मोहन द्विवेदी की खास रिपोर्ट
बीजेपी ने जहां 2014 के बाद से यूपी में सबसे बड़ी हार दर्ज की है, तो वहीं कांग्रेस को संजीवनी मिल गई है। कांग्रेस को यूपी में छह सीटें मिली हैं, जोकि 2019 के चुनाव में एक रही है। वहीं, सपा 36 सीटों पर जीत दर्ज की है। 2019 में सपा का वोट शेयर जहां 18.11 फीसदी रहा था और पांच सीटें मिली थीं।
2024 में सपा का वोट शेयर 33 फीसदी से ज्यादा हो गया है। इस बार सबसे बड़ी हार बसपा की रही है। बसपा का खाता तक नहीं खुला है। बसपा अपने इतिहास के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। उसका 9.3 फीसद तक वोट शेयर गिर गया है।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि भाजपा लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राम मंदिर का उद्घाटन, काशी विश्वनाथ धाम के जीर्णोद्धार और कृष्ण जन्मभूमि शाही ईदगाह का मुद्धा खूब उठाया।
भाजपा ने नारा भी दिया कि काशी, अयोध्या का प्रण पूरा और अब मथुरा की बारी है। इसके बावजूद भाजपा हिंदू मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने में असफल रही। हिंदू मतदाता जातियों में बंट गए।
वहीं, एनडीए के जो सहयोगी दल रहे, वो उत्तर प्रदेश में कुछ खास नहीं कर सके, खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में। अपना दल एस और सुभासपा अपनी सीटें नहीं बचा पाए। पूर्वांचल की जनता ओबीसी बनाम ऊंची जाति वाले बयानों से तंग आ चुकी थी।
पार्टी कार्यकर्ताओं से नकारात्मक प्रतिक्रिया के बावजूद भाजपा अपने सांसदों के खिलाफ सत्ता विरोधी भावना का अनुमान नहीं लगा सकी। इसने शुरू में अपने मौजूदा सांसदों में से 30% को टिकट देने से इनकार कर दिया था, लेकिन अंत में केवल 14 मौजूदा सांसदों को ही टिकट दिया।
किसानों और समाज के अन्य वर्गों के विरोध ने राज्य के कई इलाकों में पार्टी के खिलाफ गुस्से को और बढ़ा दिया।
राजनीतिक जानकार उत्तर प्रदेश में भाजपा के खराब प्रदर्शन के लिए कुछ कारणों को जिम्मेदार बता रहे हैं।
विपक्ष की ओर से जनता से कहा गया कि अगर भाजपा फिर से सरकार में आई, तो वह संविधान में बदलाव कर देगी। इसके साथ ही ओबीसी और एससी-एसटी आरक्षण को खत्म कर देगी। इसको भाजपा बेअसर करने में नाकाम रही है। अपनी रैलियों और जनसभाओं में नरेंद्र मोदी और अमित शाह बार-बार कहते रहे कि यह विपक्ष की ओर से फैलाया जा रहा झूठ है। भाजपा ऐसा कुछ भी नहीं करने वाली है, लेकिन उनके प्रयास असफल रहे हैं।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."