पार्थ श्रीवास्तव की रिपोर्ट
बिहार का जिला समस्तीपुर। यहां दो साल पहले बनी नगर पंचायत सिंघिया। मुख्य आबादी से हटकर सड़क किनारे बिक रहे हैं गुलाबी और चटक हरे रंग के बांस से बने सूप, दाउरा जैसे बर्तन। मोल-भाव हो रहा है।
बिहार में तीज, वटसावित्री, छठ पूजा और शादी जैसे कुछ खास अवसरों पर डोम समाज के हाथों से बनी बांस की चीजों की डिमांड रहती है। इन बर्तनों में मिठाई-फल आदि को सजाकर पूजा की जाती है। इनके बिना विशेष पूजा और त्योहार अधूरे माने जाते हैं।
वैसे तो डोम समुदाय को समाज का हिस्सा नहीं माना जाता। उन्हें हमने नीच जाति बताकर समाज से अलग-थलग कर रखा है, इसके बावजूद इनकी बनाई चीजों का इस्तेमाल बिहार के लोग पूजा-पाठ में करते हैं।
डोम जाति के जीवन को और करीब से समझने और उनका स्याहपक्ष जानने के लिए इनकी बस्ती सिंघिया की तरफ निकलता हूं। सिंघिया में चाय-नाश्ते की कोई खास जगह नहीं मिली। नाश्ते के नाम पर दही-चूड़ा मिला। उसे खाने के बाद मैं डोम बस्ती पहुंचता हूं। इस बस्ती में मात्र पांव पसारने जितने घर बने हैं। आदिवासियों के मिट्टी के बने घर इनके घरों से लाख गुना अच्छे होते हैं।
बस्ती में बने घरों की छत और दीवारों के बीच बड़े झरोखे हैं क्योंकि बांस के सरकंडों की बनी दीवारें छत से मिल नहीं पा रही हैं। उनमें भी बांस ठूंसा हुआ है। टूटा-फूटा तख्त, जिस पर चादर तक नहीं है, फूस की छत है और कमरे में एक छोटा सा पंखा चल रहा है। घर के आगे बाहर बैठकर बांस के यह बर्तन बनाए जा रहे हैं।
बबीता डगरा (थालीनुमा बांस का बर्तन) बना रही हैं। वह बांस को बारीक-बारीक धागे की तरह चाकू से छील कर तेज हाथों से उसकी बुनाई करने में व्यस्त हैं।
एक डगरा बनाने में कितना समय लगता है? कितनी कमाई हो जाती है? मैं बबीता से पूछता हूं।
बबीता कहती हैं, ‘एक डगरा को बनाने में चार से पांच दिन लगते हैं। मुश्किल से उसके सौ रुपए तक मिलते हैं। चार-पांच दिन में एक डगरा बिकता है। किसी-किसी दिन तो कमाई ही नहीं होती है। घर में दाना-पानी भी नहीं होता है।’
बबीता के दो बच्चे हैं। उनका कहना है कि वह अपने बच्चों को पढ़ाएंगी नहीं, बल्कि यही काम सिखाएंगी क्योंकि उनके पास उन्हें पढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं।
मैंने कहा- पढ़ाई भी जरूरी है।
इतना सुनकर वह थोड़ा खीजकर बोलीं- खर्चा लगता है पढ़ाई में ।
इसके बाद मैंने सवाल किया कि आप लोग डोम जाति के हो, जिनसे समाज ने दूरी बनाई हुई है, लेकिन पूजा के सामान के लिए वह लोग तुम्हारी ही चौखट पर आते हैं तो कैसा लगता है ।
बबीता जवाब देती है, ‘अजीब लगता है। इससे समाज की दोहरी सोच का पता चलता है। सिर्फ बर्तन ही नहीं बल्कि जब किसी के यहां मौत हो जाती है तो भी उसके लिए आग हमारे ही घर से लेकर जाते हैं, लेकिन यही डोम समुदाय गांव के बाहर रहने के लिए मजबूर है। गांव के अंदर रहना तक नसीब नहीं है।’
नीचे मिट्टी का फर्श, ऊपर काले रंग की प्लास्टिक की तिरपाल की छत वाला आंगन। इसके नीचे बैठकर छोटे-छोटे बच्चे अपनी मां के हाथ के बने डगरा समेत दूसरे बर्तनों पर रंग कर रहे हैं। दोपहर के खाने का समय हो चुका है। अब बबीता काम छोड़कर फटाफट दराती लेकर छोटे-छोटे आलू काट रही हैं। उन्होंने चूल्हे पर चावल चढ़ाया हुआ है और आलू की भुजिया बनाएंगी।’
वहां से निकलने पर मैं एक बूढ़ी अम्मा से मिलता हूं। अम्मा भी बांस के बर्तन बेचती हैं। जब मैं वहां पहुंचा एक ऊंची जाति की महिला उनसे मोलभाव कर रही हैं।
उनके जाने के बाद बूढ़ी अम्मा चटक गुलाबी रंग के बर्तन मुझे दिखाते हुए कहती हैं, ‘इन बर्तनों का इस्तेमाल लड़के की शादी में किया जाता है। बिना सीजन इन बर्तनों से कमाई नहीं होती है। सीजन में भी बहुत पैसे नहीं मिलते इनके। कभी-कभी तो एक रुपया भी नहीं कमा पाते। उस दिन लगता है कि आज हम सब खाएंगे क्या? घर नहीं, रोजगार नहीं, कुछ भी नहीं है हमारे पास।’
इसी बस्ती में रानी रहती हैं। वह इन दिनों बहुत परेशान हैं। कारण पूछने पर कहती हैं, ‘नमक रोटी खाकर बेटे को BA करवाया है, लेकिन कहीं कोई नौकरी नहीं मिल रही है।
बेटे को पढ़ाने के लिए बहुत मेहनत की है। लगभग पांच किलोमीटर पैदल चलकर बांस लेने जाती हूं। कंधे पर उठाकर उसे लाती हूं। पांच सौ रुपए में एक बांस मिलता है। जिसमें से सिर्फ चार डगरा बनता है। एक डगरा 50, 60 या 100 रुपए का बिकता है। रोज का 200 रुपए तक ही कमा पाते हैं, कभी-कभी वह भी नहीं। इन सबके बावजूद बेटे को पढ़ाया है मैंने। उसे तकलीफ नहीं होने दी।’
बेटे को नौकरी क्यों नहीं मिल पा रही?
जाति की वजह से। हम अछूत है, कोई हमें चौखट पर नहीं आने देता, नौकरी क्या देगा। अगर जाति के बारे में झूठ बोलकर कोई नौकरी कर भी ले, तो पता चलते ही चार गाली देकर निकाल दिया जाता है। ताना मिलता है कि टॉयलेट क्यों नहीं साफ करते।
सरकार से मदद मिलती है या नहीं?
‘मुझे तो लगता है कि सरकार तो हमारा हक देती है, लेकिन यहां के लोग हमें वहां तक पहुंचने नहीं देते। वह यही चाहते हैं कि हम समाज के लिए अछूत बने रहें। आपको क्या लगता है कि मैं यह काम नहीं छोड़ना चाहती थी। छोड़ना चाहती थी, लेकिन नौकरी मिली नहीं।’
उम्मीद हार चुकी रानी गिड़गिड़ाते हुए कहती हैं कि हमारे साथ जो हुआ सो हुआ, कम से कम हमारे बच्चों को नौकरी दे दो ताकि हम जी सकें।
रानी के अनुसार उनके समुदाय के साथ समाज दोहरा व्यवहार कर रहा है। वह कहती है कि हमारे बर्तन तो शुभ हैं, लेकिन हम अशुभ हैं। लोग ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे हम कहीं उन्हें छू न जाएं, हमारा कुछ उनसे छुए नहीं। वहां न बैठो, यहां न बैठो तरह-तरह के आदेश ।
बर्तनों के मामले में यह लोग कहते हैं कि वह लोग बर्तनों को पानी का छींटा मारकर शुभ कर लेते हैं। खराब लगता है, लेकिन यही सच है।
आखिर में रानी यही कहती हैं कि बहुत मुश्किल से मैं बांस लेकर आती हूं। हमें यह काम अच्छा नहीं लगता है। कैसे-कैसे करके मैंने नमक-रोटी खाकर सरकारी स्कूल में बच्चों को पढ़ाया है।
भेदभाव की हद यह है कि इस समुदाय के लोगों के घरों में शौचालय तक नहीं है। आज भी यह लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। स्थानीय महिलाएं बताती हैं कि देश में शौचालय बनाने के लिए वर्षों से अभियान चलाए जा रहे हैं। सरकार खुले में शौच न करने के लिए टीवी पर प्रचार कर रही है। इसके बावजूद हम लोग देर सवेर मुंह अंधेरे खुले में शौच के लिए जाते हैं।
शौचालय क्यों नहीं बन पाया?
‘इसका जवाब साफ है। इसमें सोचना क्या। हमारे पास अपनी जमीन नहीं है, हम पैसे वाले नहीं है। हम उन छोटी जातियों में भी शायद नहीं हैं, जिसे नेता लोग वोट बैंक समझते हैं। आप देखो पास में हरिजन बस्ती है। उनके पास सारे सरकारी हक हैं। पक्का मकान, शौचालय सब है। हरिजन भी हमें अछूत मानकर समाज से बाहर रखते हैं। बस आप समझ लें कि हम तो हरिजन से भी गए गुजरे हैं।’
लगभग पांच-छह किलोमीटर की दूरी पर पिपराघाट इलाका है। यहां समस्तीपुर से बिरोल के लिए सात किलोमीटर तक की सड़क बनाई गई है। इसी सड़क किनारे लगभग 80 साल से डोम समुदाय के लोग रहे थे, जिन्हें अब समाज के लोग चाहते हैं कि हटा दिया जाए। ऐसा इसलिए ताकि सड़क किनारे उनकी शक्लें देखने को न मिलें। कहीं आते-जाते वह उनसे छू न जाएं।
पूनम देवी डोम कहती हैं कि हरिजन हमें नल से पानी तक नहीं भरने देते हैं। पीने का पानी हमने डिब्बा वाले से लेना शुरू कर दिया। हरिजन ने उन्हें भी मना कर दिया। उनका कहना है कि हमारे हाथ से उनका नल छू जाता है तो उनके लिए पानी अशुद्ध हो जाता है।
डोम बस्ती खाली न करवाई जाए, इसकी लड़ाई लड़ रहे अखिलेश कुमार कहते हैं कि इनकी गलती इतनी है कि यह डोम हैं, महादलित हैं। कोई और होता तो सरकार दौड़-दौड़कर काम करती। यह लोग सालों से भटक रहे हैं। सरकार इन्हें रहने के लिए जमीन दे सकती है, लेकिन नहीं देती है।
अधिकारी इनके साथ बदतमीजी करते हैं। पानी तक नहीं पीने देते हैं। इनके लिए कहीं नल की सुविधा नहीं है। कहीं और से पानी पीने जाते हैं तो लोग डांट कर, मार कर भगा देते हैं। जबकि नल के लिए यह लोग आवेदन भी कर चुके हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं है।
इन्हें अछूत समझा जाता है इस वजह से अगर इनके बच्चे स्कूल जाते हैं, तो उन्हें बाकी बच्चों से अलग बिठाया जाता है। अब ऐसे में ये चाहकर भी पढ़-लिखकर आगे नहीं बढ़ सकते।
बिहार में डोम जाति की आबादी 1% से भी कम है। डोम, धनगढ़, बांसफोड़, धारीकर, धरकर, डोमरा की संख्या 2,63,512 है। जो कि बिहार की कुल आबादी का 0.2% है।
बिहार की सरकारी नौकरी में डोम समुदाय के केवल 3274 लोग ही हैं। राज्य की कुल सरकारी नौकरियों में इनकी भागीदारी केवल 1.24% ही है।
इन बस्तियों से निकलने के बाद मैं यह जानना चाहता था कि क्या हमेशा से डोम जाति की स्थिति ऐसी ही थी।
धर्म में इनका जिक्र
डोम को लेकर हिन्दू पुराण में जिक्र है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान शिव और पार्वती एक बार वाराणसी आए थे। मणिकर्णिका घाट के पास स्नान के दौरान पार्वती का एक कुंडल गिर गया। जिसे कालू नाम के एक राजा ने अपने पास छिपा लिया। शिव और पार्वती को तलाश करने पर यह कुंडल नहीं मिला, तो शिव ने गुस्से में आकर कुंडल को अपने पास रखने वाले को नष्ट हो जाने का श्राप दे दिया।
इस श्राप के बाद कालू ने आकर शिव से क्षमा याचना की। शिव ने नष्ट होने के श्राप को वापस लेकर उसे श्मशान का राजा बना दिया। उसे श्मशान में आने वाले लोगों की मुक्ति का काम करवाने और इसके लिए उनसे धन लेने का काम दिया गया। कालू के वंश का नाम डोम पड़ गया। डोम में हिंदू मान्यताओं के पवित्र शब्द ओम की ध्वनि होती है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."