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4 March 2025 1:42 am

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“डकैत कुसुमा नाइन” ; चंबल की बागी, जब बंदूक बनी पहचान और डर था नाम!” काली कहानी का अंत

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अब्दुल मोबीन सिद्दीकी की रिपोर्ट

उत्तर प्रदेश के इटावा जेल में उम्रकैद की सजा काट रही चंबल की कुख्यात डकैत कुसुमा नाइन की लखनऊ में इलाज के दौरान मौत हो गई। 61 वर्षीय कुसुमा पर हत्या, अपहरण, लूट जैसे 35 से अधिक मामले दर्ज थे। उसका नाम चंबल के सबसे खूंखार दस्यु सरदारों में गिना जाता था।

कौन थी कुसुमा नाइन?

कुसुमा नाइन का जन्म 1964 में जालौन जिले के टिकरी गांव में हुआ था। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। उसके पिता डरू नाई गांव के प्रधान थे और चाचा सरकारी राशन की दुकान चलाते थे। लाड़-प्यार में पली-बढ़ी कुसुमा का जीवन एक आम लड़की की तरह शुरू हुआ, लेकिन उसका रास्ता जल्द ही अपराध की ओर मुड़ गया।

कैसे बनी चंबल की डकैत?

प्रेम प्रसंग और अपहरण से मिली डाकू बनने की राह

महज 13 साल की उम्र में कुसुमा का प्रेम-प्रसंग माधव मल्लाह नाम के युवक से हो गया, और वह उसके साथ भाग गई। दो साल तक उसका कोई पता नहीं चला। बाद में उसने अपने पिता को चिट्ठी लिखी कि वह दिल्ली में है।

पिता ने उसे दिल्ली पुलिस की मदद से खोजकर वापस ले आए और उसकी शादी कुरौली गांव के केदार नाई से कर दी। लेकिन माधव उसे भूल नहीं पाया। उसने इस बारे में अपने रिश्तेदार डकैत विक्रम मल्लाह को बताया। इसके बाद विक्रम अपने गैंग के साथ कुसुमा को उसकी ससुराल से अगवा कर ले गया।

यहीं से कुसुमा नाइन के अपराध की असली कहानी शुरू हुई।

डकैतों की दुनिया में खून और खौफ का दौर

विक्रम मल्लाह की गैंग में शामिल होने के बाद कुसुमा का सामना फूलन देवी से हुआ। दोनों के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ गई। गैंग के कुछ लोग चाहते थे कि कुसुमा डकैत लालाराम को मार डाले, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसके चलते कुसुमा लालाराम के गैंग में शामिल हो गई।

नरसंहार और खौफनाक अपराध

1984 में कानपुर देहात के आस्ता गांव में कुसुमा ने 15 लोगों की बेरहमी से हत्या कर दी। इतना ही नहीं, उसने एक महिला और उसके बच्चे को जिंदा जला दिया।

बेहमई कांड के बदले में 15 मल्लाहों को मौत के घाट उतारा

1981 में फूलन देवी ने बेहमई गांव में 22 ठाकुरों की हत्या की थी। इसी का बदला लेने के लिए 1984 में कुसुमा नाइन, लालाराम और श्रीराम ने औरैया के मई अस्ता गांव में 15 मल्लाहों को लाइन में खड़ा कर गोली मार दी थी।

थानाध्यक्ष सहित दो पुलिसकर्मियों की हत्या

1982 में चुर्खी थाना क्षेत्र में पुलिस दबिश देने पहुंची। उस वक्त कुसुमा शीशे में अपनी मांग में सिंदूर भर रही थी। जैसे ही उसने पुलिस को देखा, उसने बिना देर किए थानाध्यक्ष केलीराम और सिपाही भूरेलाल को गोली मार दी।

फूलन देवी को बबूल के पेड़ से लटकाकर पीटा

1980 में लालाराम और विक्रम मल्लाह के बीच वर्चस्व की लड़ाई के दौरान कुसुमा ने फूलन देवी को बबूल के पेड़ से लटकाकर राइफल के बट से बेरहमी से पीटा था।

पेड़ से बांधकर यातना देती थी कुसुमा

जब कोई व्यक्ति कुसुमा के गैंग के कब्जे में आ जाता, तो वह उसे पेड़ से रस्सी से बांधकर लटका देती और डंडों से पीटती। इसके बाद अपहृत व्यक्ति के परिवार से मोटी रकम फिरौती के तौर पर वसूली जाती थी।

दो निर्दोष लोगों की आंखें निकाल दीं

1988 में औरैया के भरेह गांव में, फक्कड़ बाबा और कुसुमा ने दो निर्दोष लोगों की आंखें निकाल दी थीं क्योंकि उन्होंने गैंग का हुक्म मानने से इनकार कर दिया था।

अपराध की दुनिया से जेल की सलाखों तक

लगातार पुलिस के दबाव और गिरते स्वास्थ्य के कारण 2004 में कुसुमा और उसके साथी फक्कड़ बाबा ने पुलिस के सामने सरेंडर कर दिया।

जेल में बनी पुजारिन

जेल में पहुंचने के बाद कुसुमा ने रामायण पढ़ाना शुरू कर दिया और कैदियों को धार्मिक बातें बताने लगी।

लखनऊ में इलाज के दौरान मौत

इटावा जेल में उम्रकैद की सजा काट रही कुसुमा की तबीयत बिगड़ने पर उसे लखनऊ मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया, जहां इलाज के दौरान उसकी मृत्यु हो गई।

बीहड़ की दहशत का अंत, लेकिन न्याय का इंतजार बाकी

कुसुमा नाइन की मौत के साथ चंबल की एक और काली कहानी खत्म हो गई। लेकिन जिन परिवारों ने उसके अत्याचार झेले, वे आज भी न्याय की आस में हैं। ग्रामीणों का कहना है कि बेहमई कांड और मई अस्ता नरसंहार के पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिला।

कुसुमा नाइन का जीवन यह दर्शाता है कि बीहड़ की दुनिया में कोई भी कभी जीतता नहीं, बल्कि अपराध और बदले की आग में जलकर खो जाता है।

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