Explore

Search
Close this search box.

Search

18 January 2025 2:41 pm

लेटेस्ट न्यूज़

आज पुरानी यादों से…..झांके बिन नहीं रहा गया ; वाकई कुछ यादें अमिट बन जाती हैं, पढिए इस सफर को, अच्छा लगेगा

44 पाठकों ने अब तक पढा

अनिल अनूप

फ़िर वही मकाम आया है आज, जिससे गुज़रना हमारे दिलों पर फ़िर खंजर चलने से कम नहीं.आज ही के दिन हमारे मोसिकी़ की हसीन दुनिया में  एक आफ़ताब चमका और छा गया ऐसी तारीकी कि आज तक हम उस उजाले के तसव्वुर में खुदी को भुलाये, खुद को भुलाये बस जीये जा रहे हैं.

बचपन से हमने जब भी होश सम्हाला, अपने को इस सुरमई शाहानः आवाज़ की मोहोब्बत की गिरफ़्त में पाया, जिसे मेलोडी या सुरीलेपन का पर्याय कहा जाता रहा है. हम मश्कूर हैं इस सुरों के पैगंबर के, जिसने हमारी जवानी को, एहसासात की गहराई को, प्यार की भावनाओं को परवान चढाया और हमें इस लायक बनाया कि हम उस खुदा के साथ-साथ उसके अज़ीम शाहकार की भी इज़्ज़त और इबादत कर सके. तब से आज तक वह नूरानी आवाज़ की परस्तिश सिर्फ़ मैं ही नहीं आप सभी सुरों के दुनिया के बाशिंदे भी कर रहें है.

काश होता ये कि मालिक हम सभी तुच्छ लोगों की ज़िंदगी में से कुछ दिनों को भी उनकी उम्र में जोड देते तो आज हम उस फ़रीश्ते की आवाज़ से मरहूम ना होते और रोज़ रोज़ उनकी मधुर स्वर लहरियों की छांव तले उस कुदरती मो’अजिज़ को सुनते और बौराते फ़िरते.

अभी वैसे भी मूसीकी़ के इस जहां में फ़ाकाकशी के अय्याम चल रहे है और ऐसे में रफ़ी साहब की यादों में और उनके गाये हुए कालातीत गानों के सहारे ही मस्त हुए जा रहे हैं, अवलिया की तरह झूमें जा रहे हैं.

रफ़ी साहब ने अपनी पुरनूर आवाज़ में चार चांद लगा दिये थे -मधुबन में राधिका नाचे रे….उस दिन से रफ़ी जी के गानों का जुनून दिल में तारी हो रहा है. दिल दिन ब दिन हर गीत की गहराई में गोते खा कर नये नये आयाम खोज कर ला रहा है, हीरे मोती के खज़ाने निकाल रहा है. जैसे गीता को जितनी भी बार पढो उनती बार नये अर्थ निकल कर आते है, रफ़ी जी के गाये हर गीत को बार बार सुनने पर हर बार नया आनंद प्राप्त होता है.

आज सुबह साडे़ छः बजे जब विविध भारती पर भूले बिसरे गीत में एक गीत सुना तो लगा जैसे रफ़ी साहब के लिये आज कुदरत भी सुबह सुबह तैय्यार हो कर सलाम करने आ गयी है. नाचे मन मोरा मगन तिकता धीगी धीगी…..और संयोग ये कि हल्की हल्की बूंदा बांदी हो चुकी थी, और फ़िज़ा में वही एम्बियेंस घुल रहा था. उस माहौल को मैने कॆमेरे में कैद कर लिया, जहां बदरा गिर आये थे भीगी भीगी रुत में . मोर भी अपनी प्रियतमा के लिये नहीं आज खास तौर पर स्वयं रफ़ी जी के लिये ही अपने मोरपंखों को फ़ैलाये नृत्य कर रहा था.

यकीन मानिये, इस फ़िल्म में कोई स्टॊक सीन नहीं है, बस आज प्रकृति ने भी रफ़ी जी के लिये अपना इज़हारे अकीदत पेश किया है. मानो रफ़ी जी के ही लिये ये पूरा महौल खास आज के लिये निर्मित किया गया हो. आज से हम हर तीसरे दिन मुहम्मद रफ़ी जैसी शक्सि़यत पर कुछ ना कुछ लिखेंगे. कुछ दिल से दिल की बात करेंगे, और अपने अपने दिलों को सुरों के इस राह पर ले जायेंगे, जिसका रहनुमा भी रफ़ी जी हैं और मंज़िल भी रफ़ी जी .

कयामत आती हो तो आने दो. आईये, हम सभी श़ख्सी़ तौर पर उस पाक रूह की तस्कीन के लिये मिल कर दुआ करें, क्योंकि अब हमारे हाथ में दुआ करने के अलावा और कुछ भी नहीं जो उस श़क्स़ को नज़र कर सकें….तेरे गीतों में बाकी़ अब तलक वो सोज़ है, लेकिन..वो पहले फ़ूल बरसाते थे, अब दामन भिगोते हैं…….

नौशाद और रफ़ी जी के अद्वितीय जुगलबंदी का जलवा जो मेला फ़िल्म के गीत से दुनिया की निगाहों में आया वह दुलारी फ़िल्म के गाने – सुहानी रात ढ़ल गई , ना जाने तुम कब आओगे? के बाद और परवान चढा़ और मोहम्मद रफ़ी का नाम हर फ़िल्मी गीत सुनने वाले की ज़ुबान पर चढ़ गया. जब सहगल के साथ रफ़ी जी नें गाया तो हर गायक की तरह रफ़ी जी पर भी उनकी गायन शैली का प्रभाव पडा़. या यूं कहें, उस समय का गाने का तौर तरीका या स्टाईल ही सहगल की शैली पर आधारित था.मगर रफ़ी साहब के गले का मूल Timbre या स्वर स्वरूप मिठास लिये साफ़ सुथरा था. उन्हे सहगल के धीर गंभीर खरज की आवाज़ जैसा बनाने के लिये बडा़ प्रयत्न करना पडता था.

ये नौशाद ही थे जिनने रफ़ी की रेंज और तार सप्तक में (यानि ऊपर के ऒक्टेव में) पूरी एनर्जी लेवल से गा पाने की क्षमता का आकलन किया और उसका उपयोग एक अलग शैली विकसित कर हम जैसे संगीत प्रेमियों पर अहसान किया.

बाद में इसी तरह लता जी ने भी नूरजहां या सुरैया की शैली से बाहर निकल कर स्वयं की साफ़ और मिठास भरी गायक शैली की पहचान बनाई.

मैं यहां ये नहीं कहना चाहूंगा कि सहगल या नूरजहां की शैली में कोई खराबी या गलती नहीं थी, मगर फ़िल्मों की पेस या चाल की तरह गानों में भी लय, स्पीड बढी़, और उस नये वातावरण में रफ़ी की आवाज़ नें उस गॆप को बखूबी भरा. इस बात पर नौशाद जी ने ये संस्मरण साझा किया था कि रफ़ी जी भी खरज या लोवर ऒक्टेव में ही गीत गाते थे तो फ़िल्म दीदार के गानों की रिकार्डिंग के दिनों में नौशाद ने रफ़ी से जब ये कहा कि तुम्हारा आवाज़ खरज में यूं म्लान लगता है, जैसे कि गला दबा रखा है. ज़रा खुल के गाओ, और गांभीर्य का पुट जरा हलका करो, ताकि जवां और अपरिपक्व नायक के नये चरित्र का प्रोजेक्शन हो सके.

रफ़ीजी को बात जंच गई. मगर उन्होनें नौशाद साहब से ही कहा कि आप ही कोई ऐसी धुन बनायें तो मैं उसे गाने की कोशिश कर सकूंगा. तो उस कालजयी गाने की धुन ने जन्म लिया -मेरी कहानी भूलने वाले, तेरा जहां आबाद रहे..जब ये धुन नौशाद नें रफ़ी को सुनाई, तो पहली बार तो वे सुन कर एकदम अवाक ही रह गये, क्योंकि उससे पहले दिल्लगी, अनमोल घडी़ , मेला आदि फ़िल्मों की धुनों से ये तर्ज़ एकदम अफ़लातून ही थी.फ़िर भी रफ़ी ने ये चेलेंज सर आंखों पर लेकर रात दिन मेहनत की. कई बार नौशाद जी को फ़िर पूछा कि यहां समझ नही आ रहा है, कृपया फ़िर से बतायें. उस नई शैली के गीत को इस तरह कई बार मांजा गया, क्योंकि उस समय नौशाद ने वहां थोडा़ मुरकी में या स्वरों के उतार चढाव में बदलाव किया जिससे रफ़ी जी के गले की तरलता की, लचीलेपन के अनोखे गुण से गीत के माधुर्य में मेलोडी़ में अद्भुत रसोत्पादन हो सके. साथ साथ वे रफ़ी जी के आत्मविश्वास को भी बढा़वा देते रहे.

आखिर एक दिन आया और रफ़ी जी नें कहा मैं तैयार हूं और आनन फ़ानन में दो तीन ट्रायल में ही गाना रेकोर्ड़ कर डाला!!संयोग से इस फ़िल्म के नायक युसुफ़ दिलीप कुमार , निर्देशक नितिन बोस भी इस ध्वनिमुद्रण के समय एच एम वी के फ़्लोरा फ़ाउंटन के स्टुडियो में हाज़िर थे.

जब रफ़ी रिकोर्डिंग खत्म कर रूम से बाहर आये तो दोनों नें रफ़ी जी को कस के गले लगा लिया, और कहने लगे कि ये गाना हिट होने से कोई भी नहीं रोक सकेगा. उन दिनों गाना फ़िल्म के लिये ध्वनि मुद्रित तो होता ही था जो फ़िल्म के ओरिजिनल साउंड़ ट्रेक के हिसाब से बनाया जाता था, जिसमें तीन स्टॆन्झा होते थे. मगर साथ में 78 rpm की डिस्क जिसे हम रिकोर्ड कहते थे, के लिये भी अलग ट्रॆक रिकोर्ड होता था, क्योंकि सीमित जगह की वजह से अमूमन दो ही स्टॆंन्झा उसमें आ पाते थे. इसीलिये आप को मालूम ही होगा कि रेडियो पर या अधिक जगह पर वही संस्करण बाज़ार में सुना जाता था. बाद में जब लॊंन्ग प्लेयिंग रिकोर्ड का उद्भव हुआ तो वहां हम लोगों के लिये ओरिजिनल साउंड़ ट्रेक उपलब्ध होनें लगा तो उस समय उर्जावान गानें की आपाधापी में रिकोर्डिस्ट जी एन जोशी बोले, कि अभी समय है, अगर रफ़ी जी थक नहीं गये हों तो दूसरा वर्शन भी आज ही कर लें? रफ़ी जी ने तपाक से हां भर ली, और दूसरा वर्शन भी आनन फ़ानन में मुद्रित हो गया. तो जोशी जी जिन्होने इससे पहले कई गायकों को रिकोर्ड किया था ,नौशाद साहब से बोले- नौशाद सहाब, ये नौजवान गायक तो निराला ही है, कोहिनूर से भी ज़्यादा चमक पैदा करेगा, इंडस्ट्री में खूब कामयाबी हासिल करेगा. नौशाद बोले- इंशाल्लाह !!!

चलो , सुनते है- मेरी कहानी ..आपने सुना और देखा- स्थाई में रफ़ी जी खरज में पंचम तक और अंतरे में तार सप्तक में भी पंचम तक चले जाते है !! क्या बात है, किस अजब , गज़ब रेंज का मुजहिरा किया है जनाब .

मगर ये भी मानना पडेगा कि अभिनय के सम्राट दिलीप कुमार इस गाने के उत्तुंग स्वरों को अभिनय के साथ मिलान नहीं कर पाये…(क्या आप सहमत है?)और फ़िर क्या था, ऐसे खुली आवाज़ वाले गानों का चलन बढने लगा और उस शैली का विकास हुआ जिसमें खुले स्वर के साथ True Notes का उपयोग कलात्मक मुरकियों और संवेदनशील भावना से भीगे स्वरों का अभिर्भाव हिंदी फ़िल्मों के हुआ , जो अब तक चलता आ रहा है. (बाद में किशोर कुमार नें True notes के साथ साथ False notes की सुरमई संमिश्रण की शैली विकसित की जिसका वृहद रूप आज के गायकों की गायन शैली में दिखता है.

रफ़ी जी नौशाद साहब की हौसला अफ़ज़ाई को कभी भूल नही पाये, और उनके स्वभाव में भी ये बर्ताव रच बस गया, जो बाद में कई स्थान पर देखने को मिला. नौ्शाद साहब हमेशा उनके गॊड फ़ादर रहे. जब रफ़ी जी अपनी बिटिया की शादी का न्योता देने नौशाद जी के यहां पहुंचे तो कहा आपको आना है, निकाह का इंतेज़ाम और पार्टी ताजमहल होटल पर रखी है, तो नौशाद जी ने उन्हे कहा – कि अपनी बिटिया ने अपना बचपन अपने घर में गुज़ारा है, जहां लाखों यादें और भावनायें उस वस्तु के साथ बाबस्ता हैं , तो मेरा सुझाव है कि आप शादी तो अपने घर से ही करिये, भले ही वह छोटी जगह है. वही हुआ , शादी उनके घर में (रफ़ी विला) ही हुई.

बकौल नौशाद के – एक साल बाद, जब रफ़ी नाम का ये सूरज अर्श पर स्थापित हो गया था, तो बैजु बावरा फ़िल्म के एक गानें के बारे में एक विशेष प्रभावित करने वाला संस्मरण सुनिये. इस फ़िल्म में छोटा बैजू और उसके पिताजी रास्ते पर से साचो तेरो नाम नाम गाते गाते तानसेन की हवेली के सामने से जाने का प्रसंग था. इस गीत के लिये बैजू बावरा के पिता की आवाज़ के लिये मैने रफ़ी का चयन किया, और बैजू की बालक आवाज़ के लिये एक गुणी और तैयार बच्चे का चयन किया, जिसका इस तरह का प्ले बॆक देने का पहला ही अवसर था. ज़ाहिर है, वह रफ़ी जी के सामने कभी बिचकने या डरने लगा तो कभी घबराकर अटकने लगा. तो रफ़ी जी ने उस प्रतिभावान बालक को प्रेम से पुचकार कर गले से लयाया और उसका आत्मविश्वास जागृत किया. ये भी कहा कि बेटा घबराने की कोई बात नहीं है, तुम जब तक बोलोगे या संतुष्ट होगे , हम लोग गाते रहेंगे. बडी मेहनत के बाद वह गीत तैय्यार हुआ और बेहद अच्छा बना.

पता है वह बालक कौन था- आज का प्रसिद्ध गायक, और संगीतकर हृदयनाथ मंगेशकर…रफ़ी जी पर कडी़ और आगे भी- सी रामचन्द्र, महेंद्र कपूर , चित्रगुप्त , ओ पी नय्यर , जिन्हे हम इस जनवरी में याद कर रहे हैं जन्म दिन या बरसी पर, उनके साथ रफ़ी के गीतों को और उनके साथ यादों की जुगाली करेंगे – हम लोग…

samachar
Author: samachar

"कलम हमेशा लिखती हैं इतिहास क्रांति के नारों का, कलमकार की कलम ख़रीदे सत्ता की औकात नहीं.."

लेटेस्ट न्यूज़