Explore

Search
Close this search box.

Search

19 January 2025 1:50 pm

लेटेस्ट न्यूज़

ब्राह्मणवाद का पर्याय रही कांग्रेस आज बहुजन राजनीति की पीपड़ी क्यों बजाने लगी?

26 पाठकों ने अब तक पढा

दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट 

‘सबसे बड़ा सवाल यह है कि भारत में कितने ओबीसी, आदिवासी और दलित हैं? अगर हम पैसे और बिजली वितरण की बात करते हैं, तो उनकी आबादी के आकार का पता लगाने के लिए पहल की जानी चाहिए।’ ये बातें कांग्रेस का चेहरा माने जाने वाले राहुल गांधी ने पिछले दिनों कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले एक रैली में कही थी। सनद रहे कि ये वही गांधी हैं जिन्होंने एक बार मीडिया के सामने अपने कुर्ते के भीतर का जनेऊ मीडिया के सामने ‘फ्लैश’ किया था। अगर उनकी पार्टी कांग्रेस की बात करें तो आज भी यूपी-बिहार के गांव में लोग ये कहते हुए पाए जाते हैं कि जब तक कांग्रेस तक था, तब तक ‘भला आदमी’ के हाथ में मंत्रालय रहा। पता नहीं मोदी किस जात वाले को कहां बैठा देता है। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि घर-घर में ब्राह्मणवाद के पर्याय बन चुके कांग्रेस की राजनीति आज दलित-बहुजन चेतना के सामने हाथ बांधे खड़ी दिखती है? चलिए शुरू से शुरू करते हैं…

अंबेडकर का इस्तीफा और नेहरू कैबिनेट की जिद

साल था 1951 और तारीख थी 28 सितंबर। उस दिन अखबारों की सुर्खियां बता रही थीं कि बीसवीं के सदी के सबसे बड़े पब्लिक इंटेलेक्चुअल माने जाने वाले बीआर अंबेडकर ने नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया है। वजह थी- हिन्दू कोड बिल जिसे चार साल से ज्यादा वक्त लटकाए रखने के बाद भी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट यथावत पास करने की स्थिति में नहीं थी। बार-बार यही कहा जा रहा था कि देश अभी इतने ‘क्रांतिकारी’ कानून को झेलने की स्थिति में नहीं है। जाति व्यवस्था पर चोट करने के अलावा इस बिल में भारतीय समाज में महिलाओं की दशा से लेकर संपत्ति के अधिकार तक के बारे में प्रगतिशील कानून होने की बात कही गई थी। कांग्रेस ने बिल तो पास किया, मगर वैसा नहीं जैसा अंबेडकर चाहते थे। ये वही अंबेडकर थे जिन्होंने कहा था कि अगर इस संविधान का गलत इस्तेमाल होता है तो इसे जलने वाला भी मैं ही होऊंगा। फिर क्या था, उन्होंने इस्तीफा दे दिया।

पूना पैक्ट और महात्मा गांधी का अनशन

थोड़ा और पीछे चलें तो 1932 के राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में अंग्रेजों से छीनकर दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र लाने वाले अंबेडकर की खुशी तब काफूर हो गई, जब महात्मा गांधी इसके विरोध में जेल में ही अनशन पर बैठ गए। कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं ने अंबेडकर को पृथक निर्वाचन क्षेत्र की जिद छोड़ने की सलाह दी। उन्होंने महात्मा गांधी की बात तो मान ली मगर अपनी नाराजगी भी बखूबी जाहिर की। आंबेडकर बाद में अपनी पुस्तकर ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या किया?’ में लिखा, ‘संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र हिंदुओं के लिए एक परिचित वाक्यांश ‘दूषित कस्बे’ का उपयोग करना है जिसमें हिंदुओं को किसी अछूत को नाममात्र के लिए नामांकित करने का अधिकार मिलता है जो असल में हिंदुओं का एक टूल होता है।’ गांधी और अंबेडकर के बीच इसी समझौते को पूना पैक्ट के नाम से जाना गया।

काका कालेलकर आयोग

30 मार्च, 1955 को देश के पहले पिछड़ा वर्ग आयोग ने नेहरू सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। उसमें 1961 की जनगणना के साथ ही जाति की गिनती करने का सुझाव दिया गया था। इसके साथ सभी महिलाओं को पिछड़ा की श्रेणी में डालने की बात भी इसमें वकालत की गई थी। लेकिन कांग्रेस ने इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

जाति जनगणना की मांग और बहुजन राजनीति का उदय

भारत में आखिरी बार जातिगत जनगणना (सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना) 1931 में अंग्रेजों ने ही करवाई थी। उसके बाद जब भारत आजाद हुआ तभी से वंचित तबका जातिगत जनगणना की मांग उठा रहा है। काका कालेलकर आयोग में भी इसी क्रम में कास्ट सेन्सस की सिफारिश की गई थी, मगर कांग्रेस की सरकार में नतीजा कुछ भी नहीं निकला। इसी बीच उदय हुआ बहुजन राजनीति को मेनस्ट्रीम बनाने वाले कांशीराम का। कांग्रेस पार्टी बहुजन राजनीति की आवाज बने कांशीराम को हमेशा एक खतरे के रूप में ही देखती रही। उधर, बहुजन समाजवादी पार्टी के संस्थापक ने भी कांग्रेस के खिलाफ अपने तेवर कभी ढीले नहीं किए। एक वक्त तो यूपी में ऐसा समीकरण बना, जिसने कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की राजनीति से लगभग बाहर धकेल दिया। बिहार में भी लालू यादव के उदय के बाद कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद कभी भी निर्णायक स्थिति में नहीं लौट सकी।

अब कांग्रेस बहुजन राजनीति की तरफ कैसे देखती है?

नेहरू-इंदिरा से लेकर राजीव गांधी तक, किसी भी नेता ने सत्ता में रहते हुए बहुजनों को उचित स्थान देने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। फिर अब ऐसा क्या हो गया कि गांधी परिवार के वारिस और कांग्रेस का भविष्य कहे जाने वाले राहुल गांधी कांशीराम के ही फ्रेज को थोड़ा झाड़-पोंछकर ‘जितनी आबादी, उतना हक’ की बात करने लगे हैं? वो न सिर्फ जातिगत जनगणना की वकालत कर रहे हैं बल्कि देश-विदेश के मंचों पर जाकर प्रमुखता से बहुजन पॉलिटिक्स की झलक दिखाने लगे हैं।

अगर राजनीति की बात करें तो फिलहाल कांग्रेस अकेले नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा के सामने कहीं नहीं टिकती। देश की सबसे पुरानी पार्टी ने नरम हिंदुत्व, साम्प्रदायिकता का जवाब देने जैसे सारे तिकड़म भिड़ा लिए मगर हाथ कुछ खास नहीं लगा। देश के एक बड़े तबके ने कांग्रेस के इन चोंचलों से ऊबकर वापस नरेंद्र मोदी के हाथ में सत्ता की चाबी सौंप दी। अब सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्कि भाजपा और आरएसएस की राजनीति का विरोध करने वाली सभी पार्टियों को समझ में आ गया है कि वास्तव में 2024 के चुनाव में कुछ करना है, तो साथ आना ही पड़ेगा।

कांग्रेस की बात छोड़ दें तो पिछले दिनों विपक्षी एकता की कवायद के लिए आयोजित बैठक में शामिल होने वाली सभी पार्टियां कमोबेश बहुजन राजनीति का या तो प्रतिनिधित्व करती हैं या फिर उसे बढ़ावा देती हैं। चाहे वो लालू यादव हों या अखिलेश यादव, जाति को लेकर सभी पार्टियां मुखर रूप से बहुजन राजनीति का समर्थन करती हैं। ऊपर-ऊपर से देखा जाए तो विपक्षी पार्टियों के साथ कांग्रेस की ये ‘दही में सही’ होने की राजनीति भी हो सकती है। मगर यह भी सच है कि राहुल गांधी पिछले कुछ वक्त में, खासतौर पर भारत जोड़ो यात्रा के बाद, जिस तरह से उभरे हैं और अपनी पॉलिटिक्स स्पष्ट की है तो ये उम्मीद उनसे की जा सकती है कि वास्तव में वो ‘एफरमेटिव ऐक्शन’ की राजनीति करना चाहते हों।

खैर जो भी हो, ये धुंध तभी छंटेगी जब कांग्रेस को देश की सत्ता संभालने का मौका मिले। मगर ताजा रुझानों के आधार पर फिलहाल तो उनकी नैया पार होती नहीं दिख रही है।

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

लेटेस्ट न्यूज़