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19 January 2025 12:56 am

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कुश्ती संघ का निलंबन तो हो गया लेकिन यौन-उत्पीडऩ का न्याय कब मिलेगा पहलवानों को?

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दुर्गा प्रसाद शुक्ला की रिपोर्ट

केंद्रीय खेल मंत्रालय ने जिस तरह भारतीय कुश्ती महासंघ यानी डब्लूएफआइ को निलंबित कर दिया, उससे यह पता चलता है कि इस मसले पर चल रही खींचतान के बीच कैसे एक तरह से अराजक माहौल खड़ा हो रहा था और इसके लिए सरकार के रुख पर सवाल उठ रहे थे। हालांकि डब्लूएफआइ के संदर्भ में सरकार के ताजा फैसले का आधार तकनीकी है, लेकिन इसका एक संदेश यह भी निकला है कि महिला खिलाड़ियों ने भारतीय कुश्ती महासंघ के समूचे ढांचे और कामकाज के तौर-तरीके को लेकर जो आईना दिखाया था, वास्तव में वह जमीनी हकीकत की बुनियाद पर उठाए गए ठोस सवाल थे।

इसके बावजूद बेहद विचित्र तर्कों और परिस्थितियों के बीच भारतीय राजनीति में कद्दावर माने जाने वाले कुछ खास लोगों को बचाने की कोशिशें चलती रहीं और महिला पहलवानों के आरोपों को निराधार बताया जाता रहा।

अब जिस आधार पर भारतीय कुश्ती महासंघ की नई संस्था को निलंबित किया गया है, उससे यह साफ होता है कि आंतरिक ढांचे में एक विचित्र मनमानी चल रही थी, जिसका खमियाजा कुश्ती के खेल और इसके खिलाड़ियों को उठाना पड़ रहा था।

कुश्ती के नेपथ्य से जो दबदबा झांक रहा था, उसे भी हवा कर दिया गया। बहुत देर से फैसला लिया गया, लेकिन वह सटीक और न्यायिक कहा जा सकता है। कमोबेश वे पहलवान देश के सामने रोते हुए, प्रताडि़त और आक्रोशित नहीं दिखने चाहिए, जिन्होंने ओलंपिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश के लिए पदक जीते थे। वे आज भी देश की आन, बान, शान हैं। उन्होंने खेल के मैदान पर ‘तिरंगे’ का सम्मान कमाया और जिया है।

समझ नहीं आता कि एक तरफ खिलाड़ी ‘राष्ट्रदूत’ हैं और दूसरी तरफ उनके साथ यौन-व्यभिचार की कोशिशें की जाती रही हैं। देश की सत्ता ने यह नौबत ही क्यों आने दी? एक सांसद और कुश्ती संघ के अध्यक्ष का इतना दबदबा कैसे संभव है? यह लोकतंत्र है या अनाचार का कोई अड्डा..! कमोबेश मोदी सरकार में ऐसी निरंकुशता और उत्पीडऩ कतई अस्वीकार्य है।

भारतीय कुश्ती संघ के चुनावों का आडंबर जरूर रचा गया था, लेकिन ‘बाहुबली अध्यक्ष’ की टीम ही चुनी गई थी, लिहाजा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के ‘दबदबे वाले पोस्टर’ चिपकाए गए थे। खेल मंत्रालय के निलंबन आदेश के बाद स्पष्टीकरण शुरू हुए कि कुश्ती से अब उनका कोई लेना-देना नहीं है। वह कुश्ती से रिटायर हो चुके हैं।

‘दबदबे वाले पोस्टर’ से अहंकार की बू आती थी, लिहाजा उन्हें हटवा दिया गया।’ ऐसे स्पष्टीकरण इसलिए दिए जा रहे हैं, क्योंकि लोकसभा चुनाव करीब हैं। नया जनादेश लेना है। लोकतंत्र ने दबदबे और यौनाचार वाले बाहुबलियों की ताकत को निचोड़ कर रख दिया है।

दरअसल, कुश्ती महासंघ पर जो कार्रवाई की गई है, उसकी वजह राष्ट्रीय कुश्ती प्रतियोगिता को जल्द आयोजित कराने का फैसला है। सरकार के मुताबिक, हाल ही में डब्लूएफआइ के नव-निर्वाचित सदस्यों ने निर्णय लेने के क्रम में नियमों का उल्लंघन किया। 

चुनाव जीतने के कुछ ही देर के बाद इसके अध्यक्ष ने उत्तर प्रदेश के गोंडा में 28 दिसंबर से अंडर 15 और अंडर 20 राष्ट्रीय प्रतियोगिता कराने की घोषणा कर दी थी और पिछली तदर्थ समिति के सभी फैसलों को खारिज कर दिया था।

इसके पीछे इस वर्ष में बहुत कम समय बचने या नए पहलवानों का भविष्य बचाने जैसी दलीलें दी जा सकती हैं, मगर सवाल है कि इस क्रम में निर्धारित नियमों को ताक पर रख कर फैसला लेने को कैसे उचित ठहराया जा सकता है?

डब्लूएफआइ की नई संस्था के गठन और नए पदाधिकारियों के चयन के संबंध में जो खबरें आई हैं, उनके मद्देनजर देखा जाए तो ऐसा लगता है कि चुनाव प्रक्रिया में भी नियमों का पूरी तरह पालन करना जरूरी नहीं समझा गया।

ऐसे में अगर केंद्र सरकार ने भारतीय ओलंपिक संघ से कुश्ती संघ से जुड़े कार्यों की देखरेख के लिए एक तदर्थ समिति गठित करने को कहा तो उसका तकाजा समझा जा सकता है।

गौरतलब है कि पिछले काफी समय से कई महिला पहलवानों ने भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर कई गंभीर सवाल उठाए थे और आंदोलन भी किया था। मगर उनकी मांगों पर सरकार ने कोई साफ रुख अख्तियार नहीं किया।

हाल में जब डब्लूएफआइ का चुनाव हुआ तब भी उसके अध्यक्ष के रूप में बृजभूषण शरण सिंह के ही नजदीकी माने जाने वाले व्यक्ति की नियुक्ति हुई।

इसी से निराश साक्षी मलिक ने कुश्ती से संन्यास लेने की घोषणा कर दी और कई अन्य पहलवानों ने अपने पदक लौटा दिए। किसी भी हाल में यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है।

महिला पहलवानों ने डब्लूएफआइ के कुछ उच्चाधिकारियों के खिलाफ शिकायत उठाई थी, उसमें एक तरह से कुश्ती संघ के भीतर नियमों को ताक पर रख कर चलाई जा रही मनमानी पर रोक लगाने की भी मांग शामिल थी।

डब्लूएफआइ के चुनाव के बाद जिस तरह आनन-फानन में फैसले लिए जाने लगे, उसने पहलवानों की आपत्तियों से जुड़ी कड़ियों की पुष्टि की। अब देर से सही, सरकार ने अगर इस मसले पर स्पष्ट कार्रवाई की है, तो इसे दुरुस्त कदम कहा जा सकता है।

देश की संवेदनाएं और सहानुभूतियां ‘पद्मश्री’ लौटाते बजरंग पुनिया, कुश्ती से आंसू भरी विदाई लेती साक्षी मलिक और रोती-सुबकती विनेश फोगाट के प्रति रही हैं। देश ने उन्हें सम्मानित किया था, प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें अपना परिवार माना था, उनकी ही आंखों में आंसू हैं या वे सडक़ पर न्याय मांग रहे हैं, तो सत्ता मौन और तटस्थ क्यों है? यौन-उत्पीडऩ का न्याय कब मिलेगा? दरअसल हमारी पूरी व्यवस्था में ही संशोधन की गुंजाइश है। 

कुश्ती संघ का निलंबन ही पर्याप्त नहीं है। ब्रजभूषण के नापाक मंसूबों और हरकतों के मद्देनजर जो जांच जारी है और आरोप-पत्र अदालत में दाखिल किया जा चुका है, सरकार उसमें हस्तक्षेप करे और दबदबों को एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचाए।

कमोबेश हमारे पदकवीर खिलाड़ी पीडि़त या शोषित नहीं होने चाहिए। उन्होंने देश और कुश्ती के लिए अपना बचपन और यौवन सब कुछ झोंक दिया है, तब ओलंपिक पदक नसीब हुए हैं। क्या किसी एक जमात की हवस और उनके दबदबे के लिए खेल और खिलाडिय़ों की बलि दे दी जाए? दरअसल राष्ट्रीय खेल विकास संहिता, 2011 ऐसी कानूनी बाध्यता है, जिससे सभी खेल संघ जुड़े हैं और उन्हें जवाबदेह बनाते हैं। खेल संघों में एकाधिकार की स्थिति है, लेकिन वे सार्वजनिक चंदा या आर्थिक मदद भी स्वीकार करते हैं।

चुनाव के बावजूद कुश्ती संघ का दफ्तर ब्रजभूषण के सांसद निवास से ही चल रहा था। इसी जगह महिला पहलवानों का यौन उत्पीडऩ किया जाता था, ऐसे आरोप लगाए गए हैं। यानी चुनाव के बाद भी सत्ता का ढांचा यथावत ही रहा।

इसके अलावा जूनियर पहलवानों की प्रतियोगिता को लेकर दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया गया, लिहाजा संघ के संविधान के उल्लंघन पर निलंबित किया गया।

अब भारतीय ओलंपिक संघ को ही दायित्व सौंपा गया है कि वह एक तदर्थ समिति बनाए, जो कुश्ती संघ के कामकाज को देखे। यह अस्थायी व्यवस्था है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा यौन उत्पीडऩ का है।

महिला पहलवानों के कुछ बेहद निजी, गंभीर आरोप मीडिया में छपे हैं, लेकिन अदालत का निर्णय ही पहलवानों को न्याय दे सकता है। यह फास्ट कोर्ट के स्तर पर किया जाना चाहिए था, ताकि फैसला लोकसभा चुनाव से पहले आ सके और दबदबे वाली राजनीति प्रभावित हो सके।

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Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

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