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December 10, 2024 4:43 am

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पलायन की पीड़ा : बिहार के प्रवासी मजदूरों का टूटता जीवन और संघर्ष

31 पाठकों ने अब तक पढा

प्रमिला झा की रिपोर्ट

करी के गवनवा भवनवा में छोड़ी क अपने परइला पुरुबवा बलमुआ’…

‘गोड़वा में जूता नइखे, सिरवा पे छतवा ए सजनी, कइसे चली रे रहतवा ऐ सजनी’

भिखारी ठाकुर के शब्दों ने न केवल उस दौर की पीड़ा को व्यक्त किया, बल्कि आज भी बिहार के समाज में प्रवासी मजदूरों की स्थिति में कोई बड़ा सुधार नहीं हुआ है। दशकों बाद भी यह कहानी लाखों परिवारों की है, जो मजबूरी में अपने घर-परिवार से दूर रहते हैं।

पलायन और बिछोह की पीड़ा  

बिहार के ग्रामीण इलाकों में आज भी यही स्थिति है कि परिवार के पुरुष सदस्यों को बाहर जाकर मजदूरी करनी पड़ती है। मोहम्मद जैनुअल की कहानी में निहित दर्द, उस टूटते सामाजिक ताने-बाने का एक और उदाहरण है, जो पलायन से उपजा है। 

बिहार के अधिकांश घरों में पुरुषों का बाहर रहना एक सामान्य स्थिति बन चुकी है, पर इसके पीछे छिपी पीड़ा और संघर्ष अक्सर अनदेखा रह जाता है। यह स्थिति न केवल आर्थिक बोझ का परिणाम है, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक जीवन पर भी इसका गहरा असर होता है।

मौत की खबर और बेजान संवेदनाएं

जैनुअल जिस तरह अपने साथी की मौत के बारे में बताते हैं, वह प्रवासी मजदूरों के अमानवीय हालात को उजागर करता है। सिर्फ चंद हजार रुपये देकर किसी मजदूर की मौत को “साफ-सुथरी” प्रक्रिया के तहत खत्म कर देना यह बताता है कि कैसे सिस्टम मजदूरों के जीवन को सस्ते में निपटाता है।

गांवों में बुजुर्गों की लाचारी 

किशोरी पासवान जैसे बुजुर्ग जो अपना जीवन अपने बच्चों की परवरिश में समर्पित कर चुके हैं, अब उन्हें पलायन की इस प्रक्रिया में अकेले छोड़ दिया गया है। यह सिर्फ आर्थिक मजबूरी नहीं है, बल्कि एक भावनात्मक शून्यता भी है जो घर-परिवार को कमजोर कर रही है। 

लीला देवी की बातें, जिनमें वे अपने बच्चों के परदेस जाने के बाद की पीड़ा बयां करती हैं, एक गहरे सामाजिक संकट की ओर इशारा करती हैं। इस संकट में बुजुर्ग माता-पिता, जिनके पास अब जीवन के अंतिम पड़ाव में कोई सहारा नहीं है, अकेलेपन और असुरक्षा की भावना से जूझ रहे हैं।

उधारी का बोझ और कर्ज के जाल में फंसी जिंदगियां 

कृष्णा देवी की कहानी यह दिखाती है कि कैसे एक साधारण परिवार आर्थिक संकट के जाल में फंस जाता है। महाजन से लिया गया कर्ज सिर्फ एक आर्थिक मजबूरी नहीं है, बल्कि यह उन परिवारों पर एक स्थायी बोझ बन जाता है, जिससे बाहर निकल पाना बेहद मुश्किल होता है। 

बच्चों की शादी, खेती-बाड़ी, घर की मरम्मत और अन्य आवश्यकताओं के लिए लिया गया कर्ज उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से भी कमजोर कर देता है।

प्रवासी मजदूरों की हकीकत और जोखिम – दरोगा पासवान की कहानी यह स्पष्ट करती है कि प्रवासी मजदूर न केवल शारीरिक जोखिमों का सामना करते हैं, बल्कि आर्थिक अस्थिरता और शोषण का भी शिकार होते हैं। 

ऐसे ठेकेदार जो मजदूरों को उनकी मेहनत का पूरा हक नहीं देते, प्रवासी जीवन की एक और कड़वी सच्चाई है। इससे मजदूरों की स्थिति और भी कमजोर हो जाती है और उन्हें कर्ज के जाल में फंसने पर मजबूर होना पड़ता है।

इस प्रकार के जीवन संघर्ष और असहायता की कहानियां केवल बिहार तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह देशभर में फैले उन लाखों प्रवासी मजदूरों की पीड़ा है, जिन्हें अपने परिवार और घर से दूर रहकर अपनी रोज़ी-रोटी कमानी पड़ती है।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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