टिक्कू आपचे की रिपोर्ट
‘मेरा नाम काजी जुबेदा खातून है। मुंबई के भिंडी बाजार में जन्मी और पली-बढ़ी। 10 साल की थी, तो मां का इंतकाल हो गया। पिता ने दूसरी शादी कर ली। हम नौ भाई-बहन थे और सबसे बड़ी मैं। सौतेली मां बहुत अच्छी तो नहीं थी, लेकिन मुझे उनके बारे में कोई खास बात नहीं कहनी। वो जैसी भी थी बस ठीक थी।
16 साल की थी, तो पड़ोस के लड़के से प्यार हो गया। तब मेरी मंगनी हो चुकी थी, लेकिन मैं अपने प्रेमी से निकाह रचाने पर अड़ गई। घरवालों ने बहुत समझाया कि लड़का किसी काम का नहीं है, कमाता नहीं है, सारी उम्र पछताओगे, लेकिन मैंने किसी की एक नहीं सुनी। मुझपर तो इश्क का भूत सवार था।
घर छोड़ दिया और अकेले ही उस लड़के के साथ निकाह कर ली। लड़के का पूरा परिवार निकाह में शामिल हुआ। मेरी तरफ से सिर्फ बहन ही शामिल हो सकी।
दूसरी लड़कियों की तरह मैंने भी बहुत सारे ख्वाब पाले थे, लेकिन ससुराल में पहले ही दिन से मेरे ख्वाब टूटने लगे। वहां न तो कोई सुनने वाला था, न कोई मुझसे बात करने वाला। कुछ दिन बाद लगने लगा कि अब्बू सही कहते थे।
कम से कम वहां भरपेट खाना तो मिलता था। ससुराल में खाने के लिए एक चपाती और थोड़ी सी सब्जी मिल जाए तो लगता था किसी ने एहसान कर दिया हो। एक छोटे से कमरे में 6 लोग रहते थे। पति से कभी-कभार पैसे मांगती, तो साफ मना कर देता था। मैं तो वहां एक-एक दाने को, कपड़े को, हर चीज के लिए तरस गई। धीरे-धीरे मैंने इसे अपना नसीब मान लिया। सोचा जैसे तैसे उम्र गुजार लेंगे।
ऐसा हुआ नहीं। जब भी कहीं जाने के लिए घर से बाहर निकलती, तो पड़ोस के लोग हालचाल पूछते थे। इतना पूछने पर शौहर सबके सामने पीटने लगता था। मुझे लगा कि अब बर्दाश्त नहीं होगा।
तंग आकर अब्बू के घर चली गई। वे घर पर नहीं थे। सौतेली मां कहने लगी कि हमारे घर मत आया करो। तुम्हारी छोटी बहन भी है। तुम्हारे घर में आने से उसकी शादी नहीं होगी। उसके बाद मैं अपने घर कभी नहीं गई।
इसी बीच मैं प्रेग्नेंट हो गई, लेकिन खाना न मिलने की वजह से भूख बहुत लगती थी। एक दिन तेज बारिश हो रही थी। सारी दुकानें बंद थीं, सड़कों पर कमर तक पानी भर गया था। दुकानों के अंदर भी पानी घुस गया था। मैंने देखा कि राशन की दुकान से दाल और चावल जैसी चीजें सड़क पर बह रही हैं। फिर क्या था, मैं सड़क पर उतर कर दाल और चावल बीनने लगी। ये हाल था मेरा।
कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं, किससे कहूं, किसके पास जाऊं।
इसी बीच मेरा बेटा जन्मा, लेकिन यह खुशी भी ज्यादा दिन तक नही रही। 6 महीने बाद ही उसे ज्वाइंडिस हो गया। पैसे न होने की वजह से उसका इलाज नहीं हो सका और उसकी जान चली गई। बेटे की मौत के बाद मैं पागल सी हो गई। सारा दिन दरगाह पर बैठी रोती रहती। अब्बू से थोड़ा लगाव था तो मैं कभी-कभी उनके पास चली जाती थी।
एक दिन अब्बू कुछ लोगों के साथ बांद्रा बैंड स्टैंड पर मेले में घूमने जाने वाले थे। मैं भी उनके साथ हो ली। हमारे साथ एक पड़ोसी था। हम सबने चर्च के बाहर फोटो भी खिंचवाई। जब वो फोटो अपने पति को दिखाई, तो उसने पूरी रात मुझे मारा कि तुमने फोटो क्यों खिंचवाई। सारी रात चीखती रही, गिड़गिड़ाती रही, लेकिन वो मारता रहा।
सुबह होने पर मैंने फैसला कर लिया कि अब यहां नहीं रहूंगी और घर से भाग गई। उधर पति मेरे पीछे चाकू लेकर घूम रहा था। उसके सिर पर कत्ल का खून सवार था। भिंडी बाजार की गलियों में जान बचाती इधर-उधर मारी फिर रही थी। कहीं कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा था।
इसके बाद पुलिस स्टेशन पहुंची। वहां बताया कि पति मुझे मारना चाहता है। मुझे तलाक चाहिए, लेकिन मदद नहीं मिली। फिर अपने अब्बू के एक दोस्त महताब काजी के पास गई और कहा कि मुझे तलाक दिलवा दीजिए। उन्होंने पति को बुलाकर मेरा तलाक करवा दिया। इसके बाद अब्बू के साथ अपने घर आ गई।
यहां सौतेली मां घर में कलह करने लगी। वो अब्बू से कहने लगी कि अगर जुबेदा यहां रहेगी, तो मैं जहर खा लूंगी। अब्बू परेशान हो गए। वह मुझे बहन के घर पर छोड़ आए। वहां 20-25 दिन रही। हमारा एक पड़ोसी था अब्दुल गफ्फूर शेख। उसके साथ मैं मेला जा चुकी थी। उसकी पत्नी की मौत हुई, तो अब्बू ने उसके साथ मेरा निकाह करा दिया।
भला इंसान था वो। उसके साथ जिंदगी अच्छी कटने लगी। एक दिन की बात है ननद का बेटा मेरे पास आया और बोला कि अम्मी को अब्बू ने पानी वाले पाइप से बहुत मारा है। यह सुनकर मैं उसके घर गई। ननद के शरीर पर जख्म थे। उसे लेकर दादर की शैतान पुलिस चौकी गई।
पहली दफा मैं किसी दूसरी औरत के लिए पुलिस चौकी गई थी। मैंने ननद के पति को जेल भेजवाया और उसकी वहां जमकर पिटाई भी हुई। उसी दिन मैंने तय किया कि अब ऐसी औरतों की मदद करूंगी। उस दिन के बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मेरे पास पैसे भले नहीं थे, लेकिन खुद के जख्म थे, जिसे हरा रखा था।
यहां से मेरे जीवन की दूसरी पारी शुरू हुई। तीन तलाक का कानून बनने से पहले की बात है। मेरे पास तलाक के मामले आते थे। कई मामलों में तलाक की वजह ऐसी होती थी कि मेरे पांव तले भी जमीन खिसक जाती। एक दफा काजी ने एक महिला को बैंक के पैसे वाले फॉर्म पर तलाकनामा भेज दिया, उस लिफाफे के बाहर भी बैंक का पता लिखा था।
महिला ने सोचा कि उसके पति ने उसे चेक भेजा है, जबकि वो तलाकनामा था। उसने उसपर साइन कर दिए और उसका तलाक हो गया। वह रोती हुई मेरे पास आई। मैं काजी के पास गई और उससे खूब झगड़ा किया। किसी तरह से उस औरत को 75,000 रुपए मुआवजा दिलवाया।
काजियों ने तीन तलाक के बहाने औरतों की हालत भिखारी जैसी कर दी थी। वे न तो लड़की की उम्र देखते न लड़के की उम्र। तलाक को मजाक समझ रखा था। मैंने कहा कि बस अब बहुत हो गया। हम न सरकार से हक मांगेंगे न काजियों के पास जाएंगे। अपनी लड़ाई खुद लड़ेंगे। महिला काजी बनाएंगे। कुरान और संविधान इसकी इजाजत देता है।
बस यही से मेरी काजी बनने की जर्नी शुरू हुई। 2016 में मेरे साथ 15 महिलाओं ने जयपुर में काजी बनने की ट्रेनिंग ली। 3 महीने बाद हम काजी बन गए।
फिर क्या था, काजियों का कलेजा छलनी हो गया। मानो कोई कयामत आ गई हो। कहने लगे- तुम औरत हो, तुम्हें मजब की समझ नहीं। घर में रहो और बच्चे पैदा करो। तुम लोगों के सामने स्टेज पर निकाह कैसे पढ़वा सकती हो। क्या लोगों के सामने अपना मुंह नंगा करोगे।
जो कभी नहीं हुआ, वो अब भी नहीं होगा। तुम औरतें किसी सूरत में निकाह नहीं पढ़वा सकतीं, लेकिन मैंने भी ठान ही लिया था कि जो पहले नहीं हुआ, वो अब होकर ही रहेगा।
अभी कोलकाता में और मुंबई में 2 निकाह ऐसे हुए हैं, जो महिला काजी ने पढ़वाए हैं। लड़की कि जिद्द थी कि उसे महिला काजी से ही निकाह पढ़वाना है। हालांकि, ये सब ऐसे ही नहीं हुआ है। इसके लिए लंबी लड़ाई लड़ी है। बहुत कुछ गंवाया है।
मैं महिलाओं के हक के लिए लड़ तो रही थी, लेकिन फैसला मर्द काजी ही कर रहे थे। मुझे लगा ऐसे तो ये लड़ाई अधूरी रह जाएगी। इसके बाद ही मैंने काजी बनने का फैसला किया, लेकिन ये बात मर्द काजियों को नागवार गुजरी। वे हर मंच से हमारे खिलाफ बोलने लगे। मीडिया के जरिए खूब दवाब बनाने की कोशिश की। धमकी भी दी।
इन सब के बाद भी जब हम पीछे नहीं हटे, तो वे हमारी फैमिली को ब्लैकमेल करने लगे। बच्चों को भड़काना शुरू किया। बच्चों पर इसका असर भी हुआ और उनसे इस बात को लेकर मेरी बहस भी हुई।
बड़ा बेटा मुझसे लगातार दो दिन तक झगड़ता रहा। फिर मैंने गुस्से में उसे अपनी कहानी सुनाई। सबकुछ बताया जिससे मैं गुजरी थी। इसके बाद मेरे बेटे ने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। और हमेशा साथ दिया।
इसी तरह जब हमने हाजी अली में औरतों के न जाने का मामला उठाया, तो हमें टारगेट किया गया। यहां तक कि कोर्ट में भी जलील किया गया। नेता, अधिकारी, समाज के लोग किसी ने भी हमारा साथ नहीं दिया। औरतों की एंट्री को लेकर सभी ने मुंह में दही जमा लिया।
मुझे याद है कि मैं और नूरजहां सफिया जब हाजी अली के प्रतिनिधि से बात कर रहे थे, तो वे जोर से बोले कि तुम्हें तो मुझसे बात भी नहीं करनी चाहिए। तुम्हें तो घर से बाहर भी नहीं निकलना चाहिए। नंगे सिर घर से निकलकर मुझसे बात कर रही हो, शर्म है कि नहीं।
जब बातचीत का रास्ता नहीं दिखा, तो हम बॉम्बे हाईकोर्ट गए। यहां दारगाह के प्रतिनिधियों ने कहा कि औरतों को माहवारी आती हैं। उनके खून से सने पैड यहां-वहां पैरों में पड़े रहते हैं। औरतों की परछाई अच्छी नहीं होती। इन सबके बाद भी हम न केवल बॉम्बे हाईकोर्ट में जीते बल्कि सुप्रीम कोर्ट में भी जीत मिली।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."