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सजनवां बैरी हो गए हमार….थप्पड़ खाकर दुनिया के महान कलाकार कैसे बने राजकपूर? पढिए पूरी खबर को

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नयन कमल साहू की रिपोर्ट

हिंदी सिनेमा को बॉबी, मेरा नाम जोकर और आवारा जैसी कल्‍ट फिल्‍मों की सौगात देने वाले राज कपूर। हिंदी सिनेमा के पहले इंटरनेशनल स्‍टार राज कपूर, जिनकी फिल्‍में ईरान, रूस और चीन तक के सिनेमा हॉल में रिलीज होती थीं। ‘आवारा’ ईरान में रिलीज होने वाली पहली भारतीय फिल्‍म थी। कहते हैं कि ईरान के एक सिनेमा हॉल में यह फिलम एक साल तक लगी रही। 

बॉलीवुड के मशहूर एक्‍टर और डायरेक्‍टर राज कपूर का जन्‍म 14 दिसंबर 1924 को हुआ था। वह ऐसे लोगों में थे जो रील ही नहीं रियल लाइफ में भी छाए रहते थे। कपूर खानदान में जन्‍म लेने के बावजूद फिल्‍मों में करियर बनाना राज कपूर के लिए आसान नहीं था। आइए जानें उनकी जिंदगी से जुड़ी खास बातें…

पढाई में मन नहीं

रंगमंच अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के सबसे बड़े बेटे राज कपूर का जन्म पेशावर में हुआ था। हालांकि इनकी शिक्षा कोलाकाता में हुई। राजकपूर का मन पढाई में थोड़ा कम लगता था।

थप्पड़ भी खाए

राजकपूर ने शुरू में केदार शर्मा जैसे निर्देशकों के साथ काम किया। केदार शर्मा ने राज कपूर को क्लैपर ब्वॉय के रूप में भरती किया था। इस काम में राजकपूर ने थप्पड़ भी खाए।

पत्नी नरगिस संग

राजकपूर ने फिल्म आग से 24 साल की उम्र में निर्देशन का काम शुरू किया था। अभिनेता राज कपूर और अभिनेत्री नर्गिस ने 9 वर्ष में करीब डेढ दर्जन फिल्में की हैं।

दिलीप की बारात

राज कपूर का दिलीप कुमार की शादी में मस्ती करना लोगों को खूब पसंद आया था। इस दौरान उन्होंने अपने पिता के साथ उनकी बारात की अगुवाई की थी। एक्टर देवआनंद भी उनके साथ थे।

सफेद साड़ी जरूर

राज कपूर ने बचपन में एक महिला को सफेद साड़ी में देखा तो उनका दिल उस पर फिसल गया। पसंदीदा रंग होने की वजह से वे अपनी फिल्मों में अभिनेत्रियों को सफेद साड़ी जरूरी पहनाते थे।

बचपन से ही राज कपूर के ख़ून में रहा अभिनय

राज कपूर का पूरा नाम रणबीर राज कपूर था। उनके दोनों भाई शम्मी कपूर व शशि कपूर भी अपने दौर के दिग्गज अभिनेता रहे हैं।

पिता की तरह ही बचपन से अभिनय राज कपूर के खून में था।

जिस उम्र में बच्चे खेलते हैं, उस उम्र में इन्होंने अभिनय करना शुरू कर दिया था।

ऐसे में आज हम आपको राज कपूर से जुड़ी हुईं कुछ बातें बतातें हैं, जिन्हें कम ही लोग जानते होंगे।

‘इंकलाब’ में पहली बार किया था अभिनय

सत्यजीत रे, कांस फिल्म फेस्टिवल में सम्मान पाने वाले इकलौते भारतीय फिल्ममेकर नहीं हैं। अपनी फिल्मों ‘आवारा’ (1951) व ‘बूट पॉलिश’ (1954) के लिए राज कपूर भी दो बार ‘Palme d’Or Grand Prize’ के लिए नॉमिनेट हुए थे।

इन्हें भारतीय फिल्म सिनेमा का क्लार्क गेबल भी कहा जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि दोनों ही बॉक्स ऑफिस पर अपनी पकड़ को बनाकर रखने वाले कलाकार थे।

इन्होंने 10 साल की उम्र में पहली बार फिल्म ‘इंकलाब’ में अभिनय किया था।

राज कपूर को पड़ा था चांटा

फिल्म में ‘क्लैपर बॉय’ के तौर पर काम करते हुए राज कपूर ने एक बार इतनी जोर से ताली बजाई कि नायक की नकली दाड़ी हाथों में फंसकर बाहर आ गई। इस पर फिल्म के निर्देशक ने गुस्से में आकर राज कपूर को जोरदार चांटा मार दिया था।

खबरों के मुताबिक कनाडा सरकार ने बाॅलीवुड के शोमैन को सम्मान देने के लिए ब्राम्पटन नाम के शहर की एक सड़क का नाम ही राज कपूर रखा है।

राज कपूर की असल जिंदगी से प्रेरित था ‘बॉबी’ का एक सीन

अभिनेता बनने से पहले राज कपूर संगीत निर्देशक बनना चाहते थे। वह मात्र 24 साल की उम्र में फिल्म निर्देशक बन गए थे।

उन्हेंने अपना प्रोडक्शन स्टूडियो ‘आर के फ़िल्म्स’ शुरू किया था। उनके प्रोडक्शन की पहली फ़िल्म ‘आग’ थी।

कहा जाता है कि फिल्म ‘बॉबी’ का एक सीन जहां ऋषि व डिंपल पहली बार मिलते हैं, वह राज कपूर-नर्गिस की असल जिंदगी की पहली मुलाकात से प्रेरित था।

‘पद्मभूषण’ पुरस्कार से थे सम्मानित

1971 में राज कपूर को सिनेमा में उनके योगदान के लिए ‘पद्मभूषण’ पुरस्कार से सम्मनित किया था।

1987 में उन्हें सिनेमा का सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ भी दिया गया था।

‘अनाड़ी’ और ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के लिए राज कपूर बेस्ट एक्टर का फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी जीत चुके हैं।

‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’ और ‘प्रेम रोग’ के लिए राज कपूर को बेस्ट डायरेक्टर का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला था।

राज कपूर ने अपनी फ़िल्मों से सोवियत संघ की लोहे की दीवार तोड़ी और उस समाज के हीरो बन गये। राज कपूर ने फ़िल्म को उद्देश्यपूर्ण बनाया, उनके हीरो और हीरोइन निचली जाति के होते थे जबकि विलेन ऊंची जाति से संबंध रखता था। 

जब एक विदेशी पत्रकार ने उनसे सवाल किया कि आपकी उम्र कितनी है तो राज कपूर ने जवाब दिया कि “अभी मेरी उम्र सिर्फ़ सात फ़िल्में हैं।”

राज कपूर की ज़िंदगी और मौत फ़िल्में ही थी। अपनी ज़िंदगी का एजेंडा उन्होंने फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में यूं बयान किया था कि ‘जीना यहां मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां’। 

उल्लेखनीय है कि होम प्रोडक्शन से पहले ‘अंदाज़’ के अलावा राज कपूर की सभी फ़िल्में औसत दर्जे की फ़िल्में कहलाई थीं। 

‘अंदाज़’ एक ब्लॉकबस्टर फ़िल्म थी जिसमें राज कपूर के सामने नरगिस और दिलीप कुमार जैसे बड़े कलाकार थे। उस समय इसमें भारतीय सिनेमा की सबसे बड़ी त्रिमूर्ति थी. कुछ सफल फ़िल्मों के बाद राज कपूर ने फ़ार्मूला फ़िल्में बनाने के बजाय प्रयोग करने को प्राथमिकता दी और वे फ़िल्मों में नए विषय लेकर आये। फ़िल्म बूट पॉलिश, जागते रहो, जिस देश में गंगा बहती है और अब दिल्ली दूर नहीं जैसी फ़िल्में उन्हीं प्रयोगों की कड़ी में हैं। 

साठ के दशक में जब राज कपूर बहुत सी सफलताएं प्राप्त कर चुके थे तो उनके मन में एक ऐसी फ़िल्म बनाने का विचार आया जो उनके जीवन को दर्शाए और वह फ़िल्म थी ‘मेरा नाम जोकर’। 

मेरा नाम जोकर’ सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं एक बहुत बड़ा रिस्क था जो राज कपूर के टाइटेनिक को डुबो सकता था। उन्होंने ख़तरों से डरे बगैर इस हाई बजट प्रोजेक्ट को शुरू किया। अपने संबंधों का लाभ उठाते हुए चीन और रूस से सर्कस टीमों को बुलाया और एक बड़े कैनवास पर रंग बिखेरने शुरू किये। 

इस फ़िल्म में उस समय के सभी सुपरस्टार नजर आए। यह एक ऐसा प्रोजेक्ट था जो सिमटने ने के बजाय फैलता गया, यहां तक कि फ़िल्म का बजट और समय दोनों बढ़ गए। और फिर वही हुआ जिसका डर था। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर हिट होने के बजाय फ्लॉप साबित हुई। आरके प्रोडक्शन को भारी नुकसान उठाना पड़ा। 

आलोचकों और फ़िल्म विशेषज्ञों को यह लगता था कि राज कपूर दोबारा अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाएंगे लेकिन फ़िल्म के घाटे ने राज कपूर की वास्तविक क्षमता को उजागर किया। 

राज कपूर की कामयाबी की एक बड़ी वजह यह थी कि वो टीम बनाकर काम करते थे। आरके फ़िल्म्स के हर डिपार्टमेंट में अपने काम के ‘पीर कारीगर’ शामिल थे। जैसे कि संगीत विभाग शंकर जयकिशन ने संभाल रखा था, गीतकारों में शलैंद्र और हसरत जयपुरी शामिल थे और गायकों में मुकेश, मन्ना डे, लता मंगेशकर और लेखकों की टीम में ख़्वाजा अहमद अब्बास और वीपी साठे शामिल थे। 

बॉक्स ऑफ़िस पर ‘मेरा नाम जोकर’ की विफलता के फौरन बाद उन्होंने अपनी टीम को इकट्ठा किया और अगली फिल्म का टास्क दिया। राज कपूर इस फ़िल्म के लिए इस तरह तैयार थे जैसे कि यह उनका बैक-अप प्लान हो। 

यह फ़िल्म एक युवा प्रेम की कहानी थी जिसमें वे अपने बेटे ऋषि कपूर को लॉन्च करने वाले थे। फिल्म का नाम था ‘बॉबी’ और इस फ़िल्म से डिम्पल कापड़िया के कामयाब करियर की शुरुआत हुई। 

यह फ़िल्म 1973 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म ने इतना बिज़नेज किया कि कंपनी के सभी घाटे पूरे हो गये। यह फ़िल्म न सिर्फ ब्लॉकबस्टर बल्कि ट्रेंड सेटर साबित हुई जिसने रोमांस आधारित फिल्मों का नक़्शा बदल दिया।

फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ भले ही बॉक्स ऑफिस हिट नहीं थी लेकिन यह फ़िल्म आज तक अभिनेताओं और फ़िल्मकारों के लिए एक सबक़ जैसी है। देखा जाए तो राज कपूर की हर फ़िल्म एक रिस्क थी। 

वो एक प्रगतिशील व्यक्ति थे। जिन संवदेनशील विषयों पर वो सिल्वर स्क्रीन पर लेकर आये, उस ज़माने में कोई सोच भी नहीं सकता था। 

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Author: samachardarpan24

जिद है दुनिया जीतने की

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