अनिल अनूप
भारत में अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के बढ़ते आंकड़े और इस गंभीर मुद्दे पर राजनीतिक उदासीनता एक गहरी विडंबना को उजागर करती है। यह समस्या उस वक्त और चिंताजनक हो जाती है जब यह पता चलता है कि ऐसे अत्याचारों की संख्या उन राज्यों में अधिक है, जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का शासन है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान इन मामलों में सबसे आगे हैं, बावजूद इसके कि भाजपा हिंदू एकता की बात करती है। यह परिस्थिति हिंदू एकता की धारणा और भाजपा के दावों पर सवाल खड़े करती है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ होने वाले 97.7 प्रतिशत अत्याचार 13 राज्यों में दर्ज हुए, जिनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश शीर्ष पर हैं।
आंकड़े बताते हैं कि अकेले उत्तर प्रदेश में 12,287 मामले दर्ज किए गए, जो कुल मामलों का लगभग 24 प्रतिशत है। यह स्थिति केवल अनुसूचित जातियों तक सीमित नहीं है; अनुसूचित जनजातियों पर भी अत्याचारों की संख्या बढ़ रही है। मध्य प्रदेश और राजस्थान ऐसे अत्याचारों के मामलों में शीर्ष पर हैं।
यह सवाल उठना लाज़मी है कि क्यों इन अत्याचारों का मुद्दा राष्ट्रीय बहस का हिस्सा नहीं बनता? राजनीतिक दल अक्सर अनुसूचित जाति और जनजाति के वोट बैंक की लड़ाई में लगे रहते हैं, लेकिन उनके अधिकारों और उनके खिलाफ हो रहे अत्याचारों के मुद्दों पर चुप्पी साध लेते हैं। विरोध प्रदर्शन, धरने या नीतिगत सुधारों की मांग नदारद है।
सरकार द्वारा एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम और विभिन्न कानूनी प्रावधानों के बावजूद, इन मामलों में न्याय प्रक्रिया की गति बेहद धीमी है। आरोप पत्र दाखिल करने में देरी, जांच लंबित रहने और दोषसिद्धि दर में गिरावट इस बात का प्रमाण हैं कि सरकारी उपाय प्रभावी नहीं हो पा रहे हैं।
2022 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ मामलों में दोषसिद्धि दर केवल 32.4 प्रतिशत रही, जो 2020 की तुलना में कम है।
इन तथ्यों के बावजूद, राजनीतिक दलों का ध्यान अनुसूचित जाति और जनजाति के असली मुद्दों की तरफ कम ही जाता है।
अमृत महोत्सव जैसे आयोजनों के जरिए भारत की प्रगति का जश्न मनाया जा रहा है, वहीं देश के हाशिए पर खड़े समुदायों के प्रति गंभीर उदासीनता एक कटु सच्चाई के रूप में उभरती है।
आरक्षण जैसे उपाय सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण हैं, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। जब तक विकास योजनाओं को धरातल पर सही ढंग से लागू नहीं किया जाता, तब तक इन वर्गों की स्थिति में सुधार की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
समाज और सरकार दोनों को इस दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। राजनीतिक इच्छाशक्ति, कानूनी सुधार और सामाजिक जागरूकता के जरिए ही अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ हो रहे अत्याचारों पर अंकुश लगाया जा सकता है।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."