मनीषा भल्ला की खास रिपोर्ट
सुनाने को इन विधवाओं के पास इतने दुख हैं कि एक बार चुपचाप इन्हें सुनना शुरू करो टीस की अंतहीन दास्तानें हैं। जैसे किसी शॉल का एक सिरा पकड़ों तो खुद-ब-खुद बाकी धागे उधड़ते चले जाते हैं, लेकिन दुनिया को शायद इनकी खबर नहीं, क्योंकि यहां रहने वालों की आवाजें चारदीवारी की ऊंची दीवारों से बाहर आती ही नहीं हैं।
‘दस बीघा जमीन और पांच पक्के बने कमरे थे। पति ने जीते जिंदगी सात बीघा जमीन बेटे को और चौथाई बीघा से कुछ कम जमीन छोटी बेटी को दे दी। दो बीघा जमीन अपने पास रखी। उनकी मौत के बाद जमीन के लालच में बेटे ने बड़ी बेटी को जला दिया। मुझसे सारी जायदाद जबरन लिखवा ली और 110 रुपए देकर मुझे धक्के मारकर घर से निकाल दिया।’
इतना कहते-कहते 70 साल की इंद्रासन देवी रो पड़ीं। वे बनारस के मणिकर्णिका घाट पर बने एक विधवा आश्रम में रहती हैं। कहती हैं- कहने को तो जी रही हूं, लेकिन हमारा हाल जिंदा लाश की तरह है। न तो अपना हक मिला, न परिवार और न समाज का साथ।
इंद्रासन देवी की तरह ही बनारस में हजारों विधवा मौत के इंतजार में चारदीवारी के भीतर दम घोंट रही हैं। मानो उनकी सारी इच्छाएं पति की चिता पर राख के अंगारों की तरह हवा में उड़ गई हों। इन्हीं विधवाओं का हाल जानने मैं पहुंची मणिकर्णिका घाट स्थित बिडला विधवा आश्रम।
करीब 7×7 का कमरा। इसी में सोना और रसोई भी। यहां मेरी मुलाकात 43 साल की अन्नपूर्णा से हुई। वे इस आश्रम की सबसे कम उम्र की विधवा हैं। पहले फ्लोर पर बने इस आश्रम में अभी 6 विधवा रह रही हैं। यहां पुरुषों की एंट्री नहीं है और न ही आश्रम के मैनेजमेंट में कोई पुरुष है।
अन्नपूर्णा कहती हैं, ‘आश्रम तो आश्रम है, यहां कौन रहना चाहेगा, लेकिन बाहर की दुनिया भी तो अकेली औरत की दुनिया नहीं है। 12 साल पहले विधवा होने के बाद जब मैं यहां आई थी, तो रोज फोन आते थे, लोग गंदी-गंदी बातें करते थे।’
पति की मौत के बाद ससुराल वालों ने मुझे घर से निकाल दिया। इसके बाद मैं पिता के घर जाकर रहने लगी, लेकिन एक साल बाद उनकी भी मौत हो गई। उसके बाद तो वहां रहना मुश्किल हो गया।
सगी बुआ और चाचा का कहना था कि आज हम तुम्हें रख भी लेंगे, तो हमारे मरने के बाद बच्चे तुम्हें निकाल देंगे, इसलिए बेहतर है तुम विधवा आश्रम चली जाओ। बुआ के बेटे ने ही मुझे इस आश्रम में रखवाने के लिए दौड़-धूप की थी।
कुछ साल पहले गॉलब्लैडर में स्टोन हो गया था। अस्पताल वाले ऑपरेशन के लिए 20 हजार रुपए मांग रहे थे। जैसे-तैसे करके एक अस्पताल से 15 हजार रुपए में बात की, लेकिन वहां के डॉक्टरों ने ऑपरेशन के नाम पर मेरे खाने की नली में आंत जोड़ दी। इसके बाद तो जिंदगी नर्क हो गई।
कर्ज लेकर इसका इलाज कराया, लेकिन आज भी बीमार रहती हूं। दाल-सब्जी नहीं खा सकती, सिर्फ उबला खाना ही खाना है। 8 हजार रुपए में महीने की दवाई आती है, लेकिन पैसों की तंगी की वजह से एक टाइम की ही दवा 4 हजार रुपए में खरीदती हूं।
आश्रम में हर विधवा को महीने का राशन मुफ्त मिलता है, लेकिन दूध और दवाइयां खुद खरीदनी होती हैं।
कुछ साल पहले जाने-माने उद्यमी बिंदेश्वर पाठक ने इस आश्रम को अडॉप्ट कर लिया, तब से हर विधवा को दो-दो हजार रुपए महीने मिलते हैं, लेकिन अन्नपूर्णा को विशेष रूप से 5 हजार रुपए महीने मिलते हैं, ताकि वे अपने लिए दवा खरीद सकें।
विधवाओं को अपना खाना खुद बनाना होता है। जिसका शरीर काम करेगा, वह खाना बना लेती है और जिसका शरीर नहीं चलता, वह ऐसे ही सो जाती है या फिर कोई पड़ोसन मदद कर दे तो कर दे। बिंदेश्वर पाठक की संस्था ने यहां इंवर्टर का प्रबंध तो कर दिया है, लेकिन ट्रस्ट की तरफ से फ्रिज या टीवी न मिली है और न ही रखने की इजाजत है।
इसके बाद मेरी मुलाकात 73 साल की शकुंतला देवी से हुई। वह 16 साल से यहां रह रही हैं। शादी के 18 साल बाद कैंसर से उनके पति की मौत हो गई। पांच साल वे ससुराल में आगरा रहीं, लेकिन इस दौरान ससुराल वालों ने उनकी जिंदगी तबाह करके रख दी।
देवरानी न तो उन्हें खाने के लिए देती थी, न ही उनकी बेटी को। ऊपर से जब मन करे बेटी की पिटाई भी कर देती थी।
शकुंतला कहती हैं,’मैं तो जैसे-तैसे दुख झेलकर भी गुजारा कर लेती, लेकिन बेटी के साथ जो मारपीट हो रही थी, वो मुझसे देखा नहीं जाता था। मैं तो अपने भाई को बिजली का बिल भी देती थी।
इतना ही नहीं घर बनवाने के लिए उसे 5 हजार रुपए भी दिए, लेकिन जब बेटी 15 साल की हुई, तो भाई को लगने लगा कि इसकी शादी भी करनी पड़ेगी, तो उन्होंने मुझे और बेटी को धक्के मारकर घर से निकाल दिया।’
शकुंतला कहती हैं, ‘जो पढ़ी लिखी हैं, वे तो फिर भी कुछ कर लेती हैं, लेकिन हमारे जैसों की जिंदगी तो मिट्टी है। हम क्या कर सकते। कोई चार लात मारेगा तो रोकर रह जाएंगे। आश्रम में भी हमें जैसा रखा जाता है, वैसी जिंदगी काटते हैं। और क्या कहूं, इतना ही है कि हम विधवाओं की कोई जिंदगी नहीं है। बस मौत के इंतजार में जी रहे हैं।
70 साल की इंद्रासन देवी बिहार के बेगूसराय की रहने वाली हैं। वे कहती हैं- अपने पास दस बीघा जमीन और पांच पक्के बने कमरे थे। पति ने जीते जिंदगी सात बीघा जमीन बेटे को दे दी, चार कट्ठा जमीन छोटी बेटी के नाम कर दी। जबकि दो बीघा जमीन अपने पास रखी।
उनकी मौत के बाद मैंने पांच कट्ठा जमीन बड़ी बेटी के नाम पर दी। पता नहीं कहां से इसकी खबर बेटे को मिल गई। इसके बाद तो उसने और बहू ने जीना मुहाल कर दिया।
बड़ी बेटी नौकरी की तैयारी के लिए हमारे ही घर रहती थी। जमीन विवाद के बाद बेटे ने केरोसिन डालकर उसे जलाने की कोशिश की। बेटी थोड़ी जल भी गई, जिसके बाद मैं उसे अस्पताल ले गई।
तब तक बेटा भी वहां पहुंच गया। उसने डॉक्टर से सेटिंग करके बेटी को मरा घोषित करा दिया और कहने लगे कि इसे बदलापुर घाट ले जा रहे हैं। रास्ते में उसने मेरे सामने ही बेटी को नदी में फेंक दिया।
इसके बाद मैं छोटी बेटी के पास चली गई, लेकिन वहां भी कलह मच गई। फिर लौटकर बेटे के पास पहुंची। एक दिन उसने मुझपर हाथ उठाया।
जबरन मुझसे सारी जमीन-जायदाद अपने नाम करवा ली और 110 रुपए देकर मुझे घर से निकाल दिया। कई दिनों तक बेगूसराय में इधर-उधर भटकती रही। अब बेटी की मदद से इस आश्रम में पहुंची हूं।
यहां से मैं ललिता घाट स्थित पशुपति नाथ के नेपाली मंदिर के लिए निकल गई। लकड़ी के बने इस मंदिर में चार सीढ़ियां चढ़ने के बाद एक हॉल में पहुंची। कम रौशनी, जमीन पर बिखरे सामान, आसपास सटे पलंग और बीमार महिलाएं। एक ही हॉल है, जहां सात विधवा रहती हैं। साथ में आश्रम की देखभाल करने वाले पुरुष भी।
तकरीबन 300 साल पुराने इस मंदिर का संचालन नेपाल सरकार करती है।
गोपाल प्रसाद इस मंदिर के मैनेजर हैं। वे कहते हैं- यहां महिलाओं को खाना, पीना और रहना फ्री है। कोई नकद पैसा नहीं मिलता और इसकी जरूरत भी नहीं है। पहले इनके लिए आश्रम में अलग बिल्डिंग थी, लेकिन उसके ढहने के बाद यहां शिफ्ट करना पड़ा।
वे कहते हैं, ‘काशी में कई महिलाएं मृत्यु की इच्छा लेकर आती हैं कि उन्हें मोक्ष मिल जाए और कई मजबूरी में।’
देश में 5 करोड़ विधवा, वृंदावन और बनारस में सबसे ज्यादा
वी मोहिनी गिरि विडो एसोसिएशन की फाउंडर हैं। वे राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं। कहती हैं- देश में 5 करोड़ से ज्यादा विधवा हैं। सबसे ज्यादा विधवा वृंदावन, गया बनारस में रहती हैं। फिलहाल बनारस में इनकी संख्या 4 हजार के करीब है।
2018 में केंद्र सरकार ने बनारस में एक हजार विधवा आश्रम बनाने की घोषणा की थी, लेकिन अभी तक इसका खास असर देखने को नहीं मिल रहा है। ज्यादातर आश्रम मंदिरों के ही हैं।
बनारस के नेपाली आश्रम, बिरला आश्रम, लालमुनि आश्रम, मुमुक्षु भवन, अपना घर, आशा भवन, मां सर्वेश्वरी वृद्धाश्रम, रामकृष्ण मिशन, राजकीय वृद्धाश्रम दुर्गाकुंड, भगतुआ वृद्धाश्रम, मदर टेरेसा आश्रम शिवाला जैसे आश्रमों में ये विधवाएं रहती हैं।
आश्रम में रहना-खाना, पैसे की लिए भीख का आसरा
देश में विधवा पेंशन स्कीम के तहत विधवाओं को हर महीने 300 रुपए केंद्र सरकार देती है। ये रकम सीधे उनके खाते में आती है। इसके अलावा यूपी सरकार हर महीने 400 रुपए देती हैं, लेकिन वृंदावन और बनारस की महिलाओं को इस स्कीम का लाभ नहीं मिल पाता है। बनारस के आश्रमों में इन विधवाओं को खाने और रहने की सुविधा है। बिड़ला आश्रम में दो हजार रुपए महीने भी मिलता है, लेकिन बाकी आश्रमों में नकद पैसा नहीं मिलता। ऐसे में कई महिलाएं भीख मांगकर गुजारा करती हैं।
बनारस की विधवाएं मौत के इंतजार में जी रही हैं
वी मोहिनी गिरि कहती हैं कि हमारा संस्थान इन विधवाओं की फिर से शादी कराने के लिए काम करता है। हमने अब तक 7 हजार से ज्यादा विधवाओं की शादी कराई है।
वृंदावन की ज्यादातर विधवाएं कम उम्र की होती हैं, उनकी शादी भी हो जाती है, लेकिन बनारस की ज्यादातर विधवाएं अपने उम्र के अंतिम पड़ाव पर हैं। एक-एक दिन करके वे मौत का इंतजार कर रही हैं। (साभार)
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."