प्रमोद दीक्षित मलय
‘‘भारत माता की जय, भारत माता की जय के गगनभेदी नारों से वातावरण में एक उल्लास एवं उत्साह की तरंग बह रही थी। दल के सभी लड़के-लड़कियां मस्ती आनन्द से झूमते खूब हो-हल्ला कर रहे थे। कुछ बच्चे एक-दूसरे के हाथों को पकड़े गोल-गोल घूम रहे थे तो कुछ बच्चे बधाई दे रहे थे। शेष सभी बच्चे विद्यालय ध्वज के सामने बिछी दरियों पर पंक्तिबद्ध बैठे समूह गीत गा रहे थे। प्रयाण बालगीत ‘वीर तुम बढ़े चलो’ के बोल हवा में तैर हमारे कानो से टकरा रहे थे- सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो। तुम निडर हटो नहीं, तुम निडर डटो वहीं। पास ही ऊंचे स्थान पर खड़ा एक लड़का लम्बे बांस पर बंधी केसरिया रंग की दल-पताका बायें-दायें हिला रहा था।’’ लगभग सौ मीटर दूर से दूसरे दल (गांधी गोखले दल) के हम सभी लड़के-लड़कियां यह पूरा दृश्य आश्चर्य एवं जिज्ञासा से देख रहे थे, जो संकेत कर रहा था कि उस पहले दल (आजाद भगत सिंह दल) ने किला जीत लिया है और खजाना उनके हाथ लग गया है। हमारे चेहरे लटक गये थे। एक निराशा और हार का दुख तन-मन पर हावी था। अभी कुछ देर तक दौड़ने वाले जोशीले कदमों में जैसे कोई मन भर का बोझ बांध दिया गया हो। दल के मार्गदर्शक आचार्य जी हमें सांत्वना दे रहे थे। थोड़ा और करीब पहुंचे तो देखा कि पहले वाले दल के नायक के हाथों में खजाने वाला गत्ता शोभा बढ़ा रहा था जिसे बच्चे घेर कर खड़े थे। वे सभी दूसरे दल यानीकि हमारा इंतजार कर रहे थे। हमारे पहुंचते ही एक बार फिर जोर से जयघोष बोला गया। बच्चे उत्साह के अतिरेक में कुछ ज्यादा ही जोश में भर हल्लागुल्ला करना चाह रहे थे पर आचार्य जी के मना करने और बैठने का सकेत करने पर सभी दरियों में बैठ गये। तब स्पर्धा संयोजक आचार्य जी ने घोषणा किया कि ‘खजाने की खोज’ खेल का विजेता ‘आजाद भगत सिंह दल’ है। स्वाभाविक रूप से हमारा ‘गांधी गोखले दल’ असफल हो गया था। अब खजाना खोला गया जिसमें भुने चना की गुड़ वाली पट्टी (केक), केले, बिस्कुट, बूंदी के लड्डू और संतरे वाले कंपट थे जिन्हें सभी बच्चों को बांटा गया। थोड़ी देर पहले की निराशा अब गायब थी। बड़े समूह में अनुभव साझा किये जा रहे थे।
यह दृश्य है दातासाईं कुटिया आश्रम में एक शैक्षिक भ्रमण के दौरान आयोजित खेल ‘खजाने की खोज’ का। इसमें 15-15 बच्चों के दो दल बनाकर दस चरणों में छिपाये गये खजाने को खोजना होता था। एक से नौ तक प्रत्येक चरण में एक पर्ची मिलती थी जिस पर अगले चरण या स्थान तक पहुंचने का संकेत होता था। जो पहेली, कोई कविता-गीत, लोकोक्ति या मुहावरा, चित्र एवं एक दो कूटरचित वाक्यों में होता था। पर्ची पढ़कर उसके अर्थ निकालते हुए शीघ्रता से नौ चरण पूरा कर खजाने तक पहले पहुंचने वाला दल विजयी होता था। मुझे अच्छी तरह याद है कि अपने स्कूली दिनों में प्रत्येक वर्ष लगभग दो बार शैक्षिक भ्रमण करवाया जाया था। शैक्षिक भ्रमण के दौरान हम बच्चे विभिन्न प्रकार के खेल खेलते, साथ में ही नाश्ता-भोजन करते, गीत गाते और वहां उपलब्ध पेड़-पौधों, जानवर, नदी-तालाब तितली, भंवरे, चिड़ियां आदि के बारे में जानते-सीखते। ऐसे ही एक भ्रमण में मोर-मोरनी को पहली बार बिल्कुल करीब अपने पास दाना चुगते हुए, नाचते हुए देखा था। वहां मिले मोर के पंखों के रंगों को पहली बार छूकर अनुभव किया। बाद के बहुत वर्षों तक उस मोर पंख के टुकड़े हम कुछ बच्चों की किताबो में दबे रहे। मैं ब्रह्म विज्ञान शिशु सदन का विद्यार्थी था जहां कक्षा 1 से 8 तक के बच्चे पढ़ते थे। तब शिक्षिकाएं नहीं होती थीं। शिक्षक थे जिन्हें बच्चे आचार्य जी बोला करते थे। स्कूल से एक शैक्षिक भ्रमण दातासाईं कुटिया में नवंबर महीने में पैदल और दूसरा मार्च महीने में चित्रकूट या कालिंजर के किले हेतु बस से जाया करता था। दातासाईं की कुटिया स्कूल से लगभग 3 किलोमीटर दूर थी। हमारे आचार्य गण जब शैक्षिक भ्रमण की सूचना देते तो हमारा उत्साह बल्लियों उछलने लगता। हम सभी बच्चे खुशी से झूमते रहते और खेलने की योजनाएं बनाते। खजाने की खोज सभी बच्चों को बहुत भाता था। इस खेल में दो दल बनाये जाते जिसमें बच्चे अपना दलनायक चुनते। दोनों दल के साथ एक-एक शिक्षक होते थे पर वे केवल सुरक्षा और मार्गदर्शन के लिए ही थे। इसमें खजाने की खोजकर खजाना प्राप्तकर आपस में बंटवारा करना होता था। उस क्षेत्र में निश्चित दूरियों पर आठ-दस जगह खजाने तक पहुंचने हेतु कुछ संकेत सूत्र लिखी पर्चियां रखी होती थीं। एक पर्ची प्राप्त करने के बाद दूसरे स्थान की पर्ची तक पहुंचने का संकेत मिलता था। पूरा खेल लगभग डेढ़-दो घंटे में पूरा होता। पल-पल रहस्य रोमांच, उत्सुकता, खुशी, हार-जीत, आशा-निराशा के भाव आते जाते। दूसरे दल पर भी नजर रखनी पड़ती कि वह किस चरण में हैं। अंतिम पर्ची में खजाने का पता लिखा होता। खजाना मिलने पर उच्च स्वर में भारत माता की जय का जयघोष की जाता ताकि दूसरा दल और सभी बच्चे समझ जायें कि पहले वाले दल ने विजयश्री प्राप्त कर ली है और वे अपना खोज अभियान बंद कर स्कूल ध्वज के पास एकत्र हो जायें। हारने वाला दल थोड़ी देर के लिए निराश जरूर होता पर अगले ही पल किसी दूसरे खेल या गतिविधि में लग उत्साह से भर जाते। ऐसे ही कबड्डी, खो-खो, शेंर-बकरी, विष-अमृत, आम-नींबू-संतरा, नेता खोज और वालीबाल खेल खूब तालियां बटोरते। दोपहर का भोजन सभी साथ करते। घरों से लाये गये टिफिन से थोड़ा-थोड़ा निकाला कर एक परात में एकत्र किया जाता और जो बच्चे भोजन नहीं लाये होते उन्हें और विद्यालय के कर्मचारियों- आचार्यों को वितरित किया जाता। चित्रकूट भ्रमण पर भोजन वहीं सभी के सहयोग से बनाया जाता। विद्यालय के संसाधन सीमित थे तो शैक्षिक भ्रमण के आयोजन के लिए प्रत्येक बच्चे से शुल्क भी लिया जाता जो उस समय दो से दस रुपये तक हुआ करता था। शैक्षिक भ्रमण पर जाने के दिन की पूर्व रात हम बच्चों की आंखों से नींद गायब रहती। भोर होते ही हम नहा धोकर विद्यालय की यूनिफॉर्म पहन भोजन का टिफिन ले स्कूल की ओर निकल भागते। कोशिश रहती कि विद्यालय पहुंचने वाला पहला बच्चा होऊं। पर वहां पहले से ही बच्चे और उनके अभिभावक होते। पूरे परिसर में एक अनकहा उल्लास छाया रहता। विद्यालय के रिक्शे में चूने की बोरी, बाल्टियां, दरियां, नाश्ते के लिए लिये गये सामान से भरे गत्ते रखे जाते और कभी-कभी एक ट्रैक्टर में भोजन बनाने के लिए जरूरी बर्तन, आटा, सब्जी, घी, मसाले और ईंधन के रूप में लकड़ी-कंडे भी इकट्ठा किया जाता। एक रिक्शे पर किराए पर लिया हुआ लाउडस्पीकर बांधा जाता और दो पंक्तियों में बच्चों को खड़ा कर सामने बैनर पकड़कर गीत गाते हुए और कुछ नारे बोलते हुए हम बच्चे उत्साह के साथ अपनी यात्रा शुरू करते। मुझे अच्छी तरह याद है 3 किलोमीटर की दूरी कब पूरी हो गई पता ही नहीं चलता। बाबा की कुटी बहुत रमणीक स्थान था, जहां बहुत सारे विभिन्न प्रजातियों के फलदार एवं शोभाकारी पेड़, फूलों की क्यारियां एवं तमाम तरह की चिड़ियों का बसेरा था। बगल से बरसाती नाला में निर्मल जल कल-कल करता संगीत सुनाता रहता। पेड़ों में तमाम पक्षी कलरव करते चहचहाते उड़ते-बैठते रहते। यह हम सब बच्चों के लिए पहली बार हो रहा होता क्योंकि नगर में यह पक्षी दिखाई नहीं देते थे और जब हम पेड़ में बैठा हुआ कोई नया पक्षी देखते तो खुशी से चिल्ला उठते, ‘‘देखो! यह नीलकंठ है, यह मैना है। यह तो सफेद चील है या यह कठफोड़वा है।’’ ऐसा लगता कि जैसे वहां उपस्थित सभी बच्चों में उस बच्चे ने यह कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली हो। झााड़ियों में खरगोश और नेवले भी दिखायी दे जाते। सफेद खरगोश मैंने पहली बार वहीं देखा, अन्यथा भूरे रंग के खरहा को ही खरगोश समझता रहा था। पास के मैदान में गायें भी घास चरती रंभाती रहतीं। हर बार कुछ शरारती बच्चे महुआ के पत्तों का दोना बनाकर गाय के थनों से दूध भी निकाल लाते। चरवाहा के देख लेने पर शिकायत होती और डांट पड़ती। कुछ बच्चे शिक्षकों की नजरें बचाकर पेड़ों पर चढ़ जाते तो कुछ साहसी बच्चे नाले में उतर नहा भी लेते। बहुत बाद में समझ में आया कि कोई भी गतिविधि शिक्षकों की दृष्टि से ओझल न थी। वे शायद प्रकृति के साथ जीने, स्वयं कुछ नया सीखने के लिए हम बच्चों को आजादी एवं अवसर दे रहे थे। वहां मैदान का एक हिस्सा बिल्कुल बंजर था। वहां एक सफेद रंग की बलुई धूल अटी रहती जिसे रेहू कहते थे। गांव के कुछ लोग कपड़े साफ करने के लिए रेहू बोरियों में भर ले जाते। भ्रमण के दिन सुबह कुटिया पहुंचने पर मैदान में ही पेड़ों के नीचे दरियां बिछाकर सभी बच्चों के झोले रख दिए जाते। वही पर हम हमको नाश्ते में चना-लाई मिलता। कुएं का ठंडा पानी पीकर तन-मन में ऊर्जा का संचार हो जाता। फिर आचार्य जी अपनी-अपनी टोलियों को लेकर मैदान की ओर चलते और तब बड़ा आश्चर्य होता कि मैदान में कबड्डी, खो-खो की फील्ड बना कर चूना डाल दिया गया होता। पंक्ति में खड़ा होने के लिए भी चूने की रेखा पड़ी होती। स्कूल के घ्वज के लिए लोहे का पाइप वाला पोल गाड़ दिया गया होता। यह कौन और कब कर गया होता, हमें कभी पता नहीं चल पाया। मैदान पर विद्यालय का ध्वज फहराया जाता और हम सभी बच्चे पंक्तियों में खड़े होकर भारत माता की जयकार करते हुए दिन की शुरुआत करते। यह लिखते हुए मैं अपने बचपन के शैक्षिक भ्रमण के तीन सालों के उन पलों को अपनी आंखों के सामने उपस्थित हुआ देख रहा हूं। ये शैक्षिक भ्रमण केवल घूमना और मनोंरंजन भर नहीं थे बल्कि प्रकृति के विशाल पृष्ठों पर ज्ञान निर्माण के हमारे अनुभवों का अंकन ही थे। आज जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है एक संवेदनशील, प्रकृति मित्र, मानवीय चेतना एवं समता-ममता युक्त मेरे व्यक्तित्व के बेहतर निर्माण में उन शैक्षिक भ्रमण आयोजनों का व्यापक प्रभाव रहा है। देखा जाये तो शैक्षिक भ्रमण मानवीय मूल्यों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बच्चे नेतृत्व, लोकतांत्रिकता, सामूहिकता, परस्पर सहयोग एवं विश्वास, प्रेम, सद्भाव, सहिष्णुता, निर्भयता के भाव भ्रमण के दौरान सीखते हैं। शैक्षिक भ्रमण बच्चों के अंदर कार्य योजना, समीक्षा, कल्पना, क्रियान्वयन एवं प्रबंधन के गुण भी विकसित करता है। एक दूसरे की मदद करते हुए लक्ष्य तक पहुंचना और सुख-दुख को समान रूप से साझा करना भी सीखते हैं। एक शिक्षक के रूप में मैं शैक्षिक भ्रमण को सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का एक सशक्त माध्यम मानता हूं। क्योंकि यह विषवस्तु को रटाने की पद्धति से मुक्ति देकर प्रत्यक्ष सीखने को बढ़ावा देता है।
वास्तव में शैक्षिक भ्रमण ज्ञान सर्जना का पुरातन फलक है तो नित नवल विधा सीखने की अधुनातन ललक भी। हास, परिहास, उमंग, उत्साह का सरस निर्झर है तो लेखन, अभिव्यक्ति, संवाद कौशल का बौद्धिक विस्तार भी। शैक्षिक भ्रमण जीवन का वह पृष्ठ है जिस पर बच्चे अपने मनोभाव अनुभव की स्याही से दर्ज करते हैं। कक्षा कक्ष की दीवार की खिड़की से भीतर आती रचनात्मकता की मलय बयार है। शैक्षिक भ्रमण में बच्चे प्रकृति के मनमोहक आंगन में स्वयं करके सीखते हैं, एक-दूसरे से मिलकर कुछ नया रचते, गुनते और बुनते हैं जो उनके भावी जीवन पथ में सर्वदा सुवासित सुमनों की तरह खिले रहते है। और इस सीखने के आधार में वहां कोई दबाव या बोझ नहीं होता बल्कि खुशी, प्रसन्नता आनंद के उल्लास उमंग में बच्चे किसी पहाड़ी झरने की तरह कर्म करते हुए परिवेश में उपलब्ध प्रकृति के उपहारों का न केवल आनंद लेते हैं बल्कि अवलोकन, अनुमान, तर्क, कल्पना, तुलना और संबंध विवेचन करते हुए नवल ज्ञान की सर्जना की ओर उन्मुख होते हैं। वास्तव में शैक्षिक भ्रमण कक्षा या विद्यालय को बाहरी दुनिया से जोड़ता है और यह बाहरी दुनिया वह दुनिया है जहां बच्चे पहुंचकर जिज्ञासा के पंख लगा कर अनंत आकाश में उड़ जाना चाहते हैं, पींठ पर शोध का आक्सीजन बांध सिंधु के रहस्य से परदा उठाना चाहते हैं। शैक्षिक भ्रमण न केवल बच्चों की मानसिक क्षुधा पूर्ति करता है बल्कि आगे बढ़ने के तमाम रास्ते भी खोलता है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."