दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट
कानपुर देहात। परंपराओं पर कभी-कभी सरकार भी मुहर लगा ही देती है। कानपुर देहात का दमादनपुरवा इसका उदाहरण है। 70 घरों वाले इस गांव में 50 पड़ोसी गांव सरियापुर के दामादों के हैं। एक-एक कर यहां दामादों ने घर बनाए तो आसपास के गांवों के लोगों ने इस आबादी का नाम ही दमादनपुरवा रख दिया। अंतत: सरकारी दस्तावेज ने भी यह नाम स्वीकार कर इसे सरियापुर गांव का मजरा मान लिया है।
बुजुर्ग बताते हैं कि 1970 में सरियापुर गांव की राजरानी का ब्याह जगम्मनपुर गांव के सांवरे कठेरिया से हुआ। सांवरे ससुराल में रहने लगे। जगह कम पड़ी तो गांव के पास ऊसर में उन्हें जमीन दे दी गई। वह अब दुनिया में नहीं हैं, पर उनके द्वारा शुरू किया गया सिलसिला जारी है। उनके बाद जुरैया घाटमपुर के विश्वनाथ, झबैया अकबरपुर के भरोसे, अंडवा बरौर के रामप्रसाद जैसे लोगों ने सरियापुर की बेटियों से शादी की और इसी ऊसर में घर बना कर रहने लगे।
2005 आते-आते यहां 40 दामादों के घर बन चुके थे। लोग इसे दमादनपुरवा कहने लगे, लेकिन सरकारी दस्तावेजों में इसे नाम नहीं मिला। दो साल बाद गांव में स्कूल बना और उस पर दमादनपुरवा दर्ज हुआ। उधर, परंपरा बढ़ती रही। दामाद बसते रहे। यह मजरा दमादनपुरवा नाम से दर्ज हुआ।
राम सबसे बुजुर्ग दामाद अवधेश सबसे नए
गांव के सबसे बुजुर्ग दामाद रामप्रसाद की उम्र करीब 78 साल है। वह 45 साल पहले ससुराल आकर बसे थे। वहीं सबसे नए दामादों में अवधेश अपनी पत्नी शशि के साथ यहां बसे हैं।
तीसरी पीढ़ी भी आई
अब तीसरी पीढ़ी में भी दामादों ने यहां बसना शुरू कर दिया है। जसवापुर गजनेर से ससुराल में बसे अंगनू अब जीवित नहीं हैं। वह यहां के दामाद थे। अंगनू के बेटे रामदास का दामाद अवधेश तीन साल पहले यहां बस गया।
इस बारे में बात करते हुए प्रधान, प्रीति श्रीवास्तव ने कहा कि दमादनपुरवा की करीब 500 आबादी है और करीब 270 वोटर हैं। लोग दमादनपुरवा के बोर्ड पढ़ते हैं तो मुस्कुराते हैं। अब तो पोस्टल एड्रेस में भी यही नाम दर्ज है।
Author: samachar
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