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November 2, 2024 5:07 am

कहानी ; अनोखा स्पंदन

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-अनिल अनूप

वो बचती फिरती थी सौरभ से, जैसे राहगीर बचते है रास्ते में आ जाने वाली बिल्ली से, दो कमरों के सरकारी क्वाटर में रोज आने वाले मेहमान से कितना बचा जा सकता है.. पिछले दो बरस से शाम को उसका घर आना उसी तरह निश्चित था, जैसे शाम को सूरज का छिपना, सुबह को सभी के नलों में ताज़ा पानी आना, दिन में फेरी वालों का आवाज़ लगाना, दोपहर में दो घंटे बिजली का चले जाना, रात को चौकीदार ने डंडे खडखडाना, शाम के छ बजते ही सीढ़ियों में धूल को रगड़ती उसकी चमड़े की चप्पल, वातावरण का स्वाद बदलती एक कर्कश ध्वनि , जिसे दिव्या अपने कानों में कम दांतों के बीच अधिक महसूस करती , वह घर के किसी भी कोने में हो यह आवाज़ सौरभ के आने का ऐलान करती उसके कानो और मुह में किरकिराहट लेकर रोज़ पहुँच जाया करती, वह दरवाज़ा खोलने के बजाए, उससे बचने के लिए कहीं और पनाह लेने के लिए उठ जाती, फिर भी कितनी कोशिश करे आमना -सामना हो ही जाता, मां को भी आदत थी उसी को आवाज़ लगाती ” दिव्या पानी तो लाना सौरभ का गला सूख गया होगा, “अब जरा चाय ले आ,” अँधेरी रसोई में उसे बत्ती जला कर जाने में भय खाता था, अँधेरे में बाहर पिकनिक करते मकोड़े और झींगुर को छिप जाने का अवसर प्रदान करने लिए वो अक्सर बत्ती जलाकर, आँखें मीच कुछ देर दरवाज़े पर खड़ी रहती , पानी का ग्लास लेकर रसोई से ऐसे भागती, जैसे सभी झींगुर रसोई छोड़ उसके पीछे दौड़ेंगे , उसका भयभीत चेहरा देख वह समझ जाता, ” देखो यह डाक्टर बनेंगी, कीड़े को देख बेहोश होने को हैं,” उसका यह कटाक्ष, उसके आत्मविश्वास को लहुलुहान करने को काफी था और सौरभ के होंठों की मुस्कराहट, उसके आँखों में अंगारों को दहकाने का इंधन बनती,. उन अंगारों पर पलकों की ठंडी चादर थी इसलिए उन अंगारों को कभी कोई देख नहीं पाया , वह आँखे नीची किये सौरभ की ओर देखे बिना, पानी का ग्लास मेज पर टिका, उसी तेज़ी से कमरे से निकलती जितनी तेज़ी से वह रसोई से निकली थी, सौरभ की आवाज़ उसे पकड़ने पीछे भागती “अरे रुको तो मुझे एक ग्लास पानी और चाहिए..”

वो दीपा दीदी को घंटो पढ़ाते नहीं थकता,. दीपा दीदी बी एस सी कर रही थी और शायद उनका दिल सभी से छुप कर सौरभ से प्रेम, यह बात उन्होंने कभी नहीं बताई ,. . दीदी का गोरा रंग, गोल चेहरा, मोटी-मोटी आँखे , तीर कमान सी भवें , पंखुड़ी जैसे होंठ , सौरभ के आने से पहले आईने से गुफ्तगू करते , और आईने की तो आदत है उसके पेट में कोई बात नहीं पचती, उसी ने चुगली की थी,  उसे पूरी तरह यकीन नहीं हुआ था और ना ही उसने दीदी से पूछने की हिम्मत की जबकि वह उससे सिर्फ दो साल ही बड़ी थी…. अक्सर वह सोचा करती काश उसका भी चेहरा दीदी जैसा होता, आईने को भी उससे प्यार होता….

सौरभ इलेक्ट्रानिक इन्जिनीरिंग के फाइनल इयर में था और जब देखो वह दीदी, माँ और पिताजी के सामने आई आई टी में होने का बिगुल बजाने लगता….

एकादशी के चाँद, मई की गर्म हवा, जंग लगे कपड़े सुखाने वाले तार को पार कर ,पानी की टंकी की ओट में, सफेदी लगी मुंडेर पर, फुर्सत से रोने बैठ गई और आँखों से बहते पानी को अपने दुपट्टे से नहीं पैरों के नीचे प्यासी इंटों को सोखने दिया

….और दिव्या हर सत्रह वर्षीय छात्र की तरह, बारहवीं क्लास में अच्छे नंबर के साथ, डाक्टरी में दाखला मिलने की लाटरी निकल जाने के सपने देख रही थी, उस सब में सबसे अधिक आड़े आती थी , रोज़ – रोज़ आने वाले मेहमान की खिदमत , दीपा दीदी को वह केमेस्ट्री पढ़ाता, वो भी मुफ्त क्योंकि उसकी मां और मां सहेली थी, बहुत से काम साथ-साथ करती, जैसे स्वेटर बुनना, कचरी -पापड़ बनाना, सब्जी खरीदने जाना और मंदिर जाना…..जब उसका मन चाहता बिना उसे सतर्क किये लगे हाथों उसे भी अपने किताबी ज्ञान के पंजों से दबोच लेता, ज़रा इंटर मोलिक्यूलर फोर्सीज़ के नाम गिनाना?  उसकी जुबान वहीं फ्रीज़, खुलती तो कभी हकलाने तो कभी तुतलाने लगती… जानते हुए भी घबराहट में जवाब हमेशा गलत निकलता .. जवाब सुनते ही उसको तोप का निशाना बनाया जाता ..”तुम्हारी जगह लड़का होता तो मैं उसे पंखे पर उलटा लटका देता,” दिव्या की आखों में चिंगारियों तैरती उन्हे बुझाने के लिए वह चुपचाप दुसरे कमरे में चारपाई पर औंधी लेट आंसू बहाती,. मां हमेशा उसकी तरफदारी करती “तेरा भला चाहता है तभी तो पूछता है,” किताब लेकर उसके पास बैठा कर, नंबर अच्छे आयेंगे, “मुझे फेल होना मंजूर है उससे पढ़ना नहीं, ” वह मन ही मन बुदबुदाती हुई कमरे से बाहर निकल छत पर पनाह लेती, और तब तक नीचे नहीं उतरती जब तक वो घर से ना चला गया हो, जिस दिन सौरभ का मन पढ़ाने का नहीं होता वह झक मारता माँ और पिताजी से, कभी राजनीति पर, तो कभी वेदों पर, कभी मार्क्स वादिता पर, कभी जातिवाद, कभी समाजवाद, कभी चैतन्य महाप्रभु , कभी हिंदी साहित्य, इतवार का दिन खुशगवार गुज़रता उस दिन वह कभी घर नहीं आया……

“अरे! दिव्या तुम्हें बालों से दुश्मनी थी या अपने आप से, पर कटा कर बिलकुल मुंडी भेड़ दीखती हो”, कमरे में बैठे सभी हंस पड़े, वो दनदनाती हुई कमरे से निकली बिना बत्ती जलाए और बिना छ्पकलियों की परवाह किये भाग कर छत की सीढियां चढ़ गई , एकादशी के चाँद, मई की गर्म हवा, जंग लगे कपड़े सुखाने वाले तार को पार कर ,पानी की टंकी की ओट में, सफेदी लगी मुंडेर पर, फुर्सत से रोने बैठ गई और आँखों से बहते पानी को अपने दुपट्टे से नहीं पैरों के नीचे प्यासी इंटों को सोखने दिया , दीदी उसे मनाने आई थी यह कह कर कि वो चला गया है नीचे उतरी तो वह दरवाज़े पर खड़ा, माता -पिता से विदा ले रहा था, और उसे देखते ही बोला “दे आई छत पर मच्छरों को दावत?, ” दिव्या ने जल्दी से कोहनी को बेरहमी से खुजलाते अपने नाखुनो को अलग किया ,.. “आंटी आपकी बेटी गूंगी है क्या?” फिर सब ज़ोरों से हंस दिए , वो कमरे की तरफ मुड़ी और सौरभ की आवाज़ ने दिव्या का पीछा किया , “अरे! बचो! .. सफ़ेद भूत से चिपट कर आ रही हैं ” दिव्या ने गर्दन घुमा कर देखा .. जान कर भी अपने उनाबी कुरते से सफेदी झाड़ने की ज़रूरत महसूस नहीं की.. रुके हुए आंसुओं को रफ़्तार देती हुई तेज़ी से कमरे के भीतर घुस गई, आजकल वह अक्सर लड़कियों की फोटो लेकर आता है “देखो आंटी यह कैसी लगती है, दीपा तुम बताना ज़रा?” माँ आँख, नाक, रंग, कद का निरिक्षण कर अपनी राय दिया करती और दीदी “अच्छी है,” कह कर किताब पर नज़र गड़ा लेती, आजकल आईने ने चुगली करनी बंद कर दी है और अब तो उसे भी यकीन हो गया है वह सिर्फ चुगली कर रहा था .. आजकल दीपा दीदी किसी ना किसी बहाने शाम को पड़ोस की आंटी के यहाँ अपनी सहेली से मिलने चली जाती है….. इन दिनों आईने से हट कर दीदी को बालकनी में खड़े देखा है, सामने कोई नया आया है, दिव्या उसे स्कूल जाते हुए रोज़ सुबह मोटर साइकल से जाते हुए देखती है....उसे अनदेखा करती हुई सामने से निकल जाती है वह शाम को अपनी बालकनी से दीदी को देखता है , नहीं वो दोनों एक दूसरे को देखते हैं….

सौरभ मिठाई का डिब्बा लेकर आया है उसने इंजीनियरिंग पास कर ली है और उसकी नौकरी लग गई है, माँ सब्जी लेने गई है, दीदी पड़ौस में, पिता दौरे पर और वह भूल गई थी आज इतवार नहीं है, वो सोच रही थी सौरभ दरवाज़े से ही लौट जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ…..

“यह क्या पढ़ रही हो ,” सौरभ ने भीतर घुसते हुए पूछा……

उसने आँखे नीची किये किताब उसके हाथ में थमा दी……

“अच्छा तो तुममे भावनाये हैं, ” वह मैला आँचल के पेज पलटते हुए बोला ,किताब मेज पर रख कुर्सी पर बैठते हुए ट्रीग्नोमेट्री की खुली किताब देख कर बोला …..

“चलो तुम्हारी ट्रीग्नोमेट्री टेस्ट करता हूं ” फ़टाफ़ट उसने अपने साथ वाली कुर्सी खींच दी……

दिव्या के सर के एंटिना खड़े हो गए , किन्तु वह एक कबूतर की तरह आँखे बंद किये उसके बगल की कुर्सी पर जा बैठी, सौरभ ने उससे कुछः नहीं पूछा और वह उसकी कापी में लिखे सवालों का हल धर्य और धीरे से उसे समझाने लगा..बीच – बीच में जब भी उससे पूछता “समझ आया ,?” वो आँखे नीची किये सर हिला देती…..

सौरभ की नज़र मेज़ पर पड़े लिफ़ाफ़े पर गई “यह यहाँ रह गया था ,मैं इसे घर में ढूंढ रहा था,” और उसने लिफ़ाफ़े से फोटो निकाल उसके सामने रख दी और पूछा , ” कैसी लगी तुम्हें? “

उसने कुछ क्षण फोटो पर नज़रें टिकाई और धीरे से बोली , “बहुत सुंदर है,” फोटो में कोई वाकई दीदी से भी ज्यादा सुंदर थी..

” पर तुम्हारे जैसी नहीं है,”

“मतलब? ” बोलना चाहती थी लेकिन जीभ तालुओं पर चिपक गई ..पैरों के नीचे की ज़मीन हिलने लगी….. वह एकदम घबरा गई जैसे अपने जीवन का सबसे बड़ा गुनाह करने जा रही हो…

वो कापी पर लकीरें खींच रहा था, एक घर जैसा आकार बनाने की कोशिश में जुटा था.. पन्ने को दिव्या के सम्मुख कर बोला “तुम्हारे सिवा मैंने इस घर में किसी और की कल्पना भी नहीं की है, मैं तुम्हारे डाक्टर बनने का इंतज़ार करूंगा .. “

दिव्या की मुठ्ठियाँ भींच गई थी, चेहरे पर रक्त की गुलाबी पसीने के साथ चमकने लगी, उसने अपना पूरा जोर लगा गर्दन हलकी सी ऊपर उठाई, आँखों से पलकों के परदे उठा दिव्या ने सौरभ की तरफ देखा ,

“तुमने कभी मुझे आँख उठा कर नहीं देखा और इस पल की प्रतीक्षा में मैं दो वर्ष से तुम्हारे घर आ रहा हूं , ” सौरभ ने दिव्या की आँखों में झांकते हुए कहा….

वह कापी का पन्ना फाड़  उसे अपनी जेब में डालकर, कुर्सी छोड़ खड़ा हो गया….

“मैं चलता हूँ दरवाज़ा बंद कर लो” और जीना उतर गया!

धरकनो की आवाज़ ने उसे बहरा कर दिया, खून रगों में नदी पर टूटे बाँध की तरह दौड़ रहा है वो स्तब्ध है, अवचेतन है, उसकी सोई इन्त्रियाँ अचानक संचार पाकर चेतन हो उठी हैं । भीतर- बाहर सब जगह उथल-पुथल है । वह हवा के वेग से आगे उड़ रही है! नहीं वह सागर की लहरों पर फिसल रही है! नहीं वह धरती में धंस रही है ! यह कैसा स्पंदन है? यह कैसी अनुभूति है? यह कैसा भय है?

आने वाले वर्षों के लिए सौरभ ने दिव्या से कुछः माँगा , “मेरे लिए पानी लाओ तो एक घूँट पीकर ग्लास थमाना ,” वह सबके सामने स्टील के ग्लास का मुंह घुमाता और जहाँ दिव्या के होठों को छू पानी की बूंद चिपकी होती उसपर अपने होंठ लगा धीरे -धीरे उस अमृत को भीतर उड़ेलता। जिस दिन उसे ग्लास पर चिपकी बूंद नहीं मिलती वह दिव्या से दोबारा पानी मंगाता ..

धीरे-धीरे पलकों के परदे उठ गए और उनकी जगह सौरभ की आहट का इंतज़ार दिव्या की आँखों में पसरने लगा।

लेखक पिछले चालीस सालों से लेखन कार्य से जुड़े हुए हैं। विगत एक दशक से वेब पत्रकारिता में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं और स्वतंत्र रूप से लेखन के अतिरिक्त “समाचार दर्पण 24” का संपादन भी कर रहे हैं।
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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."