचार के आरोप में पहले प्रवर्तन निदेशालय और फिर सीबीआइ ने जेल में बंद कराया था।

जमानत से आम आदमी पार्टी में उत्साह का माहौल

सिसोदिया निचली अदालत से उच्च न्यायालय के बीच अपनी गिरफ्तारी को चुनौती देते और जमानत की अपील करते रहे, मगर किन्हीं तकनीकी कारणों से उन्हें सलाखों के पीछे ही रहने पर मजबूर होना पड़ा। करीब सत्रह महीने उन्होंने जेल में बिताए। जाहिर है, उनकी जमानत से आम आदमी पार्टी में उत्साह का माहौल है। 

मगर यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि जब एक निर्वाचित सरकार के जिम्मेदार पद का निर्वाह कर रहे व्यक्ति को इतने लंबे समय तक जेल में रहने पर मजबूर होना पड़ता है, तो सामान्य नागरिक के बारे में क्या उम्मीद की जा सकती है। ये सवाल बेवजह नहीं उठ रहे हैं कि आखिर सिसोदिया के सत्रह महीनों का हिसाब कौन देगा।

सिसोदिया अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जिन्हें इस तरह सीखचों के पीछे लंबा वक्त गुजारना पड़ा। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह भी जेल में रह चुके हैं। 

सत्येंद्र जैन और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अभी तक जमानत की आस लगाए हुए हैं। इस मामले में जांच एजंसियों के कामकाज पर गहरे सवाल उठे हैं। 

दिल्ली आबकारी मामले में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और सेना की जमीन खरीद घोटाले के आरोप में हेमंत सोरेन को जांच एजंसियों ने बिना पुख्ता आधार और दोषसिद्धि के लंबे समय तक जेल में डाले रखा। 

इसमें निचली अदालतों ने भी गंभीरता से विचार नहीं किया कि इस तरह जिम्मेदार पदों का निर्वाह करने वालों को जेलों में डालने से आखिरकार सार्वजनिक महत्त्व के कामकाज बाधित होते हैं।

किसी को जमानत देने का यह अर्थ कतई नहीं होता कि उसे दोषमुक्त कर दिया गया। उसके खिलाफ लगे आरोपों की जांच तो चलती रह सकती है और दोषसिद्धि पर उसे सजा भुगतनी ही पड़ेगी। 

इस तरह केवल आरोप और आशंका के आधार पर लोगों को लंबे समय तक जेलों में बंद रखना एक तरह से नाहक सजा देने के बराबर ही माना जाता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की नसीहत पर गंभीरता से पालन के अपेक्षा की जाती है।

पिछले कुछ वर्षों से प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने भ्रष्टाचार के खिलाफ शिकंजा कसने के नाम पर जिस तरह अंधाधुंध छापे मारे और गिरफ्तारियां की, उसे लेकर उन पर आरोप लगते रहे हैं कि वे सत्तापक्ष के इशारे पर, उसकी राजनीतिक मंशा के अनुरूप काम करती हैं। वे जानबूझ कर तकनीकी अड़चनें पैदा कर अदालत को जमानत देने से रोकने का प्रयास करती देखी जाती हैं। 

भ्रष्टाचार और धनशोधन पर अंकुश लगाना निस्संदेह बड़ी चुनौती है, इसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई से शायद ही कोई इनकार करे, मगर इसके लिए बने कानूनों का राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल होगा, तो असल मकसद हाशिये पर ही बना रहेगा। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की नसीहत पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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