समीक्षा – प्रमोद दीक्षित मलय
बेसिक शिक्षा से जुड़ी 32 शिक्षिकाओं की रचनाओं पर आधारित अरुणा कुमारी राजपूत राज के संपादन में प्रकाशित साझा काव्य संग्रह ‘एहसास’ इस समय चर्चा में हैं। कविता मन की कल्पना की सहज उत्पत्ति है और जब यही कविता किसी नारी के जीवन अनुभवों से गुजर कर आकार लेती है तो उसमें एक स्त्री के दर्द, कसक, वेदना की चुभन भी होती है और स्वप्नों एवं इच्छा-आकांक्षाओं का सुखद फैलाव भी। घूंघट में छिपे आंसू का खारापन होता है तो नेह नयन जल की मिठास भी। परिवार, समाज एवं देश की समस्याओं के प्रति चिंता होती है तो तमाम बाधा एवं अवरोधों को पार कर प्राप्त उपलब्धियों का हर्ष भी। एक तरफ इन कविताओं में कामकाजी स्त्री की चुनौतियां एवं दैनंदिन मुश्किलें पेश होती हैं तो वहीं नारी गौरव, अस्तित्व एवं अस्मिता के पृष्ठ भी फड़फड़ाते हुए अपना स्वर हवा में घोलते हैं। कुछ इन्हीं भावों को सहेजे काव्य संकलन ‘एहसास’ पाठक के सामने स्त्री विमर्श की जाजम बिछाकर कुछ सवाल खड़े करता है तो स्वयं ही उत्तरों का चंदौवा भी तानता नजर आता है। संग्रह के बारे में संपादक अरुणा राजपूत कहती हैं, ‘‘न्याय की आकांक्षा वैचारिक दृढता से ओतप्रोत अपने पथ को आत्मालोक से उदीप्त करती आज की स्त्री इस काव्य संग्रह के तमाम पृष्ठों में परिलक्षित है। पाठक इस संग्रह के माध्यम से इक्कीसवीं सदी की स्त्री की ओजस्विता, रचनात्मकता और जीवन-सत्य से बखूबी परिचित हो पायेंगे।’’
अगर ‘एहसास’ की इन 32 कवयित्रियों की रचनात्मकता को सामने रखूं तो नारी के विविध रूपों, दायित्वों, जिम्मेदारियों का बेबाकी से निरूपण है। कामकाजी औरतों का दृष्यांकन है तो बेटी की चाह का स्वर भी। मृत संवेदनाएं हैं तो हौसलों की उड़ान भी। बेटियों का महत्व है तो स्वेच्छा से जीवन जीने की सचबयानी भी। स्त्री को खिलौना माननेवालों के प्रति गुस्से का धधकता लावा है तो महिला दिवस मनाने की रस्म अदायगी की सार्थकता पर प्रश्न भी। समाज को हिंदू-मुसलमान के खांचे में बांटती राजनीति का कच्चा चिट्ठा है तो मिलकर समाज को जगाने एवं देश को आगे बढ़ाने का संकल्प भी दिखाती देता है। प्रकृति, पर्यावरण, जल, पक्षियों को बचाने के प्रति संकल्प की ऊर्जा प्रवाहित हैं तो एक नेक इंसान बन देश समाज को आगे बढ़ाने का आमंत्रण आह्वान भी।
कामकाजी औरतों का एक चित्र देखिए? ‘‘ये जो कामकाजी औरतें होती हैं न, अपने जूड़े में बांध लेती हैं अपनी थकान को, और दौड़-दौड़कर करती हैं सारे काम, पर इन सबके बीच भूल जाती हैं, खुद के लिए समय निकालना’’ (अरुणा राजपूत)। ऋतु श्रीवास्तव की कविता ‘मृत संवेदनाएं’ की पंक्तियां ध्यान खींचती हैं, ‘‘अंतर्द्वंद्व के भंवर में, घिरी मृत संवेदनाओं के शहर में हूं। हां, मैं समर में हूं।’’ हौसलों की उड़ान की आकांक्षा, थोपी गयी वर्जनाओं एवं बंधनों से मुक्ति के विरुद्ध विश्वास जगाती अनुपम चतुर्वेदी की पंक्तियां – कुछ ऐसे बंधन हैं जो थोपे गये हैं हम पर, उनसे जरूर मुक्ति मिलेगी, तुम देखते रहना। तो दिलों में पसरी कटुता एवं शत्रुता को भूल प्यार का वितान रचने की पैरवी करती सीमा गौहर की कविता देखिए, भूलकर सारी अदावत दोस्तो, जिंदगी की, प्यार की बातें करो। अनीता विश्वकर्मा कहती हैं कि मर्म है आंखों में एक राज छुपाये रखा है, स्त्री ने अपने आंचल में संसार बसाए रखा है। पूजा चतुर्वेदी पुरुष की छाया न बन स्व की पहचान की बात करती हैं, ‘‘क्यों बनें उनकी परछाई, अपनी पहचान बराबर चाहें। हम नन्ही कोमल कलियां, कुछ पल खुद को जीना चाहें।’’ प्रीति चैधरी एक स्त्री को कसौटी पर खरा उतरने की पुरुषवादी मानसिकता का विरोध करती हैं कि क्यों नारी को कसौटी पर उकेरा जाता है। मान-सम्मान से बढ़कर न कोई चाहत है, अभिमानी नहीं हैं, स्वाभिमान में मिलती राहत है। नीलम वार्ष्णेय स्त्री को अबला बेचारी कहने पर सवाल खड़ा करती है, ‘‘मैं एक नारी हूं, अबला हूं, दुखियारी हूं। कहते हैं सब ऐसे मुझको, क्या मैं इतनी बेचारी हूं।’’ तो निधि माहेश्वरी उत्तर देती हैं कि कौन कहता नाजुक तुझको, कौन कहता अबला नारी तू, हर संकट से जो लड़ जाते, वो चंडी तू, वो रानी तू। वहीं कविता रानी बेटियों को घर आंगन का प्राण कहती हैं, ‘‘दरो-दीवार की आंगन की सचमुच जान होती है, बेटी प्रेम की वीणा की मधुरिम तान होती है।’’ शीतल सैनी दबे सपनों की बात करती है कि उसके सपने जो आंखों में छुपे, उसके आंसू जो पलकों में छुपे। अगर छलके भी तो, घूंघट में ही छुप जाते हैं। संग्रह में स्त्री चेतनापरक कविताओं से इतर समाज जीवन को प्रभावित करने वाले विभिन्न मुद्दों पर भी रचनाकारों ने लेखनी चलाई है। नीलम गुप्ता देश राग छेड़ती हैं कि मेरा देश नहीं मेरी जान है तू, मेरे जीवन का अभियान है तू। सरिता गुप्ता पर्यावरण चेतना का स्वर फूंकती हैं, ‘‘ठूंठ बन चुके इन पेड़ों में हरियाली मुस्काती थी, फूलों कलियों संग तितलियां, इन पर भी मंडराती थीं।’’ श्वेता सिंह प्रेमिल भावों को शब्दों का जामा पहना आकार देती हैं कि लिखूं मीरा की प्रीत या जग की कोई रीत लिखूं, चाहें मैं श्रंगार लिखूं या जीवन का आधार लिखूं।’’ मंजू वर्मा भ्रष्टाचार पर चोंट करती हैं कि कहीं भी देखो जहां भी जाओ, वहीं पर दिखता भ्रष्टाचार। जमीला खातून जीवन को संगीत मानते हुए कहती हैं कि जीवन एक संगीत है जो सुनाई देता है, बूंदों कि रिमझिम में, पक्षियों के कलरव में। रंजना गुप्ता ने गौरैयों के संकट पर चिंता प्रकट की, ‘‘देकर थोड़ा दाना पानी प्यारी गौरैया को, इनकी विलुप्त होती हुई प्रजाति हमें बचानी है।’’ प्रीति तिवारी अपनी माटी की महक को महसूसती है, ‘‘हरी-भरी फसलें लहरातीं, सरसों मन सरसाती है, जिस मिट्टी में जन्म लिया, उसकी खुशबू मन भाती है।‘‘ अन्य शिक्षिकाओं की रचनाओं में भी कमोबेश यही चिंताएं परिलक्षित हैं।
कह सकते हैं कि ‘एहसास’ की इन कविताओं में स्त्री अभिलाषा की तमाम परतें हैं और इन परतों में सोया दबा है जीवन का राग और रचनात्मकता की आग। सर्जना का संगीत का मद्धम स्वर इन्हीं परतों से छन-छन कर बाहर आ पवन के साथ मिलकर लोक में घुल रहा है। इन परतों में जिजीविषा है, संघर्ष है और समत्व का भाव भी। इन्हीं परतों की कोख में कविताओं के रूप में हजारों नन्हें सूरज अंगड़ाई ले रहे जिनकी लालिमा जीवन में ऊर्जा बनकर बिखरी हुई है।
संग्रह का सफेद कागज पर साफ-स्वच्छ मुद्रण है। पर कहीं-कहीं वर्तनी की अशुद्धियां है। फ्लैप रिक्त छोड़ा गया है जो समझ से परे है, बेहतर उपयोग किया जा सकता था। आवरण आकर्षक है। बावजूद इसके संग्रह सराहनीय एवं पठनीय है और बेसिक रचनाकारों को प्रेरित करने वाला है। मुझे विश्वास है, संकलन की कविताएं समाज चिंतन को नवल राह एवं धार देंगी और स्त्री के गौरव, अस्तित्व और पहचान को पुख्ता जमीन भी मुहैया करायेंगी।
कृति : एहसास
संपादक : अरुणा कुमारी राजपूत राज
प्रकाशक : सर्वभाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली
पृष्ठ : 149, मूल्य : ₹ 225
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."