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31 January 2025 3:33 am

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अबूझमाड़ का अबूझ संघर्ष: धर्म, परंपरा और न्याय के बीच उलझी “अंतिम विदाई”

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हरीश चन्द्र गुप्ता की रिपोर्ट

छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग, अपनी घनी जंगलों से घिरी अनूठी संस्कृति और आदिवासी परंपराओं के लिए जाना जाता है। इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण भाग अबूझमाड़ है, जो आज भी बाहरी दुनिया के लिए एक रहस्य बना हुआ है। लेकिन यहां की सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक आस्थाएं कभी-कभी लोगों के लिए संघर्ष का कारण बन जाती हैं।

ऐसा ही एक मामला छिंदवाड़ा गांव में सामने आया, जहां एक व्यक्ति अपने पिता को अपने ही गांव में दफनाने से वंचित कर दिया गया। यह घटना न केवल सामाजिक भेदभाव और धार्मिक असहिष्णुता को उजागर करती है बल्कि यह भी दिखाती है कि कानून और परंपराओं के बीच टकराव आम जनता के जीवन को कैसे प्रभावित कर सकता है।

एक पादरी की अंतिम यात्रा पर विवाद

7 जनवरी 2024 को सुभाष बघेल नामक व्यक्ति का निधन हुआ। वे एक ईसाई पादरी थे और उनके परिवार की इच्छा थी कि उन्हें उनके पूर्वजों के कब्रिस्तान में ही दफनाया जाए। लेकिन जब उनके बेटे रमेश बघेल ने अपने पिता का अंतिम संस्कार करने की कोशिश की, तो गांववालों ने इसका विरोध किया।

गांववालों का कहना था कि सुभाष बघेल ने ईसाई धर्म अपना लिया था और इसलिए उन्हें पारंपरिक कब्रिस्तान में दफनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। विवाद इतना बढ़ा कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट की दो न्यायाधीशों की पीठ इस मामले पर एकमत नहीं थी। एक न्यायाधीश ने रमेश के पक्ष में फैसला दिया, जबकि दूसरे ने कहा कि अंतिम संस्कार केवल आरक्षित कब्रिस्तान में ही किया जाना चाहिए। अंततः आदेश दिया गया कि सुभाष बघेल को जगदलपुर से 30-35 किलोमीटर दूर करकापाल के कब्रिस्तान में दफनाया जाए।

रमेश बघेल और उनकी मां यह समझने में असमर्थ थे कि आखिर उनका कसूर क्या था। उनके दादा और बुआ को तो पहले इसी कब्रिस्तान में दफनाया गया था, फिर अब क्यों रोका गया?

धार्मिक पहचान और सामाजिक बहिष्कार

छिंदवाड़ा गांव में रमेश बघेल और उनके परिवार के लिए यह केवल एक कब्रिस्तान का मुद्दा नहीं था। उनके अनुसार, बीते कुछ वर्षों में गांव के लोगों ने उन्हें पूरी तरह सामाजिक रूप से बहिष्कृत कर दिया है।

उनकी किराने की दुकान बंद करनी पड़ी, क्योंकि गांव के लोग उनसे सामान खरीदने को तैयार नहीं थे।

अगर कोई उनसे बात करता है, तो उसे 5100 रुपये का जुर्माना भरना पड़ता है। उनके खेतों में कोई मजदूरी करने नहीं आता।

गांव के उपसरपंच रामेश्वर नाग के अनुसार, यह केवल धर्म का मुद्दा नहीं है, बल्कि आदिवासी संस्कृति और पहचान से भी जुड़ा है। उनका कहना था कि जो लोग “रूढ़ी परंपरा” छोड़ चुके हैं, वे गांव के मरघट पर “अधिकार” नहीं जमा सकते।

ग्राम सभा ने 7 फरवरी 2024 को एक प्रस्ताव पारित किया कि जो भी गांव की पारंपरिक आस्था को त्यागकर किसी अन्य धर्म को अपनाएगा, उसे गांव के कब्रिस्तान में जगह नहीं मिलेगी।

ऐसा पहला मामला नहीं: ईश्वर नाग की कहानी

रमेश बघेल का मामला छिंदवाड़ा गांव में अपनी तरह का पहला मामला नहीं था।

पिछले साल अक्टूबर में, इसी गांव के निवासी ईश्वर नाग का निधन हुआ था। उनके चचेरे भाई जलदेव अंधकुरी ने उन्हें ईसाई रीति-रिवाजों के अनुसार दफनाने की कोशिश की, तो गांववालों ने इसका कड़ा विरोध किया। मामला इतना बढ़ा कि जलदेव और उनके परिवार के कई सदस्यों को पुलिस ने धारा 170 (जो लोकसेवक का रूप धारण करने पर लगती है) के तहत पांच दिन तक हिरासत में रखा।

उनके एक रिश्तेदार प्रेमदास अंधकुरी ने कहा,

“हम केवल अपने भाई को उसी कब्रिस्तान में दफनाना चाहते थे, जहां पहले से अन्य ईसाई दफनाए गए थे। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। हमसे कोई बात भी नहीं कर सकता।”

पेसा कानून और पंचायती नियमों का जटिल मसला

गांव की पंचायत पेसा (PESA) कानून का हवाला देती है, जो आदिवासी बहुल क्षेत्रों को कुछ विशेष अधिकार प्रदान करता है।

पेसा कानून के तहत, ग्राम सभा की अनुमति के बिना कोई भी धार्मिक स्थल या कब्रिस्तान नहीं बनाया जा सकता।

पंचायती नियमों के अनुसार, शवों को केवल चिन्हित स्थानों पर ही दफनाने की अनुमति दी जा सकती है।

क्या यह धर्मांतरण का मामला है?

गांव के कुछ लोग मानते हैं कि ईसाई धर्म अपनाने वाले लोगों को इसलिए रोका जा रहा है क्योंकि इससे आदिवासी समाज की संस्कृति और पहचान को खतरा है।

गांव के उपसरपंच रामेश्वर नाग ने कहा,

“हमारे त्योहारों के नियम हैं, हम जब तक त्योहार नहीं मनाते, तब तक आम नहीं खाते। लेकिन ईसाई लोग पहले ही आम तोड़कर बेचने लगते हैं। इससे हमारी परंपरा खत्म होती है।”

हालांकि, पंचायत के कुछ सदस्य इससे सहमत नहीं थे।

गांव के पंच राजू राम ने कहा,

“पानी, सड़क और धरती मां तो सबकी है। कब्रिस्तान भी सबके लिए होना चाहिए।”

बस्तर: धर्म, परंपरा और राजनीति का संगम

बस्तर क्षेत्र में 70% आबादी आदिवासी समुदायों की है। यहां के लोग अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों का कड़ाई से पालन करते हैं।

बस्तर में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता को लेकर छत्तीसगढ़ प्रोग्रेसिव क्रिश्चियन एलायंस के संयोजक भूपेन्द्र खोरा का कहना है कि

“गांववालों को उकसाया जा रहा है। पहले सब साथ रहते थे, लेकिन अब स्थिति बदल गई है।”

हालांकि, बीजेपी सांसद महेश कश्यप इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि

“यह किसी संगठन की साजिश नहीं, बल्कि बस्तर की संस्कृति और अस्मिता की रक्षा का विषय है।”

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में भी मतभेद था।

1. एक न्यायाधीश ने माना कि रमेश बघेल के साथ अनुच्छेद 14 और 15 (1) का उल्लंघन हुआ है, जो धर्म के आधार पर भेदभाव को रोकते हैं।

2. दूसरे न्यायाधीश ने कहा कि किसी को भी अंतिम संस्कार के स्थान का मनमाना चयन करने का अधिकार नहीं है।

अंततः, सुभाष बघेल को करकापाल के कब्रिस्तान में दफनाया गया।

क्या समाज और कानून के बीच सेतु बनेगा?

यह मामला सिर्फ एक परिवार की अंतिम संस्कार की इच्छा का नहीं है। यह सामाजिक संरचनाओं, धार्मिक पहचान, कानूनी प्रावधानों और मानवीय संवेदनाओं के टकराव की जटिलता को दर्शाता है।

बड़ा सवाल यह है कि क्या कानूनी फैसले सामाजिक हकीकत को स्वीकार करने के लिए पर्याप्त हैं? क्या किसी समुदाय को सिर्फ धार्मिक आस्था के आधार पर सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया जाना न्यायसंगत है?

शायद, समाधान कानून और परंपरा के बीच संवाद और सहमति में ही छिपा है।

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