चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश की बिजली कंपनियां इस समय गंभीर वित्तीय संकट का सामना कर रही हैं। 2000 में जहां घाटा मात्र 77 करोड़ रुपये था, वहीं अब यह बढ़कर 1 लाख 10 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। राज्य सरकार और पावर कॉरपोरेशन की तमाम कोशिशों के बावजूद घाटे में कमी नहीं आई, बल्कि यह हर साल बढ़ता ही गया।
निजीकरण की योजना और विवाद
बिजली कंपनियों के इस घाटे को कम करने के लिए सरकार एक बार फिर निजीकरण की योजना लेकर आई है। पूर्वांचल और दक्षिणांचल विद्युत वितरण निगम को पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मॉडल पर संचालित करने का प्रस्ताव है। यह योजना पहले भी कई बार आई थी, लेकिन हर बार विरोध के चलते इसे लागू नहीं किया जा सका। इस बार भी बिजली इंजीनियर और कर्मचारी इसके खिलाफ लामबंद हो रहे हैं।
निजीकरण के पीछे तर्क
पावर कॉरपोरेशन का कहना है कि घाटे की भरपाई के लिए बार-बार सरकार से आर्थिक मदद लेनी पड़ रही है, जो एक दीर्घकालिक समाधान नहीं है। उनका दावा है कि PPP मॉडल के तहत निजी कंपनियों के साथ साझेदारी से कंपनियों को घाटे से उबरने में मदद मिलेगी और सरकार पर वित्तीय बोझ कम होगा।
विरोध के कारण
बिजली इंजीनियर और कर्मचारियों के संगठन इस योजना का विरोध कर रहे हैं। उनके अनुसार:
1. नौकरी की सुरक्षा: निजीकरण से 68,000 कर्मचारियों की नौकरियों पर खतरा मंडरा रहा है।
2. सेवाशर्तों में बदलाव: कर्मचारियों का दावा है कि निजी कंपनियां सेवाशर्तों में कटौती करेंगी, जिससे उनकी स्थिति खराब होगी।
3. आरक्षण का उल्लंघन: आरक्षित वर्ग के अभियंताओं को नौकरियां पाने और बचाने में मुश्किल होगी, क्योंकि निजी कंपनियां आरक्षण नियमों का पालन नहीं करेंगी।
4. घाटे का असली कारण: संगठनों का कहना है कि घाटे का असली कारण प्रबंधन की खामियां हैं। उनका तर्क है कि जब कर्मचारी और इंजीनियर वही रहेंगे, तो घाटे की समस्या सिर्फ प्रबंधन में सुधार से सुलझ सकती है।
निजीकरण के संभावित परिणाम
जहां एक ओर सरकार निजीकरण को घाटे से उबरने का समाधान मान रही है, वहीं इसके संभावित दुष्परिणाम भी नजर आ रहे हैं। उदाहरण के लिए:
1. उपभोक्ता पर प्रभाव: निजीकरण के बाद बिजली दरों में वृद्धि की संभावना है। मुंबई में निजी कंपनियां 15 रुपये प्रति यूनिट तक बिजली दर वसूलती हैं, जबकि उत्तर प्रदेश में यह दर अभी 6.50 रुपये प्रति यूनिट है।
2. लाइन लॉस की समस्या: ओडिशा में निजीकरण के बाद भी लाइन लॉस की समस्या खत्म नहीं हुई। यूपी में यह दर 20% है, जबकि ओडिशा में यह 31% तक है।
बिजली वितरण में बदलाव का इतिहास
उत्तर प्रदेश में बिजली वितरण के निजीकरण की कोशिशें पहले भी हुईं:
1993: नोएडा में एक डिविजन को निजी क्षेत्र को सौंपा गया।
2010: आगरा में वितरण की जिम्मेदारी टोरंट को दी गई, लेकिन विरोध के चलते मामला आगे नहीं बढ़ा।
2020: पूर्वांचल निगम का निजीकरण रोकने के लिए समझौता हुआ, जिसमें बिना सहमति के ऐसा कोई कदम न उठाने का वादा किया गया।
क्या है समाधान?
बिजली इंजीनियरों का सुझाव है कि 2000 से पहले की व्यवस्था बहाल की जाए, जहां प्रबंधन पूरी तरह इंजीनियरों के हाथों में था। इसके अलावा, घाटे के लिए जिम्मेदार प्रबंधन खामियों की जांच होनी चाहिए।
उत्तर प्रदेश में बिजली कंपनियों के निजीकरण की योजना कई बार आई है, लेकिन हर बार विरोध के चलते इसे लागू नहीं किया जा सका। इस बार भी स्थिति जटिल है। सरकार घाटे को कम करने के लिए निजीकरण पर जोर दे रही है, जबकि कर्मचारी इसे समस्या का समाधान मानने को तैयार नहीं हैं। क्या यह योजना लागू होगी, या विरोध के चलते यह फिर रुक जाएगी, यह आने वाले दिनों में साफ होगा।