–रेहान फजल
73 फ़िल्मों में संगीत देने वाले ओमकार प्रसाद मदनगोपाल नैयर को हिंदी फ़िल्मों का मोहम्मद अली कहा जाता था. फ़िल्म संगीत के रसिया उनकी हर धुन में एक ख़ास किस्म का पंच देने की अदा पर मर मिटते थे.
कहीं उनको ‘रिदम किंग’ कहा जाता था तो कहीं ‘ताल का बादशाह.’ ओपी नैयर को छोड़ कर किसी भी भारतीय संगीतकार ने लता मंगेश्कर की आवाज़ का इस्तेमाल किए बगैर इतना सुरीला संगीत नहीं दिया है.
गुरुदत्त फ़िल्मों से मिली पहचान
1926 में लाहौर में जन्मे ओ पी नैयर ने 1952 में आसमान फ़िल्म से अपना करियर शुरू किया था. लेकिन उनको राष्ट्रीय पहचान मिली थी गुरुदत्त की फ़िल्मों आरपार, मिस्टर एंड मिसेज़ 55, सीआई डी और तुम सा नहीं देखा से.
ओ पी नैयर को नज़दीक से जानने वाले और इस समय दुबई में रह रहे सिराज ख़ाँ बताते हैं, ”गीता दत्त ने ओपी की ये कहते हुए अपने मंगेतर गुरु दत्त से सिफ़ारिश की थी कि ये संगीतकार एक दिन बहुत ऊपर जाएगा. इस के बाद की घटनाएं इतिहास हैं. गुरु दत्त अक्सर अपनी निजी बातें भी मुझसे साझा किया करते थे.’’
”उनकी पत्नी गीता दत्त और उनकी प्रेमिका वहीदा रहमान दोनों ने उन्हें आख़िरी में छोड़ दिया था और वो अपने आख़िरी दिनों में काफ़ी परेशान थे. उनकी मौत पर अपने स्वभाव के अनुसार ओ पी नैयर ने गीता दत्त और वहीदा रहमान को उनके शव के सामने ही खरी खोटी सुनाई थी. ओ पी नैयर से जब भी मेरी बात होती थी गुरु दत्त का ज़िक्र हर थोड़ी देर बाद आ जाया करता था.”
फ़ीफ़ी शब्द की वजह बैन हुए ओपी
पचास के दशक में ऑल इंडिया रेडियो ने उनके कुछ गानों पर प्रतिबंध लगा दिया. उनकी नज़र में वो कुछ ज़्यादा ही आधुनिक थे. ये अलग बात है कि रेडियो सीलोन पर वो गाने इतने लोकप्रिय हुए कि उन्होंने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए.
सिराज ख़ाँ बताते हैं, “सीआईडी फ़िल्म में उन्होंने एक गाना बनाया था जाता कहाँ है दीवाने. उसमें एक शब्द था फ़ीफ़ी, जिसे एआईआर वालों ने समझा कि इसका कोई द्विअर्थी मतलब है. इसलिए उसे बैन कर दिया गया. लेकिन ये गाना बहुत लोकप्रिय हुआ और इसे पिछले दिनों प्रदर्शित हुई फ़िल्म बॉम्बे वेलवेट में दोबारा इस्तेमाल किया गया.”
आशा भोसले को आशा भोसले बनाने का श्रेय अगर किसी को दिया जा सकता है तो वो थे ओ पी नैयर. उन्होंने आशा की आवाज़ के वैविध्य और रेंज का पूरा फ़ायदा उठाया. उनके रूमानी संबंधों ने भी उनके गानों में एक ख़ास किस्म की चिंगारी भर दी.
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सिराज ख़ाँ कहते हैं, “मेरा ख़्याल है इस तरह का रिश्ता बॉलीवुड क्या हॉलीवुड में भी नहीं हुआ है. उनकी प्रोफ़ेशनल रिलेशनशिप रोमांस में बदल गई और 1958 से लेकर 1972 तक यानी 14 सालों तक उनका साथ रहा. ये बहुत गहन साथ था. आप सोचिये एक शादीशुदा शख्स जिसके चार बच्चे हैं और एक तलाकशुदा महिला खुलेआम बंबई में घूमा करते थे.”
”नैयर साहब ने एक पत्रकार से कहा था, ‘ये तो सुना था कि लंव इज़ ब्लाइंड, लेकिन मेरे मामले में लव ब्लाइंड के अलावा डेफ़ यानी बहरा भी था क्योंकि आशा की आवाज़ के अलावा मैं और कोई आवाज़ सुन नहीं पाता था. इसी वजह से उन्होंने शमशाद बेगम और गीता दत्त से किनाराकशी अख़ित्यार कर ली.”
’14 साल आशा संग चला प्रेम संबंध’
मशहूर संगीत इतिहासकार राजू भारतन अपनी किताब ‘अ जर्नी डाउन मेमोरी लेन’ में लिखते हैं, ”ओ पी नैयर की आशा भोंसले के प्रति आसक्ति इस हद तक थी कि एक बार उन्होंने बिना कोई शब्द कहे गीता दत्त का फ़ोन रख दिया था. गीता दत्त ने सिर्फ़ ये पूछने के लिए फ़ोन किया था कि मैंने ऐसी क्या ख़ता की कि अब आप मुझे गाने के लिए नहीं बुलाते?”
”ये वही गीता दत्त थीं, जिन्होंने ओ पी नैयर की पहले पहल गुरु दत्त से सिफ़ारिश की थी. ओ पी नैयर का आशा भोंसले के साथ प्रेम संबंध 14 सालों तक चला. एक ज़माने में ओ पी नैयर की कैडलक कार में घूमने वाली आशा भोंसले ने 1972 में अपने जीवन के इस संगीतमय अध्याय को ख़त्म करने का फ़ैसला किया.”
इसके बाद आशा भोंसले और ओपी नैयर ने एक छत के नीचे कभी क़दम नहीं रखा. लेकिन इससे पहले उन्होंने ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ फ़िल्म के लिए एक गाना रिकॉर्ड किया, जिसे 1973 का फ़िल्म पुरस्कार मिला. आशा उस समारोह में नहीं गईं. ओपी नैयर ने उनकी तरफ़ से ट्रॉफ़ी ली. घर वापस लौटते समय उन्होंने वो ट्रॉफ़ी चलती कार से सड़क पर फेंक दी.
सिराज खाँ याद करते हैं, “नैयर साहब अपनी कार से वापस लौट रहे थे. उनकी कार में गीतकार एसएच बिहारी बैठे हुए थे. सड़क पर उस समय सन्नाटा था. अचानक नैयर साहब ने कार का शीशा नीचा किया और वो ट्राफ़ी फेंक दी जो एक खंबे से टकराई. आखिरी आवाज़ जो उन्होंने सुनी, जैसे कोई चीज़ चूरचूर हो जाती है. उन्होंने बगल में बैठे हुए बिहारी साहब से कहा कि ये जो आपने ट्रॉफ़ी टूटने की आवाज़ सुनी, इसके साथ ही आशा इज़ आउट ऑफ़ माई लाइफ़… फ़ॉर एवर…”
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‘लता के नाम पर नहीं लेना पुरस्कार’
ओपी नैयर ने अपने पूरे करियर में लता मंगेशकर से कोई गाना नहीं गवाया.
नैयर को नज़दीक से जानने वाले एक और शख़्स रोहन पुसलकर बताते हैं, ”उनका कहना था कि जो आवाज़ और आवाज़ का जो कैरेक्टर उन्हें चाहिए था वो लता में नहीं था. उनकी आवाज़ मेरे संगीत को सूट नहीं करती थी, इसलिए मैंने उनसे नहीं गवाया. मामला इतना सरल नहीं था जितना ऊपर से दीखता था. एक बार स्क्रीन अख़बार को दिए गए इंटरव्यू में लता मंगेशकर ने कहा था कि वो ओपी नैयर के लिए कभी कोई गाना नहीं गाएंगीं.
स्क्रीन के अगले ही अंक में ओ पी नैयर ने कहा, “लेकिन लताजी मैंने आपसे गाने के लिए कब कहा?”
राजू भारतन लिखते हैं, “एक बार मध्य प्रदेश सरकार ने नैयर को एक लाख रुपए का लता मंगेशकर पुरस्कार देने का फ़ैसला किया. जब राज्य सरकार का एक अधिकारी इस संबंध में उनसे मिलने आया तो उन्होंने उसके मुंह पर ही कहा कि लता मंगेशकर के नाम पर पुरस्कार लेने के बारे में दूर, वो उसके बारे में सोचना भी पसंद नहीं करेंगें. हाँ ये पुरस्कार अगर गीता दत्त के नाम पर होता तो उन्हें इसे ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं होती.”
मोहम्मद रफ़ी से हुई अनबन
साठ के दशक में एक बार ओपी नैयर की मोहम्मद रफ़ी के साथ भी अनबन हो गई थी और कुछ समय के लिए उन्होंने रफ़ी से कोई गाना नहीं गवाया.
सिराज खाँ बताते हैं, “रफ़ी साहब और नैयर साहब दोनों वक्त के पाबंद थे. कल्पना कीजिए, 70 वादक रफ़ी साहब का इंतज़ार कर रहे हैं. उस ज़माने में सेल फ़ोन वगैरह नहीं होते थे. रफ़ी साहब एक घंटे के बाद वहाँ आए और बोले सॉरी एक रिकॉर्डिंग थोड़ा लंबा खिंच गई, इस वजह से देर हो गई. नैयर साहब ने कहा, कोई बात नहीं. उन्होंने वादकों से कहा शुरू करो.”
“एक वादक ने बातों ही बातों में रफ़ी साहब से पूछा कि कहाँ देर हो गई थी? रफ़ी साहब भोले तो थे ही. उन्होंने कहा कि शंकर जयकिशन के यहाँ रिकार्डिंग थी, वहीं थोड़ी देर हो गई. शंकर जयकिशन का नाम सुनना था कि नैयर साहब ने कहा, अब कोई रिकॉर्डिंग नहीं होगी.”
”रफ़ी साहब आप अपने घर जाइए. म्यूज़ीशियंस आप भी अपने घर जाइए. मैं भी घर जा रहा हूँ. रिकॉर्डिंग करने का अब मेरा कोई मूड नहीं है. वो गाना उन्होंने महेंद्र कपूर से रिकॉर्ड कराया और कई सालों तक ओपी नैयर और मोहम्मद रफ़ी की बातचीत भी बंद रही.”
मधुबाला का ओपी नैयर को लेकर ऑफर
ओपी नैयर के बारे में एक कहानी और भी मशहूर थी कि मधुबाला अपने प्रोड्यूसर्स से कहा करती थीं कि अगर वो नैयर को बतौर संगीतकार लेंगे तो वो अपनी फ़ीस में डिस्काउंट कर देंगीं. इस घोषणा के बाद दोनों ने छह फ़िल्में एक साथ कीं. ओपी नैयर पहले संगीतकार थे जिन्हें एक फ़िल्म का संगीत देने के लिए एक लाख रुपए मिला करते थे जो उस ज़माने में एक बड़ी रकम हुआ करती थी.
1994 में अचानक ओपी नैयर ने अपना घर छोड़ दिया और थाणे के नख़वा परिवार के साथ रहने लगे. सिराज कहते हैं, “असल में ओपी नैयर ने नहीं बल्कि उनके परिवार ने उन्हें छोड़ दिया था. उनकी जगह कोई भी होता तो बर्दाश्त नहीं कर पाता. आपकी पत्नी जो आपके लिए पूरी तरह से वफ़ादार हो.. आपके उससे चार बच्चे हों, आप खुलेआम उसी शहर में रह रहे हों.”
”आशा भोसले के साथ आपका इश्क चल रहा है. एक नहीं पूरे 14 सालों तक. उनकी पत्नी और बच्चों को ये ख़बरे इधर-उधर से मिलती थीं. इसलिए उनमें कटुता बढ़ती चली गई. आख़िर में उनको अपनी ग़लती का अहसास भी हो गया. लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था. उन्होंने 94 में अपना घर, बैंक अकाउंट, कार सब कुछ छोड़ कर नए सिरे से अपनी ज़िंदगी शुरू की.”
”परिवार के सामने उनकी स्थिति भी विचित्र सी हो गई. उनको लगा कि मैं अपने परिवार को किस तरह से मुंह दिखाऊं. मैंने उस औरत के लिए अपना परिवार छोड़ दिया. आशा भोंसले ने भी उनको छोड़ दिया. उनको लगा कि न मैं इधर का रहा न उधर का रहा.”
टेलिफ़ोन बूथ से शुरुआत
नख़वा परिवार के साथ ओपी नैयर के रहने की कहानी एक एसटीडी टेलिफ़ोन बूथ से शुरू हुई थी.
उस बूथ को चलाया करती थीं रानी नख़वा. रानी बताती हैं, “ओपी नैयर हमारे बूथ पर टेलिफ़ोन करने आया करते थे. उस समय मैं उनको पहचानती नहीं थी. एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या यहाँ आसपास मेरे लिए पेइंग गेस्ट के तौर पर पहने का इंतज़ाम हो सकता है? मैंने तुरंत कहा, आप हमारे यहाँ क्यों नहीं रहते. उस समय हम एक बेडरूम के घर में रह रहे थे. हमने वो कमरा उनको दे दिया. हम उनको बाबूजी कह कर पुकारते थे. वो मुझे राजू बुलाते थे, क्योंकि उनको मेरा नाम रानी पसंद नहीं था.”
नैयर रानी के घर पर 12 सालों तक रहे. वो घर के काम में हाथ बंटाते. यहाँ तक कि रसोईघर में जा कर सब्ज़ी भी काटते. रानी याद करती हैं, “वो बहुत स्टाइलिश व्यक्ति थे. उनके कुर्ते हमेशा कलफ़ लगे होते थे. उनकी लुंगी हमेशा सिल्क की होती थी जिसे वो कला निकेतन से ख़रीदते थे. सफ़ेद रंग उनका प्रिय रंग था.”
”दोपहर को वो बियर पिया करते थे. शराब वो हमेशा ब्लैक लेबेल पिया करते थे…लेकिन कभी भी दो पेग से ज़्यादा नहीं. उन्हें अनुशासन बहुत पसंद था. जब भी हम घर से बाहर निकलते थे और हमें देर हो जाती थी तो वो हमें डांट दिया करते थे. वो अंग्रेज़ी फ़िल्में देखना पसंद करते थे. कभी कभी वो अपने कमरे में हारमोनियम बजाया करते थे. उन्होंने फ़िल्म जगत से अपने को पूरी तरह काट लिया था. सिर्फ़ सुरैया और शमशाद बेगम आख़िर तक उनके साथ संपर्क में थीं.”
ओपी नैयर ने जहाँ प्रसिद्धि की ऊँचाइयों को छुआ, वहीं अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर गुमनामी की गहराई में भी चले गए.
उन पर एक विद्रोही और अपरंपरागत संगीतकार होने का तमग़ा भी लगा. 28 जनवरी, 2007 को 81 वर्ष की आयु में ओ पी नैयर ने अंतिम सांस ली. लेकिन उनका संगीत कभी मर नहीं सकता.
वो कालजयी है उनका एक गीत, याद आता है-
इशारों इशारों में दिल लेने वाले
बता ये हुनर तूने सीखा कहाँ से..
-साभार, बीबीसी हिंदी
Author: कार्यकारी संपादक, समाचार दर्पण 24
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं