सुरभि चौधरी
[इस व्यंग्य का संदेश दूध के घटते हुए स्तर और गुणवत्ता की गिरावट के बहाने पर केंद्रित है। इसे एक नए रूप में विस्तार देते हुए, आधुनिक समय की उपभोक्ता समस्याओं और विक्रेता के चतुराईपूर्ण तर्कों का अधिक मजाकिया और गहरा चित्रण किया जा सकता है। -संपादक]
दूध का नया ज़माना: पतलापन, पानी और पैकेजिंग
सुबह का वक्त था। सूरज अभी बस जगना ही चाहता था, लेकिन मैं पहले ही जाग गया था। दरवाजे पर रोज़ की तरह दूधवाले का इंतजार कर रहा था। वह साइकिल की खड़खड़ाहट और घंटी की टनटनाहट के साथ प्रकट हुआ। उसने अपने मटमैले थैले से स्टील का कंटेनर निकाला और उसे उछालते हुए मेरे सामने ला खड़ा किया।
“क्या भाई, आजकल दूध बहुत ही पतला आ रहा है?” मैंने शिकायत के लहजे में कहा।
दूधवाले ने एक उदास मुस्कान ओढ़ते हुए जवाब दिया, “अरे साहब, क्या बताऊँ? भैंस की आदतें बदल गई हैं। अब वो कम पानी पीती थी, अब ज्यादा पीने लगी है। पेट भर के पानी पीती है तो दूध भी उसी हिसाब से पतला हो जाता है।”
मैंने उसकी बातों को ध्यान से सुना और फिर व्यंग्य से कहा, “तो इसका मतलब तुम्हारी भैंस अब फिटनेस रूटीन फॉलो कर रही है! सोच रहा हूँ, तुम भी जिम जॉइन कर लो और दूध को थोड़ा और पतला कर लो। आखिरकार, पतला ही तो ट्रेंड में है।”
दूधवाला थोड़ा हंसा, फिर गंभीर होते हुए बोला, “देखिए साहब, दूध में पानी का मिलना अब मजबूरी है। असल में, दूध की डिमांड तो आसमान छू रही है। हर कोई चाहता है कि उसे होम डिलीवरी मिले, लेकिन भैंसें गिनती की हैं। अब बताइये, ऐसे में सबको कैसे खुश करूँ?”
मैंने थोड़ा गुस्से में कहा, “भाई, अगर बीस रुपए किलो के हिसाब से दूध ले रहे हो, तो फिर दूध में मलाई तो आनी चाहिए न? लेकिन यहाँ तो न दूध जमता है, न दही!”
अब दूधवाले के चेहरे पर ज्ञान की देवी का वास दिखने लगा। उसने दार्शनिक अंदाज में कहा, “साहब, मलाई अब पुराने ज़माने की बात हो गई। आजकल तो डॉक्टर भी कहते हैं कि मलाई मोटापा बढ़ाती है, और मोटापा तो सारी बीमारियों की जड़ है। रही बात दही की, तो आप मार्केट में देख लीजिए—पैक्ड दही मिल जाएगा, वह भी ‘प्रोबायोटिक’ वाला।”
मैंने हार मानते हुए कहा, “भाई, कल से दूध बंद कर दो। कम से कम मेरे बच्चे शुद्ध पानी पीकर तो तंदुरुस्त रहेंगे।”
वह मुस्कुराते हुए सिर हिलाकर चला गया।
[इस व्यंग्य के नए संस्करण में विक्रेता और ग्राहक के बीच की बातचीत को हास्य और तर्क-वितर्क के माध्यम से उभारा गया है।
इसमें उपभोक्ता के असंतोष और विक्रेता की चतुराई का मिश्रण है जो वर्तमान सामाजिक और आर्थिक स्थिति को दर्शाता है, जहाँ गुणवत्ता की बजाय मात्रकता पर जोर दिया जाता है।
यह भी संकेत करता है कि कैसे समय के साथ हमारे मानदंड और प्राथमिकताएँ बदलते जा रहे हैं, और साथ ही उपभोक्तावाद पर भी सवाल उठाता है।
आपसे अनुरोध है कि इस आलेख पर अपने विचार हमारे कमेंट बॉक्स में अवश्य दर्ज करने की कृपा करें – संपादक]