प्रमोद दीक्षित मलय
आज दुनिया विभीषिका, विध्वंस एवं विनाश की ओर बढ़ रही। मानवता, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य एवं आदर्श सामाजिक सद्भाव एवं समरसता ताक पर रखे हुए हैं। प्रकृति का शोषण एवं धरा के उदर पर प्रहार जारी है। संस्कृति की संवाहक सरिताओं के सीने पर मशीनें गरज रही हैं। प्रकृति कराह रही है। ऐसे समय में एक संवेदनशील रचनात्मक मन तटस्थ होकर शांत एवं संतुष्ट हो निश्चिंत नहीं हो सकता। उसके मन की वेदना, पीड़ा, कसक तरल होकर शब्दों का आश्रय ले बह निकलती है जिसके तीव्र प्रवाह में स्वस्थ समाज में उग आये अमानवीयता के पठार एवं कंटीली झाड़ियाँ धराशायी हो बह जाती हैं और बचता है समतल उर्वर चेतनायुक्त रचनात्मक फलक जिसमें स्वप्न शब्दों का जामा पहन साकार हो मानवता के पक्ष में शंखनाद करते हैं और सर्जना की बांसुरी से स्वर फूटते हैं “मीत बनते ही रहेंगे” जो व्यष्टि से समष्टि की यात्रा कर संदेश देते हैं कि मानव के लिए एक सुख, शांति, समृद्धिमय बेहतर दुनिया की रचना करने के भगीरथ प्रयत्न अद्यतन गतिमान हैं।
प्राथमिक शिक्षा में शिक्षिका के रूप में फतेहपुर में सेवारत कवयित्री सीमा मिश्रा की कामायनी प्रकाशन प्रयागराज से प्रकाशित प्रथम काव्य कृति ‘मीत बनते ही रहेंगे’ जीवन के प्रति आशा एवं विश्वास के संदेश की ध्वजवाहक है। उनकी रचनाओं में एक ओर मानवता के प्रति करुणा, मधुरता एवं संवेदना का स्वर सुनाई देता है तो वहीं दूसरी ओर संस्कृति, प्रकृति रक्षण एवं धरा के प्रति अनुराग का प्रकटीकरण भी दिखाई देता है। पावन प्रेम की अभिव्यक्ति है तो स्नेहिल विहान के आगमन का स्वागत भी। दुहिता की खिलखिलाती मुस्कान की आभा है तो उर में सँजोये धरा से धैर्य का प्रकाश भी। स्त्री जीवन के प्रखर एवं धुँधले चित्रों का कोलाज है तो माँ की ममता का स्तवन भी। श्रम की महिमा का गौरव गान है तो पिता के श्रम-श्वेद का अवदान भी। वस्तुत: ‘मीत बनते ही रहेंगे’ के पृष्ठ जीवंतता, कर्मठता, सहकारिता, मधुरता एवं आत्मीयता के मृदुल रंगों से रँगे हुए हैं जहाँ सुंदर समाज रचना का समता पथ पाठकों को अविराम बढ़ते रहने का आह्वान करता है। ईश्वर से मिलन की उत्कंठा एवं चाह की अभिव्यक्ति को सांसारिक बंधनों में बंधे मानव की भाव धारा का दृश्य चिंतन का वितान रचता है –
मैं सागर की मछली तेरा पर्वत पर है गाँव रे।
कैसे आऊं पास तुम्हारे बंधे हुए हैं पांव रे।।
कवयित्री सीमा मिश्रा मानव व्यवहार की खासी पहचान रखती हैं। गीत ‘गिरगिट सा रंग’ में आदमी के बदलते सम्बंध, स्वार्थ और दोहरे चरित्र एवं चेहरों पर ओढ़े मुखौटों को नोचते हुए कहती हैं –
आगे बढ़ना दूजों का वह देख न पाते।
चुन-चुन शूल बिछाते और मुस्काते जाते।
मुस्कानों से आग लगाते आज यहाँ के लोग।
गिरगिट सा रंग बदलते आज यहाँ के लोग।
अमृत पीकर जहर उगलते आज यहाँ के लोग।।
हिन्दी भाषा आजादी के संघर्ष में स्वराज्य प्राप्ति का माध्यम बनी। जाति-धर्म, ग्राम-शहर, क्षेत्र के भेदों से परे हर भारतीय के हिन्दी भाषा के प्रति प्रेम का प्रकटीकरण दृष्टव्य है –
स्वराज्य का मंत्र फूँक कर आजादी की डगर चली।
गली मोहल्ले कूक डोलती कोयल की मधु तान भरी।
हिन्दी कोमल मन की भाषा देती नव आयाम रे।
भारत के माथे की बिन्दी आओ करें प्रणाम रे।।
‘मीत बनते ही रहेंगे’ के गीतों में भक्ति एवं दर्शन की रसधारा भी प्रवाहित हुई है –
जीवन है एक रंगमंच सब खेलें अपना खेला।
किरदारों का मंचन प्राणी करता यहाँ अकेला।
ओस की बूँद न प्यास बुझाये कूप खोदना पड़ता।
भानु द्वारा खटकाते फिर भी द्वार खोलना पड़ता।
एक अन्य रचना ‘समय’ की कुछ पंक्तियाँ देखें –
समय है वो खिलौना नचाये अँगुलियों पर।
कहीं पतझड़ की रंगत दिखाये तितलियों पर।
कभी पाने का सुख तो कभी खोने का दुख है।
समय बादल के घर सा सजा है बिजलियों पर।।
गीत ‘श्रम का वरण’ में श्रम के महात्म्य का सुंदर चित्रांकन हुआ है –
हाथ का कमाल है कि बोलते पत्थर।
भाग्य निर्बल का भी खोलते पत्थर।
भगीरथ सा कोई करता श्रम का वरण।
तब होता धरती पर गंगा का अवतरण।।
इसी प्रकार परिवार, समाज, प्रकृति, अध्यात्म, सम्बंध, नारी जीवन, ममता, गुरु महिमा आदि विषय क्षेत्रों पर सुंदर मधुर गीत रचे गये हैं। गीतों की भाषा सरल और सहज सम्प्रेषणीय है। प्रतीक एवं बिम्बों का सुंदर अर्थपूर्ण प्रयोग रचनाओं को प्राणवान बना रहा है। कथ्य में प्राचीनता है तो नवलता-धवलता भी। इनकी रचनाओं में जीवन की समस्यायों के समाधान हैं, इनमें सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का स्वर गुंजायमान है। ‘आशा का दीप’ एक ऐसी ही रचना है –
रहे शक्ति के सदा उपासक, बुद्ध के हम अनुयायी।
संस्कार के कोमल धागे, शत्रु काट नहिं पाये।
जाति धर्म के भेद मिटायें नेह से गले लगाकर हम।
आशा का दीप जलाएँगे, द्वारे-द्वारे जाकर हम।।
कवयित्री सीमा मिश्रा की रचनाएँ सुखी, शांतिमय भविष्य की राह दिखाती हैं। झंझावातों से जूझती वह वाणी का माधुर्य बनाये रखने की पैरवी करती हैं –
शब्द चिंतन हो अगर तो गीत बनते ही रहेंगे।
वाणी में माधुर्य हो तो मीत बनते ही रहेंगे।।
सीमा मिश्रा का मैत्रीभाव का यह पावन संदेश सम्पूर्ण विश्व में सुना, समझा और व्यवहार में लाया जायेगा क्योंकि दुनिया को बचाने एवं सुंदर रहने लायक बनाये रखने के लिए मैत्रीपूर्ण मानवीय आचरण एवं कार्य-व्यवहार के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं। मुझे पूर्ण विश्वास है ‘मीत बनते ही रहेंगे’ की काव्य-कल्लोलिनी में अवगाहन कर पाठक शब्दामृत का रसपान कर तृप्ति एवं संतुष्टि का अनुभव करेंगे। पुस्तक का आकर्षक आवरण राज भगत ने तैयार किया है। मोटे पीले कागज में सुंदर मुद्रण हुआ है। वर्तनी की त्रुटियाँ नहीं मिलीं। यह कृति साहित्य जगत में समादृत होगी, ऐसा विश्वास है।
कृति – मीत बनते ही रहेंगे, कवयित्री – सीमा मिश्रा, प्रकाशक – कामायनी प्रकाशन, प्रयागराज, प्रकाशन वर्ष – 2022, पृष्ठ – 111, मूल्य – ₹265/-
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."