• प्रमोद दीक्षित मलय
गोपाल भाई! पिता जी!! भाई साहब..
ये शब्द केवल कोरे सम्बोधन भर नहीं है बल्कि इन तीन सम्बोधनों में एक महनीय व्यक्तित्व समाया हुआ है अपनी संवेदनशीलता, तरलता, मधुरता, लोकतांत्रिक चेतना एवं सामूहिकता के सदसंस्कार को सहेजे-समेटे हुए। व्यक्ति निर्माण के साधनास्थल संघ शाखा की भास्वर भट्टी में तप कुंदन बन चमके एवं मधुर कंठ से निकले गीतों ने स्वयंसेवकों के बीच भाईसाहब नाम से प्रिय कर दिया। एक विद्यालय का संचालन कर भारत के स्वर्णिम भविष्य के शिक्षा एवं संस्कार का दायित्व हाथ में लिया तो बाल हितैषी आचार्य जी होकर बच्चों एवं अभिभावकों में लोकप्रिय हो गये। वंचित, पीड़ित एवं उपेक्षित अंतिम पंक्ति में खड़े आम जन एवं वनवासी कोलों की सुध ले उन्हें मानव होने का गौरव, गरिमा, सम्मान-स्वाभिमान और स्वावलम्बन का सुद्ढ़ आधार दे एक पिता की भांति पोषण-प्यार भरा स्नेहिल हाथ उनके शीश पर धरा तो पिताजी की संज्ञा से अभिहित हो लोक विख्यात हुए। स्वैच्छिक क्षेत्र में कर्म कौशल, कर्मठता एवं सेवा साधना की ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि साथियों के बीच गोपाल भाई के आत्मीय प्रिय सम्बोधन से समादृत हुए। वास्तव में इन तीन सम्बोधनों को अपनी कर्म-काया में आत्मसात किये हुए वह लोक संस्कृति, लोक साहित्य एवं लोक संगीत की अनवरत खोज, संरक्षण एवं संवर्धन के लिए कृत संकल्पित हैं तो वहीं पीड़ित मानवता की वेदना और पीर को अहर्निश स्वयं में महसूसते उनके जीवन पथ पर खुशियों के सुवासित सुमन बिखेरने कटिबद्ध भी। वह रचनात्मक आग और उपलब्धियों के उल्लास के सुमधुर गायक हैं, चिंतक-चितेरे हैं। वह प्रकृति पुत्र हैं, इसीलिए प्रकृति के शोषण से उनका हृदय द्रवित होता है और प्रकृति पोषण के लिए स्वयं समर्पित हो वह हर पल कुछ नया रचते-गुनते हैं। उनके सान्निध्य-संस्मरण की पूंजी से मेरा मन-मस्तिष्क समृद्ध है।
अपनी बात कहां से शुरू करूं, स्मृतियों के तमाम स्नेहिल धागों में से कौन सा सिरा गहूं या भेंट-मिलन के तमाम आत्मीय सुखनुमा पलों में से किस दृश्य को उकेर आगे बढ़ूं, जीवन की लोकलय के किस राग को आधार बनाकर मन के भाव प्रकट करूं, कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। क्योंकि व्यक्तित्व इतना विशद् एवं विराट है कि शब्दों में बांध पाना मेरे जैसे अल्पज्ञ व्यक्ति के लिए लगभग दुष्कर कार्य ही है। पर जतन तो करूंगा, लेकिन यह निश्चित है कि जितना कह-लिख पाऊंगा उससे कहीं अधिक अनकहा-अबोला रह जायेगा। तो संस्मरणों की इस रोमांचक यात्रा में फिलहाल मैं एक पगडंडी पकड़ आनंद-कानन की ओर पहला कदम धरता हूं। यह यात्रा केवल पथरीले, पठारी एवं कंटकाकीर्ण रास्ते से होकर गुजरना भर नहीं है बल्कि यह जीवन की यात्रा है। एक सामान्य मानव के विशेष होने और विशेष होकर भी साधारण बने रहने की है। मैं कोई उलटबांसी नहीं पढ़ रहा, यह सच है। सफलताओं एवं उपलब्धियो के शिखर पर अवस्थित होकर अपनी जड़ों से जुड़े रहना, निरभिमानिता की सतत साधना का ही परिणाम है। यह ‘मैं’ से ‘हम’ होने की लोक चिंतन की परम्परा का मर्म है। अपनी माटी की नमी और ताप को पैरों में महसूसना है।
पहली भेंट कब हुई, कुछ ध्यान नहीं। पर नाम बचपन से सुनता रहा था। क्योंकि मेरे पिता श्री बाबूलाल दीक्षित, श्री गुलाबचन्द्र त्रिपाठी उपाख्य व्यास जी, श्री लल्लूराम शुक्ल, श्री राजाभइया सिंह की मित्रता के चलते घर आने पर चाय-पानी के दौरान गोपाल भाई जी और उनके सेवा कार्यों के बारे में प्रायः चर्चा होती रहती। गोपाल भाई जी घर भी आये पर तब मेरा काम केवल चाय-जलपान के पूरित पात्र रखकर प्रणाम निवेदित करना भर ही था। प्रत्यक्ष भेंट बहुत बाद में हुई। शायद, यही कोई पचीस-छब्बीस साल पहले की बात होगी। राष्ट्र साधना एवं समाज रचना में जुटे हम लगभग तीस व्यक्तियों (डाॅ0 कमलाकान्त पांडेय, राजाभइया सिंह, केशव गुप्ता, तारकेश्वर शुक्ला आदि) का समूह अगस्त की एक सुबह भारत जननी परिसर, रानीपुर भट्ट चित्रकूट के प्रांगण में दाखिल हुआ। आम के वृक्ष के नीचे चबूतरे पर बैठक हुई और गोपाल भाई का मार्गदर्शन मिला। अचानक रिमझिम बारिश शुरू होने पर सभागार बैठकों का दौर चला और कार्य वृद्धि एवं समाज रचना की योजनाएं बनीं। सब्जी-चावल, रोटी, रायता और दाल मखनी का सुस्वादु भोजन पाकर हम सभी तृप्त हुए थे। तब पहली बार गोपाल भाई से भेंट हुई, बातें हुई पर मैं संकोच की झीनी चादर ओढ़े रहा। और तभी उनको भाई साहब का संबोधन दिया तो आज तलक जारी है। हालांकि मेरा भाई साहब कहना बड़ा अटपटा सा लगता है क्योंकि गोपाल भाई मेरे पिताजी के मित्रों में से हैं। कार्य व्यवहार में भावनाएं प्रमुख होती है संबोधन गौण।
ऐसे ही एक बार आयुर्वेदिक कॉलेज में अध्ययनरत कुछ छात्रों ने चित्रकूट एवं पाठा क्षेत्र में औषधि अन्वेषण के संबंध में सहयोग की आकांक्षा व्यक्त की और तब शबरी जल प्रपात एवं संस्थान द्वारा ठिकरिया में विकसित औषधि वाटिका के भ्रमण-दर्शन की योजना बनी। तय तिथि में 3 गाड़ियों में अतर्रा से चित्रकूट पहुंचे और फिर शबरी जलप्रपात। संयोग से मुझे भाई साहब के साथ गाड़ी में बैठने का अवसर मिला। भाई साहब के साथ कई बार बातचीत में सुनने को मिला था कि पाठा में पानी का गम्भीर संकट है और महिलाओं का लगभग आधा दिन पानी की व्यवस्था करने में निकल जाता है। तो संयोग से पाठा क्षेत्र में घुसते ही जोरदार बारिश ने हम सब का स्वागत किया। चारों तरफ पानी ही पानी और तब मैंने भाई साहब से सवाल किया कि यहां तो बहुत पानी है और आप कहते हें कि पानी का संकट है। आपने उत्तर देने की बजाय कहा कि अभी बारिश का आनन्द लीजिए, वापस आते समय बात करेंगे। गंतव्य पर गाड़ियां रुकीं। शबरी प्रपात अपने यौवन के उफान पर था और सैकड़ों फीट ऊपर से गिरता रजत जल हजारों-लाखों मोती बन चतुर्दिक छिटक रहा था। हवा के एक झोंके में हजारों बूंदे हमारे तन-मन को भिंगो जाती। आयुर्वेदिक छात्रों ने तमाम औषधियों की खोजबीन की, मैंने भी ज्रगली प्याज और हल्दी देखी थी। औषधि केंद्र में सबका दोपहर का भोजन हुआ। जिसमें पूड़ी- सब्जी के साथ ही महुआ के पुए पहली बार खाकर लगा कि लोक जीवन का भोजन कितना समृद्ध और पौष्टिकता से भरा हुआ है। वहां हरेक की चिंता करना, हालचाल लेना और पाठा के जीवन से परिचित कराते भाईसाहब हम सभी के दिलों में उतर गये।
अब दूसरे दृश्य की ओर ले चलता हूं। जाड़े के दिन थे सूरज ने रजाई ओढ़ पैर फैला दिए थे। पेड़ों की डालों पर बैठी शाम जमीन पर उतरने लगी थी। इसी बीच शैक्षिक महासंघ के प्रदेश अध्यक्ष राम लखन भार्गव और मैं भाई साहब से मिलने परिसर पहुंचे। लगभग एक घंटे स्नेह-संवाद के बाद जब अतर्रा जाना के लिए हमने मोटरसाइकिल स्टार्ट की तो आपने बढ़ती ठंढ के कारण आग्रहपूर्वक रोक लिया। रात के भोजन में भुने हुए आलू-टमाटर, मोटी हथपई रोटी और साथ में दानेदार जमा हुआ देसी घी और गुड़, वह स्वाद अभी भी मुंह में घुलने लगता है। एक-एक कौर में अपनेपन की मिठास को हम अनुभव करते रहे। भोजनोपरान्त आपने मुझसे कहा, ‘‘प्रमोद जी! कल सुबह जाने से पहले आपको एक सामाजिक एकांकी देनी है, जिसमें पात्र के रूप में राम, लक्ष्मण और शबरी होंगे। एकांकि का मंचन शबरी प्रपात पर होने वाले मेला में किया जाना है।’’ मैं उधेड़बुन में था कि एकांकी की विषय वस्तु क्या रखूुं। अंततः 3-4 दृश्यों में एकांकी लिखी, जिसमें शबरी को एक सामाजिक स्वयंसेविका दिखाते हुए श्री राम को उनके पास समाज रचना के गुर सीखने-समझने हेतु पहुंचने का वर्णन किया गया था। सुबह मैंने लगभग डरते हुए एकांकी भाई साहब की मेज पर रखी और प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा। एकांकी पढ़ते हुए उनके चेहरे पर संतुष्टि के भाव उभरने लगे थे तो मुझे लगा कि शायद कुछ ठीक बन पाया है। मुझे गले लगाते हुए कहा कि बिल्कुल ऐसी ही रचना चाहिए थी। मैं गद्गद था कि परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। उनसे संपर्क लगातार बना रहा। फोन पर वार्ताओं का क्रम गतिशील रहता। मेरे द्वारा स्थापित स्वप्रेरित नवाचारी शिक्षकों के समूह “शैक्षिक संवाद मंच” द्वारा 2-3 मार्च, 2013 को शैक्षिक शिविर आयोजित किया गया था। इसमें आपने न केवल अध्यक्षता की बल्कि जीरो बजट कृषि का सिद्धांत प्रस्तुत करने वाले श्रीमान् सुभाष पालेकर जी, श्री गोपाल उपाध्याय एवं श्री लल्लू राम शुक्ल जी को साथ लाकर शिविर को वैचारिक ऊंचाई प्रदान की। यह आपका मेरे प्रति स्नेह भाव ही है कि जब कभी मैंने कार्यक्रम में आने का अनुरोध किया, आपने न केवल स्वीकार किया बल्कि उसकी रचना और संयोजन में उचित मार्गदर्शन भी दिया।
पर मुझे एक चीज हमेशा कसकती रही कि मैं भाई साहब की जीवनी विद्या शिविर का सम्यक प्रशिक्षण प्राप्त करने की अपेक्षा पर खरा नहीं उतर पाया। हालांकि दो-तीन जीवन विद्या शिविरों में सहभागिता की पर समयाभाव में पूर्ण नहीं कर सका। पर आगे कोशिश करूंगा।
स्मृतियों की पोटली में तमाम यादें, चित्र, घटनाएं इस प्रकार मिल-गुंथ गयी हैं कि एक को उठाता हूं तो दूसरा रह जाता है। एक घटना का वर्णन पूर्ण नहीं हो पाता कि दूसरा संदर्भ सिर उठाकर अपनी कहानी बयां करने को प्रार्थना करने लगता है।
पर इतना कहकर विराम लूंगा कि गोपाल भाई ऐसे महनीय विराट व्यक्तित्व का नाम है जिसका हृदय संवेदना, सहकारिता,स्नेह, समन्वय, सहजता से ओतप्रोत है। लोक संस्कार और लोक चेतना के द्वारा जो लोक स्वाभिमान का स्वप्न न केवल खुली आंखों से देखता है बल्कि यथार्थ के धरातल पर उतारता भी है। आत्मीयता, मधुरता, करुणा, स्वभाव का अंग बन चतुर्दिक यशगाथा बांच रहे हैं। व्यवहार में विनम्रता और वाणी में मधुरता का स्थाई पता कोई पूछे तो एक ही उत्तर मिलेगा -गोपाल भाई। वह जीवंतता, कर्मठता, कर्म कौशल की प्रतिमूर्ति हैं। वह तमाम बाधाओं, अवरोधों एवं चुनौतियों से जूझते हुए लक्ष्य सिद्धि के पथ पर बढ़ते खुशियां बांट रहे हैं। वह व्यष्टि में समष्टि का, एकत्व में अनेकत्व का ठीक वह उदाहरण हैं ज्यों रवि रश्मि में सात रंग समाये होते हैं। वह स्वस्थ सक्रिय रहते हुए शतायु हों, उनके यथेष्ट मार्गदर्शन में समाज में प्रेम सद्भाव और शांति का नैसर्गिक रम्य वातावरण की सर्जना होगी, वह हम सभी पर नेह बरसाते रहेंगे।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."