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December 4, 2024 1:40 pm

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खालीपन की परछाइयों के बीच उम्मीद की एक किरण

27 पाठकों ने अब तक पढा

अनिल अनूप

वर्षों बीत गए, लेकिन लगता है जैसे कल की ही बात हो। वो दिन जब घर की देहरी पर खड़े होकर पिताजी की डांट सुनते हुए, माँ की ममता भरी आंखों में अपने सपनों के बीज बोता था। कौन जानता था कि एक दिन ये सपने अपनी जड़ों से इतने दूर होंगे कि अपनी ही मिट्टी से रिश्ता टूट जाएगा। आज 56 साल की उम्र में, ज़िंदगी के इस मोड़ पर खड़ा होकर, मैं अपने भीतर की खाली जगह को टटोलता हूं।

परिवार से दूरी का पहला अध्याय

34 साल पहले, अपने माता-पिता से अलग होने का वो फैसला शायद मेरा नहीं, हालातों का था। मैं बड़ा था, जिम्मेदारियों का भार उठाने के लिए तैयार, लेकिन घर का माहौल मुझे बांधने के बजाय तोड़ रहा था। पिताजी का कठोर स्वभाव और माँ की चुप सहमति ने मेरे सपनों की उड़ान को कठिन बना दिया।

जब पिताजी का निधन हुआ, मुझे सूचना तक नहीं मिली। माँ ने मुझसे ये कहकर दूरी बना ली कि परिवार का हिस्सा बनना अब मेरा अधिकार नहीं। यह सुनना जितना दर्दनाक था, उतना ही अविश्वसनीय। माँ ने अपने स्नेह की जो दीवार कभी मेरे चारों ओर खड़ी की थी, वो अब मुझसे कोसों दूर थी।

माँ का जाना और भाई की खामोशी

जब माँ का निधन हुआ, तो मुझे इसकी भनक तक नहीं लगने दी गई। भाई ने भी वो रिश्ता निभाने की जरूरत नहीं समझी जो खून का होता है। परिवार के भीतर जो दरारें थीं, वो अब खाई बन चुकी थीं। माँ का जाना मेरे लिए भावनात्मक आधार का टूटना था। एक ऐसा टूटना, जिसे किसी ने देखा नहीं, लेकिन मैंने हर पल जिया।

नए परिवार की शुरुआत

जीवन आगे बढ़ा। विवाह हुआ, बच्चे हुए, और फिर एक दिन मेरी नातिन ने मेरी दुनिया में दस्तक दी। उसने मेरी सूनी ज़िंदगी में थोड़ी सी रौशनी डाली। उसके मासूम चेहरे में मैंने अपनी आत्मा का एक हिस्सा देखा, जो अब भी उम्मीद से भरा हुआ था। लेकिन इस रौशनी के बावजूद, मेरे भीतर का अंधेरा कभी पूरी तरह मिट नहीं पाया।

सूनी ज़िंदगी का खालीपन

आज मेरे तीन बच्चे हैं, एक प्यारी नातिन है, फिर भी एक गहरी खाली जगह है। ये वो जगह है जिसे सिर्फ माता-पिता की उपस्थिति भर सकती थी। वो स्नेह, वो अपनापन, जिसे पाने के लिए मैंने अपने जीवन के 34 साल तड़प में बिताए, आज भी मेरे सपनों में आकर मुझे कचोटता है।

आत्ममंथन

क्या ये खालीपन मेरे निर्णयों का परिणाम है? या फिर वो पारिवारिक असहमति, जो कभी खत्म नहीं हुई? जवाब आसान नहीं है। जीवन के इस सफर में, मैंने सीखा है कि हर इंसान अपने दर्द के साथ अकेला होता है। जो संघर्ष मैं 34 सालों से कर रहा हूं, वो शायद मुझे मजबूत बनाने के लिए था। लेकिन ये मजबूती भी एक बोझ है, जिसे मैं हर दिन ढोता हूं।

मेरी आत्मकथा का यह अध्याय मेरी संघर्ष यात्रा का प्रमाण है। यह उस दर्द का दस्तावेज है, जिसे मैंने अपने अंदर महसूस किया। लेकिन शायद यही जीवन है—खालीपन और पूर्णता का एक अजीब सा मिश्रण। आज, जब मैं अपनी नातिन की मुस्कान में एक नई सुबह देखता हूं, तो सोचता हूं, शायद यह खालीपन भी किसी उद्देश्य का हिस्सा है।

इस सूने आकाश के नीचे, मैं अपने हिस्से की उम्मीद की किरण तलाश रहा हूं। शायद एक दिन, ये तलाश पूरी हो जाए।

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