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23 March 2025 3:56 pm

जन स्वास्थ्य व्यवस्था का सच: पीड़ा, भीड़ और अव्यवस्था

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केवल कृष्ण पनगोत्रा

जब हम जवान थे तो फिल्में देखने का शौक हुआ करता था. इतने अमीर भी नहीं थे कि बॉक्स या गैलरी की महंगी टिकट खरीद पाते. बस पर्दे के पास वाले लकड़ी के असुविजनक बैंचों पर पसर कर फिल्म देखने का चाव पूरा कर लेते.

.. .और टिकट खिड़की पर जैसी ज़ुर्रत-ओ-जंग से हम गरीब और मध्यम वर्ग के दर्शक गुज़रते, बस पूछिये ही मत!

आज से 40-45 साल पहले ज़ुर्रत-ओ-जंग का जैसा आलम सिनेमाघर की टिकट खिड़की पर हुअा करता था अक्सर वैसे ही आलम का अनुभव आज सरकारी अस्पतालों की ओ.पी.डी खिड़कियों पर दिखता है. वैसे जन सुविधाओं के नाम पर बताने और दिखाने के लिए बहुत कुछ है. बड़े लोगों के पास ‘मन की बात’ बताने के लाख साधन हैं पर गरीब और आम लोगों के रोष प्रदर्शन समझने की दिमागी क्षमता कम होती जा रही है.

समाज की जरूरी सेवाओं की बहाली पर चर्चा चौक-चौराहों के साथ साथ सोशल मीडिया पर भी होती रहती है. चलिए मेरे एक सीनियर सिटीज़न दोस्त के अनुभव और लबोलुआब को व्यवहारिक धरातल पर समझने की कोशिश करते हैं.

हमारे साथी शिवनंदन साहिब के यहां बर्लिन नाम से मिक्स नस्ल का एक कुत्ता है. इस कुत्ते ने उनकी पत्नी को नाखूनों से घायल कर दिया.

सरकारी हस्पताल जाना पड़ा टीके लगवाने के लिए. इसके लिए ओ.पी.डी खिड़की से पर्ची बनवाना लाजिमी होता है. और एक आम आदमी को पर्ची बनवाने के लिए खिड़की पर धक्कम-धक्का भी सहना पड़ता है. मरीजों के सहायकों को धक्के खाने पड़ते हैं. आजकल ऐसी ही चुनौतीपूर्ण स्थितियों की भीड़ का दृश्य कई सरकारी हस्पतालों में देखने को मिलता है.

अब सवाल तो बनता ही है कि क्या ऐसी भीड़ों का इलाज जरूरतों के अनुसार सही तरह से हो सकता है ? सवाल इसलिए कि यह समाज की बहुत ही संवेदनशील और अनिवार्य सेवाएं हैं.

मैं विचार की एक बात आपसे करना चाहता हूं. मगर उससे पहले मुझे यह जरूरी लग रहा है कि सरकारी अस्पताल में ओपीडी खिड़की पर मेरे साथी शिवनंदन की आपबीती आपसे शेयर कर ली जाए.

शिवनंदन जी को एक दिन सरकारी अस्पताल की ओपीडी खिड़की पर यातनापूर्ण स्तिथि का दृश्य देखना और सहना पड़ा.

भीड़ के दृश्य को देख कर पर्ची का बनवाना मेरे दोस्त के लिए भी चुनौती थी. उचित-अनुचित व्यवहार का सिद्धांत सदा उनके दिमाग में ही रहता है. शिवनंदन जी ने गार्ड से सीनियर सिटीजन की सुविधा के लिए पुछा तो जो खिड़की गार्ड ने बताई उस के आगे मरीजों के सहायक नौजवान अधिक खड़े थे. मेरे दोस्त ने हंसी-मजाक के मूड में अपत्ति जताई कि सीनियर सिटीजन वह हैं आप नहीं हो. लेकिन हंसी-मजाक ने तब दुसरा रूप ले लिया, जब एक नौजवान अधिक होशयारी दिखाने लगा जो पेट दर्द का बहाना बना कर पर्ची पहले लेना चाहता था. जब दोस्त की आपत्ति की आवाज खिड़की के अंदर चली गई तो नौजवान को पर्ची नहीं मिली तो नौजवान का व्यवहार गुस्ताखी वाला बन गया जिसे मेरे दोस्त लिए सहन करना असम्भव था. शिवनंदन की नाराजगी का अंदाजा उसने लगा लिया और वे डीला पड़ गया. मित्र महोदय ने भी शुक्र किया कि खाहम-खा की मुसीबत टल ही गई. पर्ची लेने के बाद उनको ख्याल आया कि भीड़ की फोटो तो ले लूं. तब मेरे मित्र को उस नौजवान की मजबूरी समझ आई जब देखा कि कुछ ही दिनों का शिशु उठाए वो नौजवान अपनी थकावट की मारी पत्नी के साथ खड़ा था जिसे बच्चे वाले डॉक्टर को दिखाना उसके लिए जरूरी था. तब मित्र जी ने अनजाने वाली गलती का चेहरा बनाकर ,उसे एहसास कराया कि मुुझ से सही नहीं हुआ.

दरअसल मेरे दोस्त की पत्नी को कुत्ते ने काटा था और उनको तीन टिके लगने थे. दो तो लग गए. तीसरा हस्पताल में उपलब्ध नहीं था. पर्ची लेकर निजी दवाई विक्रेताओं के पास कड़कती धूप में भागना पड़ा. कहीं भी उपलब्ध नहीं हो सका. दूसरे दिन दूर के एक कस्बे के सरकारी हस्पताल से मिला. वह भी उनकी निजी पहचान के कारण.

मेरे दोस्त इस अव्यवस्था का कारण निजीकरण की आर्थिक नीति मानते हैं जो परोसती है यातनाएं ही यातनाएं और अमानवीय व्यवहार!

कई जरूरतमंदों को उचित व्यवस्था न होने के कारण उन्हें या उनके परिजनों को जान गंवानी पड़ती है. कई बार सुविधाओं के अभाव में डॉक्टर और पैरामैडिकल स्टाफ भी कुछ नहीं कर पाता. जनता को दोष डाक्टरों की लापरवाही में ही दिखाई देता है. रोष में अस्थाई प्रदर्शन ही किए जाते हैं.

मामले को निपटाने के लिए प्रशासन के पास औपचारिक जांच कमेटी नियुक्त करना ही उपाय होता है. जांच में जरूरत के अनुसार स्टाफ की कमी और सुविधाओं की कमी मिलती है, जिसके कारण डाक्टर लोग रिस्क से बचने के लिए गम्भीर मरीजों को निजी स्वास्थ्य केंद्रों को रेफर कर देते हैं ताकि लापरवाही का आरोप उन पर ना लगे. साथ ही धन के लालची डाक्टर वहां से कमीशन भी कमा लेते हैं और लापरवाही के आरोप से मुक्त भी रहते हैं.

मेरे साथी की यह व्यवहारिक आपबीती लगती तो सामान्य है मगर बहुत बड़ा सवालिया निशान चस्पा कर देती है आज के दावों पर! ..और पूछती है कि आम आवाम के रोजमर्रा के यातना भरे दिनों का आखिर इलाज क्या है?

(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)

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