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December 14, 2024 6:29 am

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दीपोत्सव और कुम्हार : एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आर्थिक सशक्तिकरण

28 पाठकों ने अब तक पढा

चुन्नीलाल प्रधान की रिपोर्ट

अयोध्या का दीपोत्सव, जो हर वर्ष दिवाली से पहले आयोजित किया जाता है, उत्तर प्रदेश सरकार के एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रम के रूप में उभरा है। यह आयोजन 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल पर शुरू हुआ, जिसका उद्देश्य रामायण कालीन परंपराओं को पुनर्जीवित करना और भगवान राम की अयोध्या वापसी का भव्य उत्सव मनाना था। राम की नगरी में जलाए गए दीयों की संख्या और इस आयोजन की भव्यता हर वर्ष बढ़ती गई है, जिससे यह न केवल एक धार्मिक कार्यक्रम बना, बल्कि सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण हो गया है।

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

दीपोत्सव का मुख्य आकर्षण राम की अयोध्या वापसी के प्रतीक स्वरूप लाखों दीयों का जलाया जाना है। यह आयोजन भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के वनवास से लौटने पर अयोध्या में स्वागत के रूप में मनाया जाता है। दीयों का यह समुद्र अयोध्या की सरयू नदी के किनारे और पूरे शहर को रोशन करता है, जो आध्यात्मिक रूप से लोगों को प्राचीन भारतीय संस्कृति और रामायण की गाथा से जोड़ता है।

हर साल इस आयोजन में भगवान राम, सीता और लक्ष्मण की झांकी निकाली जाती है, जो राम कथा के प्रमुख प्रसंगों को पुनर्जीवित करती है। इसके अलावा, राम की पैड़ी पर रामायण के विभिन्न अंशों का मंचन होता है, जिसमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कलाकार भाग लेते हैं। यह आयोजन न केवल स्थानीय, बल्कि विश्वस्तरीय स्तर पर श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करता है।

प्रजापति समाज और कुम्हारों के लिए रोजगार के अवसर

दीपोत्सव ने एक और महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन की नींव रखी है। पहले जहाँ लोग चाइनीज़ झालरों और अन्य कृत्रिम सामग्रियों से अपने घरों और शहरों को सजाते थे, अब मिट्टी के दीयों का महत्व बढ़ गया है। इससे प्रजापति समाज और कुम्हारों को एक नया जीवनदान मिला है। ये कारीगर पारंपरिक रूप से मिट्टी के दीये बनाते हैं, लेकिन आधुनिक समय में उनके दीयों की मांग घट गई थी।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ने इस समस्या को समझते हुए दीपोत्सव को एक आर्थिक अवसर के रूप में विकसित किया। गांवों के कारीगरों और कुम्हारों को लाखों दीये बनाने का ऑर्डर दिया जाता है, जिससे वे अपनी कला को जीवित रख सकें और रोजगार पा सकें। यह न केवल उनकी कला को पुनर्जीवित करता है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाता है। राजेश प्रजापति जैसे कारीगर इस बात पर जोर देते हैं कि दीपोत्सव ने उनके समाज को एक नई पहचान दी है, जिससे उनका पारंपरिक धंधा एक बार फिर से जीवंत हो गया है।

दीयों का बढ़ता कीर्तिमान

दीपोत्सव का पैमाना साल दर साल बढ़ता जा रहा है। 2017 में 1.71 लाख दीयों से शुरू हुआ यह आयोजन 2023 में 22.23 लाख दीयों तक पहुँच गया है। यह न केवल आयोजन की बढ़ती भव्यता को दर्शाता है, बल्कि इससे यह भी पता चलता है कि किस प्रकार यह आयोजन स्थानीय कारीगरों के लिए आर्थिक सशक्तिकरण का साधन बना है। हर साल, दीयों की संख्या के साथ-साथ दीयों की मांग भी बढ़ती जाती है, जिससे सैकड़ों कारीगरों को रोजगार मिलता है।

अयोध्या नगरी के लिए गौरव

दीपोत्सव ने अयोध्या को एक वैश्विक सांस्कृतिक स्थल के रूप में स्थापित किया है। राम मंदिर निर्माण और दीपोत्सव जैसे आयोजनों ने अयोध्या को धार्मिक पर्यटन के एक प्रमुख केंद्र में बदल दिया है। लाखों श्रद्धालु और पर्यटक दीपोत्सव के दौरान अयोध्या का दौरा करते हैं, जिससे स्थानीय व्यापारियों, होटलों और कारीगरों को भी लाभ मिलता है। दीपोत्सव अब एक ऐसा प्रतीक बन गया है जो धार्मिकता, कला, संस्कृति और व्यापार को एक साथ जोड़ता है।

प्रशासनिक और सामाजिक भूमिका

दीपोत्सव के सफल आयोजन के लिए अयोध्या प्रशासन, उत्तर प्रदेश सरकार, स्थानीय विश्वविद्यालयों और सामाजिक संगठनों का संयुक्त प्रयास होता है। अवध विश्वविद्यालय के छात्र भी इस आयोजन में सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। सुरक्षा और प्रबंधन के लिए हजारों पुलिसकर्मियों और अधिकारियों को तैनात किया जाता है, ताकि आयोजन सुचारू रूप से संपन्न हो सके।

पर्यावरण संरक्षण और स्वदेशी संस्कृति का प्रसार

मिट्टी के दीयों के उपयोग को बढ़ावा देकर दीपोत्सव ने पर्यावरण संरक्षण की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। चाइनीज़ झालरों और प्लास्टिक से बने सजावटी सामानों के स्थान पर मिट्टी के दीये न केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह आयोजन ‘वोकल फॉर लोकल’ के आदर्श को भी आगे बढ़ाता है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के दृष्टिकोण से मेल खाता है।

अयोध्या का दीपोत्सव एक ऐसा कार्यक्रम है जो हर साल न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक बनता जा रहा है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से भी एक महत्वपूर्ण आयोजन बन चुका है। लाखों दीयों की रोशनी के माध्यम से राम की नगरी अयोध्या एक नई पहचान स्थापित कर रही है। साथ ही, यह आयोजन प्रजापति समाज और कुम्हारों के लिए भी सशक्तिकरण का एक साधन बन गया है, जिनकी कला को इस दीपोत्सव ने फिर से जीवित कर दिया है।

दीपोत्सव का यह सफर हर साल और भी भव्य होता जा रहा है, और यह केवल एक धार्मिक आयोजन तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, पर्यावरण और स्वदेशी अर्थव्यवस्था का भी प्रतीक बन चुका है।

अयोध्या का दीपोत्सव सिर्फ एक धार्मिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं है, बल्कि यह उन कारीगरों और कुम्हारों के लिए एक नई आशा का प्रतीक बन गया है, जो पारंपरिक रूप से मिट्टी के दीये बनाने का काम करते हैं। यह त्योहार उनके जीवन में आर्थिक सशक्तिकरण, पहचान और सम्मान लाने का महत्वपूर्ण माध्यम बना है।

दीपोत्सव का आरंभ और महत्व

दीपोत्सव, जो 2017 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल पर शुरू हुआ, भगवान राम की अयोध्या वापसी और दिवाली के त्योहार को एक भव्य रूप में मनाने का एक प्रयास है। इस आयोजन में अयोध्या नगरी को लाखों दीयों से सजाया जाता है, जो पौराणिक कथा के अनुसार उस दिन का प्रतीक है जब अयोध्या वासियों ने भगवान राम, सीता और लक्ष्मण के वनवास से लौटने पर नगर को रोशनी से भर दिया था।

दीपोत्सव का प्रमुख आकर्षण लाखों मिट्टी के दीयों से सरयू नदी के किनारे को सजाना होता है, जिससे यह आयोजन न केवल धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी महत्वपूर्ण हो जाता है। हर साल दीपोत्सव के दौरान दीयों की संख्या बढ़ती जाती है, जिससे यह एक बड़ा आयोजन बन चुका है। 2023 में इस आयोजन में 22.23 लाख दीये जलाए गए, जो एक नया कीर्तिमान था।

कुम्हारों के लिए अवसर

दीपोत्सव के आरंभ से पहले, कुम्हारों और प्रजापति समाज के लोगों का जीवन कठिनाइयों से भरा हुआ था। आधुनिकता और सस्ते विदेशी उत्पादों, जैसे कि चाइनीज झालरों और बिजली के दीयों के आगमन के कारण, मिट्टी के दीयों की मांग कम हो गई थी। कुम्हारों की कला और उनके परंपरागत व्यवसाय पर इसका नकारात्मक असर पड़ा था। उनके द्वारा बनाए गए दीये अब बहुत कम इस्तेमाल होते थे, और उनकी आजीविका पर संकट के बादल मंडराने लगे थे।

हालांकि, दीपोत्सव ने कुम्हारों के लिए एक नई उम्मीद जगाई। अयोध्या में लाखों दीयों का इस्तेमाल इस आयोजन का मुख्य आकर्षण बन चुका है, और इसके कारण स्थानीय कुम्हारों के लिए रोजगार के अवसर बढ़े हैं। सरकार ने मिट्टी के दीयों के उपयोग को प्रोत्साहित किया, जिससे कुम्हारों की पारंपरिक कला को फिर से जीवंत होने का मौका मिला। यह आयोजन अब उनके लिए साल का सबसे महत्वपूर्ण समय बन चुका है, जब वे बड़े पैमाने पर दीये बनाते हैं और बेचते हैं।

आर्थिक सशक्तिकरण

दीपोत्सव ने कुम्हारों के जीवन में न केवल सांस्कृतिक पुनर्जागरण लाया, बल्कि उनके आर्थिक सशक्तिकरण में भी अहम भूमिका निभाई। हर साल दीपोत्सव के लिए लाखों दीयों की मांग होती है, जिसे पूरा करने के लिए कुम्हारों को बड़े पैमाने पर दीये बनाने के ऑर्डर मिलते हैं। ये ऑर्डर आमतौर पर गांवों के कुम्हार परिवारों के बीच बांटे जाते हैं, जो सामूहिक रूप से दीये बनाकर इस विशाल मांग को पूरा करते हैं।

राज्य सरकार और विभिन्न संस्थाओं द्वारा दीये बनाने के लिए वित्तीय मदद और प्रशिक्षण भी प्रदान किया जाता है, ताकि कुम्हार अपनी उत्पादन क्षमता को बढ़ा सकें और आधुनिक डिजाइनों के साथ अपने उत्पादों को बेहतर बना सकें।

स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा

दीपोत्सव के माध्यम से सरकार ने ‘वोकल फॉर लोकल’ और स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने का संदेश भी दिया है। चाइनीज़ झालरों और प्लास्टिक से बने सजावटी सामानों की तुलना में मिट्टी के दीये पर्यावरण के अनुकूल होते हैं और भारतीय संस्कृति का प्रतीक भी। इस पहल से न केवल स्थानीय कारीगरों की कला को संरक्षित किया गया है, बल्कि भारतीय उत्पादों की पहचान और सम्मान भी बढ़ा है।

चुनौतियाँ और भविष्य की राह

हालांकि दीपोत्सव ने कुम्हारों के जीवन में बड़ा बदलाव लाया है, लेकिन यह बदलाव पूरे वर्ष के लिए स्थायी रोजगार की गारंटी नहीं देता। दीपोत्सव के बाद, दीयों की मांग घट जाती है, और कुम्हारों को अन्य साधनों की तलाश करनी पड़ती है। इसके अलावा, आधुनिक उपकरणों और तकनीकों की कमी भी एक बड़ी चुनौती है, जिसके कारण वे बड़े पैमाने पर उत्पादन करने में असमर्थ होते हैं।

भविष्य में, यदि इन कारीगरों को अधिक आधुनिक संसाधनों, तकनीकों और वित्तीय मदद की पहुंच दी जाए, तो वे अपने व्यवसाय को और अधिक सशक्त बना सकते हैं। साथ ही, अन्य उत्सवों और आयोजनों में भी मिट्टी के दीयों और अन्य पारंपरिक उत्पादों को बढ़ावा देकर कुम्हारों को पूरे वर्षभर रोजगार दिया जा सकता है।

दीपोत्सव और कुम्हारों का संबंध केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण और समाज में पहचान से भी जुड़ा है। यह आयोजन कुम्हारों के लिए न केवल रोजगार का साधन बना है, बल्कि उनकी कला और परंपरा को सम्मान देने का एक अवसर भी है। दीपोत्सव के माध्यम से, कुम्हारों ने न केवल अपनी पुरानी परंपराओं को जीवित रखा है, बल्कि आधुनिक भारत में अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका भी स्थापित की है।

दीपोत्सव का आयोजन साल दर साल और भव्य होता जा रहा है, और इसके साथ ही कुम्हारों की कला का विस्तार भी हो रहा है। इस तरह यह उत्सव एक संपूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आंदोलन का प्रतीक बन गया है, जो भारतीय समाज की गहराईयों को छूता है।

शुरू हो चुका है दीपोत्सव का काउंट डाउन

आठवें दीपोत्सव का काउंट डाउन शुरू हो चुका है। अब सिर्फ कुछ ही दिन बचे हैं। उसके बाद अयोध्या नगरी एक नया कीर्तिमान रच देगी। दीपोत्सव को लेकर प्रशासनिक तौयारियाँ शुरू हो गई हैं। प्रशासनिक अधिकारियों के अलावा अवध विश्वविद्यालय प्रशासन और वहां के छात्र भी जुट गए हैं।

दीपोत्सव में कब कितने दीप जले

2017- 1.71 लाख

2018- 3.01 लाख

2019- 4.04 लाख

2020- 6.06 लाख

2021- 9.41 लाख

2022- 15.76 लाख

2023-22.23 लाख

कार्यकारी संपादक, समाचार दर्पण 24
Author: कार्यकारी संपादक, समाचार दर्पण 24

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