अनिल अनूप
मिर्जाग़ालिब का शेर है
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रकीब
गालियां खा के बे-मज़ा न हुआ
वह जमाने चले गए, जब लोग गालियों का मजा ले लेते थे। इस बार तों हंसी-मजाक के चक्कर में संसद में सत्र चला पाना ही चुनौती रहा। थोक के भाव में सांसद निलंबित किए गए और…
मिमिक्री सबसे बड़ी राष्ट्रीय समस्या के रूप में उभरकर सामने आई। हालात ऐसे हैं कि देश भर में मीम बनाने वाले, मिमिक्री करने वाले और हंसोड़ तबीयत के लोग फिक्र में पड़ गए हैं।
वैसे भी मिमिक्री यानी मजाक बनाना दिल्ली और लखनऊ जैसे शहरों की पुरानी रवायत है । लखनऊ के नवाब कोलकाता गए तो पश्चिम बंगाल तक भी यह कला पहुंची ही होगी । पुराने लखनऊ की जिस गली में अपना वचपना बीता, वहां न जाने कब से एक रवायत चली आ रही थी, उपनाम रख देने की । मसलन कोई लालता प्रसाद त्रिपाठी तो लोग उनका नाम लाठी रख देते थे। एक अवधेश जी थे तो उन्हें ऑँधू और एक अशोक साहब थे तो उन्हें बांगड़ी कहा जाता था। एक साहब हास्य कविता खुद ही कुल्हड़ उपनाम से लिखते थे। उन्हें परेशान करना होता तो लोग उनके सामने कुल्हड़ फोड़ देते और फिर उनकी गालियां शुरू हो जातीं। ऐसा ही एक शख्स था, जिसके सामने सिर्फ ‘ताली बजा दो तो वह गुस्सा जाता । लोगों ने उसे इस कदर चिढ़ाया कि वह पागल हो गया।
इस मामले में दिल्ली भी पीछे नहीं। औरंगजेब के शासनकाल में करेला नाम के एक मशहूर भांड का मशहूर किस्सा है। एक बार औरंगजेब को गुस्सा आ गया और उन्होंने सारे भांडों को दिल्ली से बाहर कर देने का हुक्म सुना दिया।
दूसरे दिन जब बादशाह की सवारी निकली तो एक पेड़ पर ढोल बजने और भांडों के गाने की आवाज आई । औरंगजेब को बहुत गुस्सा आया। उसने अपने सिपहसालारों से पूछा कि हुक्म की तामील क्यों नहीं हुईं । वह कुछ बोलते, उससे पहले पेड़ पर चढ़ा करेला बोला- अर्ज॑ किया है किब्ला-ए- आजम, सारी दुनिया तो जहांपनाह के कब्जे में है, जाएं तो कहां जाएं? इसीलिए अब तो। ‘बस ऊपर जाने का इरादा किया है और अभी पहली मंजिल पर हूं’।
सुनकर सबको हंसी आ गई और औरंगजेब ने उसे माफ कर दिया।
ऐसा ही एक मशहूर किस्सा लखनऊ के भांडों का भी है । नवाब सआदत अली खां के जमाने में एक रईस के यहां महफिल में भांडों की परफॉरमेंस चल रही थी । एक रईस ने भांड को इनाम में एक बहुत पुरानी फटी-पुरानी दुशाला दे दी । भांड उस दुशाला को बहुत ध्यान से देखने लगा। इस पर दूसरे भांड ने पूछा कि इतने ध्यान से क्या देख रहा है? ‘जवाब मिला कि कुछ लिखा है, उसे पढ़ रहा हूं। यह कहते हुए उसने पढ़ने का अभिनय करते हुए अटक-अटक कर बोलना शुरू किया- लाइलाहा इलल्लाह ( अल्लाह से बड़ा कोई नहीं) ।
फिर दूसरे भांड ने पूछा, मुहम्मद-उर-रसुलिल्लाह (मुहम्मद अल्लाह के पैगंबर हैं) नहीं लिखा। इस पर पहले नक्काल ने जवाव दिया- कैसे लिखा हो सकता है, दुशाला हमारे हजरत से भी पहले का है। इस तरह से उन्होंने पुरानी शॉल मिलने की नाराजगी को कुछ यूं बयां किया। वैसे, अपने देश की संसद में भी पक्ष-विपक्ष के बीच हंसी-मजाक हमेशा से चलता आ रहा है। इस बार मामला कुछ सीरियस हो गया। वहरहाल अपने बड़ों ने तो यही सिखाया है कि हंसी-मजाक की बातों का ज्यादा बुरा नहीं मानना चाहिए और मजाक करने वालों को भी एक हद में रहना चाहिए। पक्ष-विपक्ष के इस नोकझेंक पर अहमद फ़राज़ का यह शेर और बात खत्म कि-
नशे से चूर हूं मेँ भी तुम्हे थी होश नहीं
बड़ी सज़ा हो अगर थोड़ी दूर साथ चलो।
Author: samachar
"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."