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12 February 2025 2:09 pm

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200 हत्याएं और सैकड़ों अपहरण करने के बाद वो बना ‘भगवान’, जिसके आतंक और फरमानों के बगैर सियासत का जिक्र अधूरा रहता

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट 

डाकू ददुआ यूपी के इतिहास में एक प्रसिद्ध और बड़े नाम हैं। उनकी कहानी उत्तर प्रदेश की राजनीति, अपराध और जनसाधारण के बीच एक विचित्र मेल मिलाप को दर्शाती है। ददुआ अपने छद्म जीवन और बुंदेलखंड जोन के कुछ हिस्सों में दाखिल होने वाले गांवों में निवास करता था। उनका व्यापार चोरी और डकैती से जुड़ा था, जिससे उन्होंने अपनी बदनामी कमाई थी।

दशकों तक पाठा की धरती में राज और सियासत पर हुकुम का इक्का चलाने वाले दस्यु ददुआ की याद पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा के चुनावों में जरूर आती है। जब उसके आतंक और फरमान से बुंदेलखंड की सियासत की हवा रुख बदलती थी। मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने अपने शासनकाल में 5 सितम्बर 1998 को इस जिले का नाम बदलकर चित्रकूट कर दिया था। इसी जिले में रैपुरा थाना क्षेत्र के देवकली ग्राम में बुन्देलखंड ही नहीं बल्कि प्रदेश के सर्वाधिक कुख्यात दस्यु सरगना डाकू शिवकुमार उर्फ ददुआ का घर है जो कि पुलिस के साये में लम्बे अरसे तक आबाद रहा।

डाकू ददुआ का आतंक इतना बड़ा था कि उनकी मर्जी के बिना वहां के लोगों के बीच कोई भी नेता उभरने की कोशिश नहीं करता था। राजनीतिक दलों के नेता और विधायक उनके दरबार में जाकर उनसे सम्पर्क करते थे, उम्मीदवारों की पर्सनल अर्जियों को उनके सामक्ष रखते थे और विधानसभा चुनावों में उनका समर्थन प्राप्त करने के लिए भी उनसे मिलते थे।

इस प्रकार, ददुआ का आतंक राजनीति में अहम भूमिका निभाता था और यह उत्तर प्रदेश की राजनीतिक वातावरण में एक गंभीर मुद्दा था। 

खूंखार डाकू ददुआ की पूरी कहानी

ददुआ का असली नाम शिवकुमार पटेल था। उत्तर प्रदेश के चित्रकूट के दवदेली गांव में शिवकुमार का जन्म हुआ। माता-पिता ने प्यार से नाम दिया ददुआ। बचपन से ही पढ़ाई लिखाई में ज्यादा मन नहीं लगा। हां बड़े होने के बाद सरकारी नौकरी जरूर लग गई। शिवकुमार ने चपरासी की नौकरी शुरू कर दी थी। परिवार वालों ने उसकी शादी भी करवा दी, बच्चे भी हो गए, लेकिन इसी दौरान ददुआ का जिंदगी ने एक नया रूप लिया।

पिता की हत्या के बाद बना डाकू

ददुआ की द्वारा 1972 में घटी घटनाएं बहुत ही दुखद और गंभीर थीं। उनके पिता के साथ हुई मारपीट और बाद में हत्या के दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने उनके जीवन को पूरी तरह से बदल दिया। यह घटनाएं अन्यायपूर्ण और गैरकानूनी थीं, और इसे स्वतंत्रता और न्याय के मूल्यों के खिलाफ माना जा सकता है।

दूसरे गांव के एक जमींदार ददुआ के सामने उसके पिता के साथ मारपीट की। उन्हें कपड़े उतारकर पूरे गांव में घुमाया गया और उसके बाद कुल्हाड़ी से उनकी हत्या कर दी गई। ददुआ पर चोरी के आरोप लगाए गए और उसे जेल भेज दिया गया। इस घटना ने ददुआ का जीवन बदल दिया। उसने जेल में पुलिस वालों के साथ सांठगांठ कर जेल से छुटकारा पाया। इसके बाद उसने उस गांव में जाकर उस जमींदार समेत उसके घर के 9 लोगों की हत्या कर दी। इस हत्या के बाद ददुआ पूरी तरह से बदल गया था।

बीहड़ में ली राजा रंगोली की शरण

हत्या के बाद उसने बीहड़ की जंगलों में शरण ली। वहां उन दिनों गया कुर्मी और राजा रंगोली नाम के डाकुओं का दबदबा था। इसने इन दोनों को अपना गुरु बना लिया और उनके गैंग में काम करने लगा। यहां हथियार चलाने से लेकर तेंदु के पत्तों की तस्करी का सारा काम ददुआ ने सीखा। कुछ सालों बाद राजा रंगोली की एक मुठभेड़ में मौत हो गई। डाकू कुर्मी ने सरेंडर कर दिया। अब गैंग की कमान ददुआ के हाथ में थी। इतने सालों में ददुआ का डर वैसे ही आसपास के इलाकों में काफी फैल चुका था। वो इतना खतरनाक था कि वो अपने खौफ को बनाए रखने के लिए प्रेग्नेंट महिलाओं तक को नहीं छोड़ता था। गांव के लोगों की आंख निकालने की बातें भी ददुआ से जुड़ी हुई हैं।

तेंदू पत्तों के कारोबारियों से लेता था पैसा

ददुआ एक के बाद एक हत्याओं और किडनैपिंग को अंजाम दे रहा था। उसके निशाने पर होते थे तेंदू पत्तों के कारोबारी। वो उनकी किडनैपिंग करके उनसे फिरौती वसूलता था। पैसे न मिलने पर हत्या कर देता था। धीरे-धीरे ददुआ का खौफ इस कदर बढ़ गया उसके हिस्से के बिना तेंदू पत्तों का कारोबार संभव ही नहीं था। ददुआ के गैंग के पास काफी पैसा आने लगा। ददुआ का गैंग काफी अमीर माना जाता था। वो गरीब लोगों की मदद भी करने लगा। आसपास के गांवों में वो गरीब लड़कियों की शादियां करवाता, मजदूरों को कर्ज देता। एक वर्ग के लिए वो मसीहा बनने लगा। इस तरह कई गांवों में उसने अपनी पैठ बना ली।

बुंदेलखंड इलाके में था ददुआ का दबदबा

ददुआ पर 600 से ज्यादा मामले दर्ज थे, लेकिन कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा था। न सिर्फ उत्तर प्रदेश बल्कि राजस्थान और मध्यप्रदेश के गांवों में भी उसका नाम का आतंक था। कुछ लोग उससे प्यार करने लगे थे तो बाकी लोग उससे इतना डरते थे कि उसकी मर्जी के बिना गांवों में पत्ता भी नहीं हिलता था। ददुआ का फरमान हर किसी मानना होता था। बुंदेलखंड में ददुआ दहशत का पर्यायवाची बन चुका था। राजनेताओं को भी ये बात पता थी। उसने राजनीति में भी दखल देना शुरू कर दिया था। उसके फरमान से ही चुनावों में गांव से वोट पड़ते थे। वो ये तय करने लगा था कि किस नेता को वोट दिया जाएगा।

राजनीति में निभाता था किंग मेकर का रोल

यूपी के नेताओं को भी उसकी ताकत का अंदाजा हो चुका था। कहते हैं रात में नेता उसके पास जाया करते थे अपनी पार्टी को वोट दिलवाने के लिए। कहते हैं उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की 20 विधानसभा सीटों पर उसका इतना दबदबा था कि यहां के विधायक वो ही तय करता था। कई राजनीतिक पार्टियां ददुआ से जुड़ी हुई थीं। कुर्मी समाज के लोगों के लिए ददुआ उनका भगवान था और ये माना जाता था कुर्मी समाज का वोट सिर्फ ददुआ के कहने पर ही दिया जाएगा। सालों तक वो यूपी की राजनीति में वो इसी तरह बीहड़ से अहम रोल निभाता रहा।

2007 में एसीटीफ से मुठभेड़ में हुई हत्या

पहले ददुआ बीएसपी के विधायक बनाता रहा, लेकिन साल 2004 में जब समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो वो उनके साथ जुड़ गया। समाजवादी पार्टी के इशारे पर उसने बीएसपी के कई नेताओं की हत्या करवाई। अगली बार जब दोबारा मायावती की सरकार बनी तो उस सरकार ने ऑपरेशन ददुआ की शुरुआत की। ददुआ के आतंक को खत्म करने के लिए यूपी एसटीएफ की शुरुआत की गई। पैसे को पानी तरह बहाया गया। ददुआ पर 10 लाख का इनाम घोषित किया गया। आखिरकार साल 2007 में एक ऑपरेशन के दौरान पुलिस मुठभेड़ में इस खूंखार डाकू को मार गिराया गया।

आज भी मौजूद है ददुआ का मंदिर

ददुआ ने साल 1996 फतेहपुर के पास नरसिंहपुर में एक मंदिर का निर्माण करवाया था। दरअसल एक बार वो अपने गैंग के साथ पुलिस के हत्थे चढ़ गया था। दोनों तरफ गोलियां चल रही थीं। ददुआ के सारे साथी मारे गए थे। उसी वक्त इस डाकू ने मन्नत मांगी कि अगर ये बच गया तो मंदिर का निर्माण करवाएगा। उस दिन ददुआ की जान बच गई और फिर वहां इसने एक मंदिर बनवाया। इसकी मौत के बाद उस मंदिर में ददुआ और उसकी पत्नी कृष्णा की फोटो भी स्थापित की गई है। लोग आज भी वहां ददुआ की पूजा करते हैं और उसे अपना भगवान मानते हैं।

कुर्मी समाज के लिए मसीहा

भले ही अपने स्याह आतंक की वजह से ददुआ ने आम जनता में भय और दहशत का माहौल बना दिया हो। लेकिन कुर्मी बिरादरी दस्यु सरदार को किसी मसीहा से कम नहीं मानती थी। कारण विषम परिस्थितियों में बिरादरी की खुलकर मदद और जिले में दादूशाही का अंत करके ददुआ ने बिरादरी के लोगों को आगे आने का मौका दिया था। चित्रकूट में ब्राहमण और कुर्मी बिरादरी के बीच वर्चस्व को लेकर हमेशा से ही तलवारे खिंची रहा करती थीं। ददुआ के प्रादुर्भाव से कुर्मी बिरादरी को एक ताकत मिली और लोग मुखर होकर विरोध करने लगे। धीरे-धीरे हर जगह कुर्मी बिरादरी के लोगों ने अपनी एक जगह बना ली। लिहाज़ा आज भी कहे कोई कुछ भी लेकिन लोगों के मन में छवि ददुआ की मसीहा जैसी ही है और सियासत का जिक्र ददुआ के आतंक और फरमानों के बगैर अधूरा रहता है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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