समीक्षा – प्रमोद दीक्षित मलय
इसी जुलाई में काव्यांश प्रकाशन से मितेश्वर आनंद की एक कथा कृति आई है ‘हैंडल पैंडल’ जिसे पाठकों ने हाथोंहाथ लिया। अपने कथ्य, संवाद, दृश्य विधान एवं प्रस्तुति से यह कहानी संग्रह अत्यल्प समय में ही साहित्यानुरागियों के बीच लोकप्रियता के नवल आयाम छू रहा है।
शामिल कहानियों की खुशबू के कण-कतरे हवा में घुल पाठकीय परिवेश को सुवासित कर रहे हैं। कल्पना और स्मृति के ताने-बाने से बुने इस कथा-वितान में मलय समीर के झोंके हैं तो चांदनी की शीतलता भी। निर्झर का सुमधुर निनाद है तो सरिता का गत्यात्मक प्रवाह भी।
ये कहानियां समय की धारा पर संवाद के चप्पू चलाते बह रही हैं। इसलिए हैंडल पैंडल से गुजर कर पाठक को एक तृप्ति, संतुष्टि और आनंद की परम अनुभूति होती है। कहानी पढ़ते हुए पाठक अपने अतीत की यात्रा में निकल जाता है।
कहना नहीं होगा कि कहानीकार के पास कथा कहन की ऐसी जादुई चमत्कारिक शैली है कि पाठक तमाशा देखने पीछे-पीछे चल पड़ता है। इन कहानियों की विषय वस्तु आम जीवन से प्रेरित है। यह कहानीकार के सूक्ष्म अवलोकन, संवेदना और सहज स्मृति के सामर्थ्य की सफलता है कि वह हाशिए पर की छोटी-छोटी घटनाओं को मुख्य फलक पर मनोहारी रंगों से चित्रित कर सका है। इनमें धूप के टुकड़े भी हैं और बादल के छांव भी। प्रतिरोध, आक्रोश एवं दर्प का लाल रंग घुला है तो स्नेह और मैत्री का हरापन भी है। खटास, क्रोध, बदले की भावना, ईर्ष्या का अंधेरापन है तो उसी अंधेरे को चीरते और फलक पर रोशनी बिखेरते मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं न्याय-विश्वास की नवल कोमल लालिमा भी। यही कृति की सफलता है।
हैंडल पैंडल में कुल 19 कहानियां 108 पन्नों पर अपने चुटीले अंदाज, मोहक संवाद और हास्य बोध के साथ चहलकदमी कर रही हैं। इन कहानियों के पात्र मद्दी, मंगू, मंगल, भीखू, हैप्पी, गोपू, श्याम, गब्बू, रमेश कचरा, गुल्लू, कांजी, डा. अंतर्यामी, मान्यवर, दुर्गा सिंह, शमशेर आदि हमारी हर गली, सड़क, स्कूल, बाजार, कार्यक्रम, आयोजनों में टकरा जाते हैं, पर हम खुद में खोये-उलझे हड़बड़ी में उन्हें देख-समझ नहीं पाते। जिंदगी के सच का आईना दिखाते ये चरित्र हमारे अंदर भी समय-समय पर उभरते हैं। कहानियों की ओर चलूं तो पहली कहानी ‘मद्दी का रावण’ है जिसमें मद्दी और उसके मुहल्ले के हम उम्र साथियों के द्वारा दशहरे पर अपना खुद का रावण का पुतला बनाने और फूंकने का रोचक वर्णन है, जो पाठक को अपने आकर्षण में ऐसा खींच लेता है कि वह संग्रह पूरा पढ़ना छोड़ नहीं पाता भले ही उसके अन्य जरूरी काम छूट जा रहे हों। ‘पापा की लात’ बाल मनोविज्ञान का पन्ना पलटती है कि कैसे एक बच्चा दूध लेने के लिए डेरी जाता है और वहां दोस्तों के साथ कंचे के खेल में मग्न हो जाता है। पिता की लात पड़ने से सहसा उसे ध्यान आता है कि उसे खेलते हुए तो घंटे भर हो गया है।
छीजती मानवीय संवेदना और मूक पशुओं के प्रति किये जा रही क्रूरता एवं दुर्व्यवहार की बानगी है ‘कुत्ते का आत्मसमर्पण’ जिसमें गब्बू काका की मार से कुत्ते के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। यही भाव ‘ठिठुरते भगवान’ में भी देखा जा सकता है कि कैसे सड़क के किनारे नंगे बदन कंपकंपाती ठंड में पति, पत्नी और एक बच्चा जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं वहीं पूजा-इबादत करने वाले भद्र जन उन्हें अनदेखा करते निकलते जा रहे हैं। शीर्षक कहानी ‘हैंडल पैंडल’ बाल व्यवहार का सटीक विश्लेषण करती हुई हर पाठक के बचपन का चित्र और घटनाएं उपस्थित कर देती है। कक्षा में शैतानी, शिक्षकों की नकल एवं उनके उपनाम रखने और बाल सुलभ मस्ती का साक्षात्कार कराती है ‘सुतली बम’ जिसमें प्रार्थना सभा में झाड़ी की ओट में सुतली बम फोड़ने के धमाके से ‘सूखी रोटी’ उपनाम प्राप्त प्रधानाध्यापक गिरकर चुटहिल हो जाते हैं और बाद में बम फोड़ने वाले गुल्लू की जमकर ठुकाई कर एक महीने के लिए स्कूल से निकाल दिया जाता है। स्कूल में हो रही परीक्षाओं में कापियां दिखाने के चलन और अपने नम्बर बढ़वाने के लिए सिफारिश-चिरौरी की कथा है ‘चालीस बटे चालीस। आधुनिकता की दौड़ में नीति, नैतिकता और आदर्शों को खूंटी पर टांगकर सफलता की राह पर दौड़ते युवाओं के दृश्य दिखाती है ‘ये कहां जा रहे हैं हम – 1’। इस शीर्षक से दो कहानियां हैं जो ठहर कर सोचने को मजबूर करती है। ‘मंगल का दंगल’ पढ़ते हुए हर पाठक अपने स्कूल के उन दिनों की स्मृति में खो जाता जिसमें परस्पर लड़ना, चुनौती रखना, अपना वजूद बनाना और स्कूल का हीरो बनने का नशा तारी रहता है। पालतू पशुओं के साथ ही सड़क पर चोंट खाये जानवरों की पीड़ा को आत्मसात करती कहानी है ‘घोड़ा तो भाग गया जी’। यह कहानी इंसान के अंदर मरते आदमी को जगाती है। ‘हैप्पी का हाईस्कूल’ एक मजेदार कहानी है कि कैसे हैप्पी तीन बार हाईस्कूल की परीक्षा की शुरुआत में ही दुर्घटना का शिकार हो परीक्षा में बैठ नहीं पाता और अपने खानदान का पहला हाईस्कूल उत्तीर्ण होने का तमगा हासिल करने से चूक जाता है। शहरी सोसायटी और घरों से कचरा उठाने वाले रमेश के बहाने कहानीकार उस मुद्दे को बहस के केंद्र में लाना चाहता है जिसमें सोसायटी का काम एजेंसी को सौंप देने से कैसे एक गरीब बेबस की नौकरी छूट जाती है। यह कहानी दुःख एवं दर्द, पीड़ा एवं काम के अभाव में उसके घर में चूल्हे के ठंडेपन और आंखों की नमी का संकेत करती है। ‘गुरुजन की महिमा अनंत’ में विभिन्न विषयों के शिक्षकों का बच्चों के प्रति समर्पण, आत्मीयता, अनुशासन एवं दण्ड देने के तरीकों को अंकित करते हुए स्मरण किया गया है। ‘आपका क्या कहना है भाईसाहब’ में आम भारतीय की उस आदत की ओर अंगुली उठाई गयी है जिसमें कोई कहीं भी उन मुद्दों, खासकर राजनीति, पर बात करने लगता है जो हमारे अधिकार में नहीं है। ऐसे ही मान्यवर, ‘प्रिय दुर्गा सिंह जी’ और ‘अदृश्य अंतर’ अपनी कथा वस्तु से पाठक का ध्यान खींचती हैं।
‘हैंडल पैंडल’ वस्तुत: हमारे आसपास घटित हो रहे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों और परिस्थितियों की बेबाक किंतु संवेदना युक्त सहज बयानी है। रोजमर्रा के जीवन में हम घर, बाजार, आफिस के बीच झूलते हुए उन तमाम भावनाओं की अनदेखी कर देते हैं जिनसे जीवन में चेतना एवं सरसता का संचार होता है। आपाधापी के युग में जब आदमी के पास स्वयं को देखने समझने का समय नहीं बच पा रहा और वह भावशून्य हो यंत्रवत काल की धुरी पर टिका जागतिक सम्बन्धों के निर्वहन की खानापूर्ति करते त्रिज्या और परिधि की नीरस यात्रा में समय के सेकेंड अर्पित कर रहा है तब हैंडल पैंडल की कहानियां उसे जीवन का मर्म समझाती मानवीय चेतना, संवेदना, सहनशीलता, सहकारिता, समन्वयन एवं सौंदर्य की अनुभूति कराते हुए सुख, सुमनमय स्नेहिल पथ पर अग्रसर होने को न केवल प्रेरित करती हैं बल्कि पाठक की अंगुली पकड़कर साथ-साथ चलती भी हैं। इसीलिए ये कहानियां पढ़ते हुए पाठक अपनी स्मृतियों की छांव को महसूसते हुए सुस्ताने बैठ जाता है। वह पल भर के लिए कहानी के पात्रों में बदल वह बन जाता है जो अब वह नहीं है पर कभी वह था। यादों की किताब के पन्ने दर पन्ने उसे अपनी कहानी ही लगते हैं। इसीलिए ये कहानियां पढ़ते हुए उसके चेहरे पर कभी मुस्कान लहर उठती है तो कभी नवल सूरज की लालिमा भी। कभी किसी घटना का चश्मदीद गवाह बन भावहीन हो जाता है तो कभी किसी का पक्षधर हो हवा में मुट्ठी उछाल उत्साह से भर जाता है। इनमें जीवन का वैविध्य और सौंदर्य अपनी सहजता और समृद्धि के साथ प्रकट हुआ है। ये कहानियां ऐसा आदर्श स्थापित नहीं करतीं जिनको साधा न जा सके। दृष्टि एवं सोच में नवोन्मेष परिलक्षित होता है। इसलिए कहानियां पढ़ते हुए पाठक स्वप्रेरित होते हुए कहा उठता है कि अरे! यह तो मैं भी कर सकता हूं। इस मुद्दे को कभी ऐसी दृष्टि से देखा ही नहीं। अर्थात ये कहानियां पाठक को परिवार एवं परिवेश से जोड़ते हुए कर्तव्य की ओर बढ़ाती भी हैं।
कहानी संग्रह ‘हैंडल पैंडल’ का न केवल शीर्षक बल्कि मुखपृष्ठ का चित्रांकन भी पाठकों में विषयवस्तु की जिज्ञासा जगाते हुए आकर्षित करता है। पुस्तक का मुद्रण, कागज और बाइंडिंग उच्च कोटि का है।
पेस्टिंग के साथ ही धागों से की गयी सिलाई पुस्तक को मजबूती देती है। आम बोलचाल की भाषा में संवाद हृदय में उतर जाते हैं। खास बात वर्तनीगत त्रुटियां लगभग नहीं हैं। निश्चित रूप से यह कथाकृति पाठकों का कंठहार बनेगी और समीक्षकों में समादृत भी। अमेजन पर उपलब्ध शीर्ष दस में ट्रेंड कर रही पुस्तक पूरे परिवार द्वारा जरूर पढ़ी जानी चाहिए ताकि उरो में स्नेह का शीतल निर्झर सतत प्रवाहित होता रहे।
कृति – हैंडल पैंडल, कथाकार – मितेश्वर आनंद, प्रकाशक – काव्यांश प्रकाशन, ऋषीकेश, मूल्य – 200/-, पृष्ठ – 108
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."