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November 22, 2024 2:04 pm

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अखिलेश कैसे पड़ गए योगी पर भारी? पिछले अनुभवों से सीख का परिणाम है या… क्या पडेगा योगी पर असर? 

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

इस बार उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों ने सभी को चौंका दिया। जहां एग्ज़िट पोल्स में बीजेपी को भारी बहुमत की उम्मीद थी, वहीं वास्तविक नतीजों ने एक अलग ही कहानी बयान की। अयोध्या जैसे स्थान, जिसे बीजेपी ने अपने प्रचार का केंद्र बनाया था, वहां पार्टी को पराजय का सामना करना पड़ा। समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार अवधेश प्रसाद, जो दलित समुदाय से हैं, ने बीजेपी के लल्लू सिंह को हराकर यह साबित कर दिया कि वोटरों के मिज़ाज को समझना कठिन हो सकता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘400 पार’ के नारे और बीजेपी की उत्तर प्रदेश से अधिकतम सीटें जीतने की हसरतें नतीजों के साथ मेल नहीं खा पाईं। मतगणना के दिन राज्य का मूड बिल्कुल अलग था, और यह बीजेपी के लिए एक महत्वपूर्ण सबक के रूप में सामने आया। चुनावों के इस परिणाम ने दिखाया कि उत्तर प्रदेश के वोटर काफी सजग और बदलाव के लिए तैयार हैं।

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम बीजेपी के लिए एक बड़ा झटका साबित हुए हैं। बीजेपी महज 33 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई, जबकि इंडिया गठबंधन ने 43 सीटों पर विजय प्राप्त की। आरएलडी ने दो सीटें जीतीं, जो एनडीए का हिस्सा है। इस प्रकार एनडीए को कुल 35 सीटें मिलीं। 

543 सीटों वाली लोकसभा में बहुमत के लिए 272 सीटों की जरूरत थी, लेकिन बीजेपी 240 सीटों पर ही सिमट गई। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 303 सीटें जीती थीं। 

समाजवादी पार्टी ने यूपी में 62 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और 37 सीटों पर जीत दर्ज की। कांग्रेस ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा और 6 सीटें जीतीं। 

2019 के आम चुनाव में बीजेपी ने यूपी में 62 सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वह प्रदर्शन दोहराने में असमर्थ रही। स्मृति इरानी, जिन्होंने 2019 में अमेठी में राहुल गांधी को हराया था, इस बार गांधी-नेहरू परिवार के वफादार किशोरी लाल शर्मा से लगभग 1,67,000 मतों के अंतर से हार गईं। 

यह परिणाम दर्शाता है कि उत्तर प्रदेश के मतदाता इस बार बदलाव के मूड में थे, और बीजेपी को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने की जरूरत है।

2019 के लोकसभा चुनाव में जब स्मृति इरानी ने अमेठी में राहुल गांधी को हराया था, तो यह एक बड़ा राजनीतिक संदेश था कि नेहरू-गांधी परिवार का गढ़ भी बीजेपी के सामने सुरक्षित नहीं है। इस बार राहुल गांधी ने खुद अमेठी से चुनाव नहीं लड़ा, बल्कि एक साधारण कार्यकर्ता किशोरी लाल शर्मा को उतारा और वे स्मृति इरानी को भारी मतों से हराने में सफल रहे। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी बनारस से जीत का अंतर इस बार कम हो गया। 2019 में मोदी को बनारस में लगभग 4,80,000 वोटों से जीत मिली थी, जबकि इस बार वह केवल 1,50,000 वोटों के अंतर से जीत पाए। 2019 में मोदी को बनारस में 63 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार घटकर 54.24 प्रतिशत रह गए। 2014 में मोदी को बनारस में 5,81,022 वोट मिले थे, जो कुल मतदान का 56 प्रतिशत था, जबकि अरविंद केजरीवाल को 2,09,238 वोट मिले थे।

इस बार चुनाव परिणामों ने स्पष्ट किया कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की पकड़ कमजोर हो गई है। प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के अन्य बड़े नेताओं के लिए यह संकेत है कि मतदाताओं का विश्वास बरकरार रखने के लिए उन्हें और मेहनत करनी होगी।

उत्तर प्रदेश का चुनाव परिणाम इस बार सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए काफी महत्वपूर्ण रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनारस से चुनाव लड़ रहे थे, जबकि कांग्रेस के राहुल गांधी रायबरेली से मैदान में थे और उन्होंने वहां से लगभग चार लाख मतों से जीत दर्ज की। लखनऊ से बीजेपी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव के अलावा उनकी पत्नी डिंपल यादव भी चुनावी मैदान में थे।

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने चुनाव प्रचार में आर्थिक तंगी, खेती-किसानी, और संविधान को कमजोर करने जैसे मुद्दों को प्रमुखता से उठाया। साथ ही, उन्होंने आरक्षण के मुद्दे पर भी जोर दिया, यह आरोप लगाते हुए कि बीजेपी आरक्षण खत्म करना चाहती है। राहुल गांधी ने भारतीय सेना में भर्ती के लिए शुरू की गई अग्निवीर स्कीम पर भी सवाल उठाए थे, जो युवाओं में नाराजगी का कारण बनी।

वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान के अनुसार, उत्तर प्रदेश में बीजेपी का 33 सीटों पर सिमटना न केवल प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक झटका है, बल्कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए भी बुरी खबर है। इन परिणामों ने स्पष्ट किया कि राज्य में बीजेपी की लोकप्रियता घटी है और विपक्ष ने अपने मुद्दों को सफलतापूर्वक जनता तक पहुंचाया है। 

यह चुनाव परिणाम बीजेपी के लिए अपनी नीतियों और रणनीतियों पर पुनर्विचार करने का संकेत है, विशेषकर उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस द्वारा उठाए गए मुद्दों ने स्पष्ट रूप से मतदाताओं को प्रभावित किया है, और बीजेपी को अपने आधार को पुनः मजबूत करने की आवश्यकता होगी।

योगी पर असर

शरत प्रधान की टिप्पणी ने उत्तर प्रदेश चुनाव परिणामों पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि बीजेपी का 33 सीटों पर सिमटना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के घमंड को जनता द्वारा नकारे जाने का परिणाम है। दलितों, पिछड़ी जातियों, और उदार लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले आम लोगों को विपक्षी पार्टियों ने यह समझाने में सफलता प्राप्त की कि अगर मोदी और मजबूत होते हैं, तो संविधान खतरे में पड़ सकता है।

प्रधान के अनुसार, दलितों ने इस बार मायावती को छोड़कर इंडिया गठबंधन को वोट दिया। यह संदेश गहराई तक गया कि बीजेपी के सत्ता में रहने से आरक्षण कमजोर हो सकता है। यहां तक कि मायावती की जाटव जाति के लोगों ने भी इंडिया गठबंधन को समर्थन दिया।

प्रधान ने यह भी कहा कि बीजेपी का 33 सीटों पर सिमटने का असर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर भी पड़ेगा। अमित शाह और नरेंद्र मोदी इस हार का ठीकरा योगी पर फोड़ सकते हैं और उन्हें सीएम की कुर्सी से हटाने पर विचार कर सकते हैं। प्रधान का मानना है कि मोदी का उत्तर प्रदेश में जिस शिखर पर पहुंचना था, वह अब खत्म हो गया है।

योगी आदित्यनाथ के संदर्भ में प्रधान का कहना है कि उन्हें लगता था कि उत्तर प्रदेश में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं है और हिन्दुत्व के सामने कोई टिक नहीं सकता। लेकिन चुनाव परिणामों ने इस धारणा को गलत साबित कर दिया। भारतीय मतदाता तानाशाही को पसंद नहीं करते हैं। 

स्मृति इरानी की हार को प्रधान ने मोदी की हार के रूप में देखा। राहुल गांधी ने एक साधारण कार्यकर्ता को सामने लाकर स्मृति इरानी को हराने की रणनीति अपनाई, जो बिल्कुल मोदी की शैली में थी। यह रणनीति राहुल गांधी के लिए कारगर साबित हुई और उन्होंने बीजेपी को महत्वपूर्ण संदेश दिया।

शरत प्रधान के अनुसार, उत्तर प्रदेश चुनाव परिणामों ने दो अहम संदेश दिए हैं। पहला संदेश मायावती के लिए है कि दलित उनके बंधुआ मजदूर नहीं हैं और वे स्वतंत्र रूप से वोट करने का निर्णय ले सकते हैं।

दूसरा संदेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए है कि हर चुनाव को हिन्दू-मुसलमान के मुद्दे पर नहीं जीता जा सकता। मायावती के बीजेपी के करीब होने और अपने भतीजे को हटाने का गलत संदेश गया, जिसके परिणामस्वरूप दलित वोटर्स ने उन्हें समर्थन नहीं दिया।

रीता बहुगुणा जोशी, जो इलाहाबाद से बीजेपी की सांसद हैं और योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल में मंत्री थीं, ने इस बार बीजेपी द्वारा टिकट न मिलने पर प्रतिक्रिया दी। उनकी जगह केशरीनाथ त्रिपाठी के बेटे नीरज त्रिपाठी को टिकट मिला, लेकिन वे चुनाव हार गए। जोशी ने स्वीकार किया कि इस बार बीजेपी को 2014 और 2019 जैसी जीत नहीं मिली। उन्होंने माना कि रोजगार का सवाल बीजेपी के सामने था और यहां तक कि अयोध्या में भी पार्टी चुनाव हार गई। उन्होंने इसे गंभीरता से विचार करने की जरूरत बताई।

योगी आदित्यनाथ पर क्या असर पडेगा

उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खराब प्रदर्शन का मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ सकता है। प्रोफेसर पंकज कुमार के अनुसार, हालांकि टिकट वितरण योगी के कहने पर नहीं हुआ था, लेकिन हार का ठीकरा उन पर फोड़ा जा सकता है। 

योगी की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह राजनीतिक कार्यकर्ताओं से जुड़े नहीं हैं और नौकरशाहों पर ज्यादा भरोसा करते हैं। योगी गुजरात मॉडल से सरकार चलाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं की तुलना में पुलिस पर अधिक भरोसा किया जाता है।

प्रोफेसर पंकज का मानना है कि इस बार चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने भी सक्रिय रूप से समर्थन नहीं दिया, क्योंकि आरएसएस को लगने लगा था कि मोदी बहुत अधिक मजबूत हो रहे हैं, जो संघ के लिए ठीक नहीं था। इस स्थिति ने बीजेपी की कमजोरियों को उजागर किया और चुनाव परिणामों में परिलक्षित हुआ।

मायावती का हाशिए पर चले जाना और चंद्रशेखर आजाद की जीत से उनके उत्तराधिकारी के रूप में उभरने की संभावना भी इस चुनाव का एक महत्वपूर्ण पहलू है। चंद्रशेखर का निर्दलीय चुनाव जीतना मायावती की गिरती लोकप्रियता और दलित वोटों में बदलाव का संकेत देता है।

बीजेपी का खराब प्रदर्शन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल की तैयारियों पर भी असर डाल सकता है। उत्तर भारत में क्षेत्रीय पार्टियों की वापसी के संकेत मिल रहे हैं, खासकर अखिलेश यादव और कांग्रेस की मजबूती के साथ। अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस की सफलता ने भी यह साबित किया है।

मोदी और अमित शाह के लिए यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि अगले पांच सालों में उन्हें चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार जैसे नेताओं के समर्थन पर निर्भर रहना पड़ सकता है, जिनका अतीत में बीजेपी के साथ अनुभव अच्छा नहीं रहा है। इस चुनाव परिणाम ने बीजेपी को आत्ममंथन करने और अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया है।

जब उनसे पूछा गया कि यूपी के नतीजे का असर योगी आदित्यनाथ पर पड़ेगा या नहीं, तो रीता बहुगुणा जोशी ने कहा कि बीजेपी के पास पूर्ण बहुमत है और उन्हें नहीं लगता कि इसका कोई असर पड़ेगा। 

कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम बीजेपी के लिए एक चेतावनी हैं कि उन्हें अपनी नीतियों और रणनीतियों पर पुनर्विचार करना होगा, विशेषकर रोजगार, दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों के मुद्दों पर। मतदाताओं का यह संदेश स्पष्ट है कि वे तानाशाही और विभाजनकारी राजनीति को पसंद नहीं करते हैं।

अखिलेश की रणनीति

इस चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) की रणनीति की कई विश्लेषकों ने तारीफ की है, खासकर अखिलेश यादव द्वारा टिकट बंटवारे में गैर-यादव जातियों का ध्यान रखने की। यादव और मुस्लिम सपा के पारंपरिक वोट बैंक माने जाते हैं, लेकिन इस बार अखिलेश ने 62 में से केवल 5 यादव उम्मीदवार उतारे, और वे भी सभी उनके परिवार से थे।

2019 के चुनाव में सपा ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के साथ गठबंधन किया था और 37 सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिनमें से 10 यादव उम्मीदवार थे। 2014 में सपा ने यूपी में 78 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें कुल 12 यादव थे और चार मुलायम परिवार से थे।

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर पंकज कुमार ने भी अखिलेश यादव की रणनीति की तारीफ की। उन्होंने कहा कि सपा ने टिकट बंटवारा बहुत समझदारी से किया, उदाहरण के लिए अयोध्या में दलित उम्मीदवार अवधेश प्रसाद को टिकट देना। इसी तरह, बलिया में सनातन पांडे को टिकट देना भी सही कदम था।

अखिलेश यादव ने पीडीए (पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक) की बात की, जिसमें सभी जातियों को शामिल किया गया। दूसरी ओर, बीजेपी ने मुस्लिम मुद्दों पर अधिक जोर दिया और टिकट बंटवारे में गलती की। ऐसा लगता है कि टिकट बंटवारे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सलाह नहीं ली गई। कौशांबी में राजा भैया की मांग के बावजूद उनके आदमी को टिकट नहीं दिया गया, और इलाहाबाद में नीरज त्रिपाठी को टिकट दिया गया, जो हार गए। अमित शाह दिल्ली से बैठकर टिकट बांट रहे थे, जिससे स्थानीय समीकरणों को नजरअंदाज किया गया।

इस प्रकार, सपा ने जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए टिकट बांटने की रणनीति अपनाई, जो उनकी सफलता का एक महत्वपूर्ण कारण बनी। वहीं, बीजेपी ने इस बार अपने टिकट बंटवारे में गलतियां की, जिससे उन्हें नुकसान उठाना पड़ा।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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