आत्माराम त्रिपाठी की रिपोर्ट
केंद्रीय खेल मंत्रालय ने भारतीय कुश्ती संघ की ‘दबदबे’ वाली टीम को निलंबित कर दिया। मान्यता छीन ली गई। बहुत देर से फैसला लिया गया, लेकिन वह सटीक और न्यायिक कहा जा सकता है। कमोबेश वे पहलवान देश के सामने रोते हुए, प्रताडि़त और आक्रोशित नहीं दिखने चाहिए, जिन्होंने ओलंपिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश के लिए पदक जीते थे। वे आज भी देश की आन, बान, शान हैं। उन्होंने खेल के मैदान पर ‘तिरंगे’ का सम्मान कमाया और जिया है।
समझ नहीं आता कि एक तरफ खिलाड़ी ‘राष्ट्रदूत’ हैं और दूसरी तरफ उनके साथ यौन-व्यभिचार की कोशिशें की जाती रही हैं। देश की सत्ता ने यह नौबत ही क्यों आने दी? एक सांसद और कुश्ती संघ के अध्यक्ष का इतना दबदबा कैसे संभव है?
यह लोकतंत्र है या अनाचार का कोई अड्डा..! कमोबेश मोदी सरकार में ऐसी निरंकुशता और उत्पीडऩ कतई अस्वीकार्य है। भारतीय कुश्ती संघ के चुनावों का आडंबर जरूर रचा गया था, लेकिन ‘बाहुबली अध्यक्ष’ की टीम ही चुनी गई थी, लिहाजा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह के ‘दबदबे वाले पोस्टर’ चिपकाए गए थे।
खेल मंत्रालय के निलंबन आदेश के बाद स्पष्टीकरण शुरू हुए कि कुश्ती से अब उनका कोई लेना-देना नहीं है। वह कुश्ती से रिटायर हो चुके हैं। ‘दबदबे वाले पोस्टर’ से अहंकार की बू आती थी, लिहाजा उन्हें हटवा दिया गया।’ ऐसे स्पष्टीकरण इसलिए दिए जा रहे हैं, क्योंकि लोकसभा चुनाव करीब हैं। नया जनादेश लेना है। लोकतंत्र ने दबदबे और यौनाचार वाले बाहुबलियों की ताकत को निचोड़ कर रख दिया है।
देश की संवेदनाएं और सहानुभूतियां ‘पद्मश्री’ लौटाते बजरंग पुनिया, कुश्ती से आंसू भरी विदाई लेती साक्षी मलिक और रोती-सुबकती विनेश फोगाट के प्रति रही हैं। देश ने उन्हें सम्मानित किया था, प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें अपना परिवार माना था, उनकी ही आंखों में आंसू हैं या वे सडक़ पर न्याय मांग रहे हैं, तो सत्ता मौन और तटस्थ क्यों है? यौन-उत्पीडऩ का न्याय कब मिलेगा?
दरअसल हमारी पूरी व्यवस्था में ही संशोधन की गुंजाइश है। कुश्ती संघ का निलंबन ही पर्याप्त नहीं है। ब्रजभूषण के नापाक मंसूबों और हरकतों के मद्देनजर जो जांच जारी है और आरोप-पत्र अदालत में दाखिल किया जा चुका है, सरकार उसमें हस्तक्षेप करे और दबदबों को एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुंचाए।
कमोबेश हमारे पदकवीर खिलाड़ी पीडि़त या शोषित नहीं होने चाहिए। उन्होंने देश और कुश्ती के लिए अपना बचपन और यौवन सब कुछ झोंक दिया है, तब ओलंपिक पदक नसीब हुए हैं। क्या किसी एक जमात की हवस और उनके दबदबे के लिए खेल और खिलाडिय़ों की बलि दे दी जाए?
दरअसल राष्ट्रीय खेल विकास संहिता, 2011 ऐसी कानूनी बाध्यता है, जिससे सभी खेल संघ जुड़े हैं और उन्हें जवाबदेह बनाते हैं। खेल संघों में एकाधिकार की स्थिति है, लेकिन वे सार्वजनिक चंदा या आर्थिक मदद भी स्वीकार करते हैं।
चुनाव के बावजूद कुश्ती संघ का दफ्तर ब्रजभूषण के सांसद निवास से ही चल रहा था। इसी जगह महिला पहलवानों का यौन उत्पीडऩ किया जाता था, ऐसे आरोप लगाए गए हैं। यानी चुनाव के बाद भी सत्ता का ढांचा यथावत ही रहा। इसके अलावा जूनियर पहलवानों की प्रतियोगिता को लेकर दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया गया, लिहाजा संघ के संविधान के उल्लंघन पर निलंबित किया गया।
अब भारतीय ओलंपिक संघ को ही दायित्व सौंपा गया है कि वह एक तदर्थ समिति बनाए, जो कुश्ती संघ के कामकाज को देखे। यह अस्थायी व्यवस्था है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा यौन उत्पीडऩ का है।
महिला पहलवानों के कुछ बेहद निजी, गंभीर आरोप मीडिया में छपे हैं, लेकिन अदालत का निर्णय ही पहलवानों को न्याय दे सकता है। यह फास्ट कोर्ट के स्तर पर किया जाना चाहिए था, ताकि फैसला लोकसभा चुनाव से पहले आ सके और दबदबे वाली राजनीति प्रभावित हो सके।
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Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."